Monday, December 12, 2011

अगर चाहते राष्ट्र हो, भ्रष्टाचार विमुक्त|
तो समाज को कीजिये, सदाचरण से युक्त||
राजनायकों के यहाँ, जाते हैं जो लोग |
क्या वे नैतिक मार्ग का, करते हैं उपयोग?
अपनी गलती ही जिन्हें, दिखती कभी न मित्र|
ऐसे मानव तो सदा, करते कार्य विचित्र ||
किसको कहते चोर हैं,किसको कहते शाह|
पहले अपनी जाँच लें , अपने आप निगाह||
इतनी सीधी है नहीं, राजनीति की चाल |
आयेंगे किस गेह से , लोकपाल के लाल ||

Sunday, December 4, 2011

जो जन उसका भय खाते हैं,कृपा पीढ़ियों तक पाते हैं|
प्रभु ने शक्ति भुजाओं द्वारा,किये कार्य शुचि दिया सहारा||
तितर-वितर नित उन्हें किया है,बहुत जिन्होंने दर्प जिया है|
... बलवानों का ताज उतारा, दीन-दुखी को सदा सँवारा||
भूखे-प्यासे तृप्त किये हैं, धनिक हाथ कर रिक्त लिये हैं|
प्रभु ने इस्राएल बचाया,निज विवेक सम्मान बढ़ाया||
कहाँ पूर्वजों से जैसा था, प्रभु से मिला सभी वैसा था|
अब्राहम का वंश संभाला,दिया दया का दान उजाला||
तीन माह मरियम रही, इलीशिवा के साथ|
तब लौटी निज गेह को,मिला हाथ से हाथ||11
प्रसवकाल पास जब आया,इलीशिवा ने सुत को पाया|
हिल-मिलकर आनंद मनाया,सबने सबको गले लगाया||
रिश्तेदार पड़ोसी आये ,ईश कृपा सुन उर हर्षाये |
अष्टम दिन वे फिर सब आये,खतना करने को अकुलाये||
नाम पिता का देना चाहा, इलीशिवा ने नहीं सराहा |
माँ ने अपनी कहीं तमन्ना,इसका नाम रखो यूहन्ना||
सबने मिलकर उसे बताया,नाम न यह कुटुम्ब में आया|
सबने पूछा पुत्र-पिता से, क्या तू सहमत है वनिता से?
जकरयाह से पूछते,रिश्तेदार तमाम|
तू क्या रखना चाहता,आने सुत का नाम?12
जकरयाह ने पट्टी माँगी,लिखा यूहन्ना प्रभु अनुरागी|
सब में अचरज रेखा जागी,जकरयाह की विपदा भागी||
मधुर स्वरों में वे सब बोले, आनंदित उनके उर डोले |
पास पड़ोसी सब घबराये,प्रभु की महिमा समझ न पाये||
देश यहूदा क्षेत्र पहाणी, सब समझे ज्यों हो नभवाणी|
सत्य-तथ्य को गुनने वाले,लगे सोचने सुनने वाले ||
कहें परस्पर शिशु की गाथा, सभी पकड़कर अपना माथा|
इसमें प्रभु की शक्ति भरी है,परम भक्ति अनुरक्ति भरी है||
एक दूसरे से कहें,अपने-अपने ख्याल|
कौन बनेगा बोलिए,जकरयाह का लाल?13
पवित्र आत्मा उसने पायी,परमेश्वर की हो प्रभुतायी|
उसने यह भविष्यवाणी की,जय-जय परमेश्वर दानी की||
कृपा दृष्टि की दिया सहारा, शीघ्र किया उनका छुटकारा|
उसने आश्रय हमें दिया है,उद्धारक उत्पन्न किया है||
जग को मिला ईश के द्वारा,वह दाऊद वंश का तारा|
नावियों ने जैसा बतलाया,वही आदि से होता आया ||
प्रभु ने हमको प्यार किया है, रिपुओं से उद्धार किया है|
पुरखों पर करुणा दिखलायी, अपनी वाचा पूर्ण निभायी||
प्रभु ने पूरी शपथ की, अब्राहम के साथ|
मुक्त हुए सब शत्रु से,मिले स्नेह से हाथ||14
परम मित्र हों सभी हमारे, भय विहीन हों जीवन  प्यारे|
प्रभु सेवा में ध्यान लगायें, सत्य-ज्ञान से धर्म निभायें||
परमपिता का नवी बनेगा, बुद्धिविवेक विश्व को देगा|
आगे-आगे सदा चलेगा,ईश मार्ग तैयार करेगा||
तारण हेतु ज्ञान वह देगा,पाप क्षमा से जो कि मिलेगा|
यह सब प्रभु करुणा से होगा,फल स्वर्गिक अरुणा से होगा||
अन्धकार में जो रहते हैं, मार मृत्यु कि वे सहते है|
दिव्य ज्योति दे तिमिर हरेगा,सच पथ ओर पैर कर देगा||
बालक नित बढ़ता गया,पूतात्मा बलवान|
इस्राएल के पूर्व वह,रहकर निर्ज़न स्थान||15

