Sunday, March 26, 2017

प्रधानी तुम्हारी?

समझ से परे है कहानी तुम्हारी,
गई बीत यूँ ही जवानी तुम्हारी|

सदा भीड़ भारी किये जा रही है,
निरन्तर प्रशंसा जबानी तुम्हारी|

स्वतः गौर करिये आती नहीं क्यों,
उन्हें रास प्यारे! प्रधानी तुम्हारी?

सही बात है आधुनिक दौर में ये,
बड़ी सोच लगती पुरानी तुम्हारी|

नहीं रंच सन्देह इसमें "तुका" को-
कि जनता हुयी है दिवानी तुम्हारी|

Tuesday, March 14, 2017

कहाँ छुपाया माल?

घोटालेबाजों का बोलो, कहाँ छुपाया माल?
कटे क्यों नहीं अभी तक जाल?
कटे क्यों नहीं अभी तक जाल?
कड़वी बातें सुनते-सुनते, आरोपों को गुनते-गुनते,
सब्र टूटने लगा छलावी, नेताओं को चुनते-चुनते|
कब तक खींचोगे बतलाओ, मजलूमों की खाल?
कटे क्यों नहीं अभी तक जाल?
कटे क्यों नहीं अभी तक जाल?
भूखे-प्यासे वदन उघारे, मुक्त घूमते ठग हत्यारे,
गूँज रहे गलियों-गलियों में, जाति-धर्म के पोषक नारे|
बेच रहे स्वर्णिम स्वप्नों को, चाटुकार बाचाल| 
 कटे क्यों नहीं अभी तक जाल?
कटे क्यों नहीं अभी तक जाल?
असमंजस में हैं विश्वासी, क्रोधित दिखते हैं सन्यासी,
जादूगीरी बहुत हो चुकी, मिला नहीं मौसम मधुमासी|
शैतानों की ओर झुकी क्यों, न्याय वृक्ष की डाल?
कटे क्यों नहीं अभी तक जाल?
कटे क्यों नहीं अभी तक जाल?