khand kaavy


संत लूका रचित सुसमाचार
खण्ड काव्य
काव्यानुवाद
अनुवादक
डॉ० तुकाराम वर्मा
 
           प्रथम अध्याय
बहुत बंधुओं ने लिखा , वह सजीव इतिहास |
घटित हुआ था जो यहाँ, कभी हमारे पास || 1
अपनी आँखों से घटनायें,देखी-परखी आदि प्रथायें|
प्राणी ईश वचन के धारी,हमें दे गए वाणी प्यारी|
मैंने भी यह समुचित माना,क्रमशः लिखना हितकर जाना|
ताकि आप यह शिक्षा जानें,भली-भांति सच इसको मानें||
हेरोदेस यहूदी राजा, समकालिक अविलाह समाजा |
जकरयाह याजक इसमें था, ईश्वर प्रेम भरा उसमें था||
जकरयाह की पत्नी प्यारी, इलिशिवा हारून दुलारी |
वे संतान हीन दो वृद्धा ,रखते थे ईश्वर में श्रद्धा ||
एक दिवस निज दल पारी में,रत वह था प्रभु सत्कारी में|
प्रथा याजकों ने स्वीकारी,पर्ची निकले आये वारी||
जिस दिन जिसकी पर्ची आये, वह उस दिन मंदिर में जाये|
भीतर जाकर धूप जलाये, विधि विधान पूरा करवाये||
धूप जलाने के समय, सकल मण्डली लोग |
मंदिर बाहर प्रार्थना, करें  सभी सहयोग ||2
जकरयाह सहसा घबराया, उसके तन-मन पर भय छाया |
दूत सामने दिया दिखाई , वेदी पास दृष्टि दौड़ाई ||
स्वर्गदूत ने उसे बताया ,जकरयाह तू क्यों घबराया ?
बात ध्यान से सुन ले मेरी, प्रभु ने सुनी याचना तेरी||
इलीशिवा गर्भित होवेगी, तेरे लिए पुत्र जन्मेगी |
तेरी होगी सफल तमन्ना,नाम उसे देना यूहन्ना||
तुझे सरस आनन्द मिलेगा,बहुतों का उर-सुमन खिलेगा|
वह प्रधान युगबोधक होगा, जग महान सच शोधक होगा||
मदिरा अथवा दाखरस, वह न करेगा पान|
लेगा माँ के गर्भ से,पवित्र आत्मा दान ||3
कितने ही इस्राएल वस्सी, उस कारण होंगे विश्वासी|
अपने ईश ओर लौटेंगे, यूहन्ना को धन्य कहेंगे ||
एलियाह से आशिष लेगा,आत्मशक्ति से भरा रहेगा|
वह प्रभु के आगे जायेगा,ईश्वर की महिमा गायेगा||
संतानों की ओर पिता का,वह मन फेरेगा शुचिता का|
लोग नहीं जो आज्ञाकारी,उनको देगा शिक्षा प्यारी ||
धार्मिक पंथ प्रसार करेगा, योग्य प्रजा तैयार करेगा|
जब यह स्वर्गदूत ने गाया,जकरयाह ने प्रश्न उठाया?
यह मैं कैसे मान लूँ, हुआ वृद्ध इंसान|
पत्नी भी बूढी हुई,तुझे नहीं क्या ज्ञान?4
जिब्रयल ने उसे बताया, सुसमाचार साथ में लाया|
प्रभु के पास खड़ा रहता हूँ,जो सच है वह मैं कहता हूँ||
मैं तुझसे बातें करने को,भेजा गया विपद हरने को |
जब तक यह न फलित हो लेगा,तब तक तू न अधर खोलेगा||
अब से है यह विपति उठाना, इसको तूने सत्य न माना |
सभी सत्य होंगी ये बातें, प्रभु ने भेजी हैं सौगातें ||
बाहर सबका मन घबराया,जकर्याह क्यों अभी न आया |
कुछ न समझ में आये मेरी, मंदिर मध्य हुई क्यों देरी?
वह बाहर आकार हुआ , गूंगों-सा चुपचाप|
इसे देख समझे सभी, दर्शन का संताप ||5
कहने हेतु ह्रदय अभिलाषा, वह बोले सांकेतिक भाषा |
जब सेवा का समय बिताया, तब अपने घर में वह आया||
इसके बाद गर्भ वह पायी, पाँच माह तक नज़र बचायी|
एकाकीपन में रहती थी, सब सहती वह यह कहती थी ||
प्रभु ने दिया दान यह प्यारा, जिस कारण हो मान हमारा|
छठे माह जिब्रायल आया ,प्रभु ने आशिष भेज पठाया ||
उसने देखी मरियम प्यारी, नगर नासरत की सुकुमारी |
युसूफ संग हुई मंगनी थी, लेकिन बनी न वह सजनी थी||
वंशज वह दाऊद का, यूसुफ नामक व्यक्ति |
मरियम से मंगनी हुई, करता था अनुरक्ति ||6
स्वर्गदूत मरियम घर आया, ईश्वर का संदेश सुनाया|
हो आनंद सदा जय तेरी,सुन ले बात ध्यान से मेरी||
प्रभु ने किया अनुग्रह भारी,उसने तुझ पर कृपा पसारी||
सुनकर स्वर्गदूत की वाणी, घबरायी मरियम कल्याणी|
यह तू क्या अभिनन्दन लाया,कुछ भी समझ न मेरी आया?
स्वर्गदूत ने उसे बताया, भय क्यों तेरे उस में आया?
हुआ अनुग्रह परम पिता का,पालन करना है शुचिता का|
अब तू गर्भवती होवेगी,परम श्रेष्ठ सूत को जन्मेगी ||
मरियम! उसका नाम तू, रखना यीशु महान|
यह परमेश्वर पुत्र है, होगा विश्व प्रधान ||7
प्रभु उसको निज अंक भरेगा,पुरखों का सिंहासन देगा|
याकूवज़ पर राज्य करेगा,उसका शासन सदा रहेगा||
यह सुन कहने लगी कुमारी,बुद्धि गई क्या तेरी मारी?
सत्य बात क्या होगी तेरी,हुई न भेंट पुरुष से मेरी?
स्वर्गदूत ने उसे बताया,मरियम क्या तेरे मन आया?
प्रभु आशिष तुझ पर उतरेगा,फिर छाया सामर्थ्य करेगा||
जिस बालक को तू जन्मेगी,दुनिया प्रभु-सुत उसे कहेगी|
बूढ़ी इलीशिवा सुन तेरी, गर्भित हुई मान ले मेरी||
बाँझ बताते थे जिसे,उसे मिला वरदान|
छठे माह का हो गया,उसका गर्भ महान||8
ईश्वर सबके दुख हारता है,दुर्लभ कार्य सहज करता है|
मरियम ने सच उसे बताया,धन्यवाद कहकर समझाया||
मैं परमेश्वर की दासी हूँ, सद्वचनों की अभिलाषी हूँ |
स्वर्ग़दूत चल दिया वहाँ से,आया था वह यहाँ जहाँ से||
उन्हीं दिनों वह कर तैयारी,देश यहूदा पहुँची प्यारी|
मरियम जकरयाह घर आयी,मिलकर इलीशिवा हर्षायी||
नमस्कार कर ह्रदय लगाया,उन दोनों का मन मुस्काया|
पेट मध्य तब उछला बच्चा,स्वर्गिक रहा अनुग्रह सच्चा||
इलीशिवा को मिल गई,पवित्र आत्मा आज|
धन्य कहा तत्काल दी, मरियम ने आवाज़||9
नारिवर्ग में धन्य बताया,धन्य गर्भ जो तूने पाया |
यह आशिष क्यों मैंने पायी,प्रभु की जननी समीप आयी||
नमस्कार कानों में आया,पेट मध्य बालक हर्षाया |
जिसने यह विश्वास किया है, धन्य सत्य सब मान लिया है||
अति आशीषित मरियम बोली,मैं प्रभु महिमा गायक भोली|
आनंदित आत्मा है मेरी, परमेश्वर हो जय-जय तेरी ||
सुधा मिले ज्यों अभिलाषी को,कृपा मिली त्यों प्रभु दासी को|
जग में जितने लोग सुनेंगे,मुझे युगों तक धन्य कहेंगे||
उसका नाम पवित्र है,शक्तिमान है नेक|
काम किये मेरे लिए, उसने श्रेष्ठ अनेक||10

Saturday, December 3, 2011

सबको अपने किये-धरे का जीवन में परिणाम मिला है |
हँसना-रोना नहीं मुनासिब समुचित ही अंजाम मिला है||
जिसने चाहा उस साधक को अविरल सजग साधना बल से,
अपने  दैनंदन जीवन के  हेतु  नवल आयाम  मिला है |
उसको चैन कहाँ मिल सकता जन-गण-मन के उपवन में,    
जिसने सोचा इस जीवन क्यों न विपुल धन-धाम मिला है|
अपना कोई शत्रु नहीं है  इन  भोगोलिक सीमाओं  में,
क्योंकि न जिसमें हार-जीत वह शिव सुन्दर संग्राम मिला|  
कवि तो खुश है शब्द-अर्थ की अव्यय अक्षय दौलत पाके ,
मिटता नहीं मिटाये अब तो  तुकाराम -सा नाम मिला है |

Tuesday, November 29, 2011

निर्वाचन

नीति निकष पर अपने प्रतिनिधि, परखें बारम्बार |
करें हम अपने आप सुधार,करें हम अपने आप सुधार||
...
समय-चक्र ने पुनः पुकारा,लगने लगा चुनावी नारा,
समझ लीजिये जनजीवन की, रक्षा होगी किसके द्वारा?
लोकतंत्र में ही संभव है, मानवीय व्यवहार |
करें हम अपने आप सुधार,करें हम अपने आप सुधार||

सब प्रान्तों की भाषाओँ को, वर्तमान की आशाओं को,
लोकतंत्र सम्मानित करता,जीवन की परिभाषाओं को|
लोकतंत्र का मूल भाव है,समरसता सहकार |
करें हम अपने आप सुधार,करें हम अपने आप सुधार||

परख लिया चौसठ वर्षों को, अपकर्षों को उत्कर्षों को ,
जाति- धर्म भाषा क्षेत्रों के ,संघर्षों को आदर्शों को |
लोकतंत्र में मानित होते, मुक्त उदात्त विचार |
करें हम अपने आप सुधार, करें हम अपने आप सुधार||

नम्र निवेदन प्रतिभाओं से,किंचित डरें न विपदाओं से,
सब अधिकार प्राप्त हो सकते,वोट शक्ति की क्षमताओं से|
लोकतंत्र के बिना न होगा, जा-मन का उद्धार |
करें हम अपने आप सुधार, करें हम अपने आप सुधार ||

जन-मन को महकाते हो

एक वार समझाओ प्रिय! क्यों, इतना कष्ट उठाते हो?
गल-पिस कर बन गये इत्र तुम, जन-मन को महकाते हो||

किंचित भेद नहीं माना है, तुमने पर्वत घाटी में |
यह भी सच है हुए अंकुरित, सड़कर के शुचि माटी में|| 
जाड़ा गर्मी बरसातों को, सहतो हो मुस्काते हो|
गल-पिस कर बन गये इत्र तुम, जन-मन को महकाते हो||

पले-बढ़े हो नित शूलों में,लेकिन नहीं गिला कोई |
सबको मकरंदी सुगंध दी, अपनी सुध-बुध भी खोई||
घर से बेघर किया जिन्होंने, उनको भी अपनाते हो |
गल-पिस कर बन गये इत्र तुम, जन-मन को महकाते हो||

कवियों ने अपने अनुभव से,तुमको सुमन बताया है|
लेकिन उन सबने अपने को, तुम-सा नहीं सजाया है||
सुमन समान बनो फिर महको, शायद यही सिखाते हो|
गल-पिस कर बन गये इत्र तुम, जन-मन को महकाते हो||

Sunday, November 6, 2011

मिले सहारा भले न कोई, किन्तु नहीं घबराऊंगा|
उपेक्षितों के साथ हमेशा , आगे बढ़ता जाऊँगा ||

जहाँ घिरा घनघोर अँधेरा , दीपक वह जलाना है|
आंधी- पानी तूफानों में, शांति केतु फहराना है | 
मिलन भाव से सिक्त शब्द की, सरस गंध बिखराऊंगा|
उपेक्षितों के साथ हमेशा , आगे बढ़ता जाऊँगा ||

खंडन-मंडन से बच करके, चन्दन-सा बन जाना है |
प्यास बुझाने हेतु धरा की, शील सलिल बरसाना है||
क्षुधा सभी की तृप्त करे जो, वही फसल उपजाऊंगा|
उपेक्षितों के साथ हमेशा , आगे बढ़ता जाऊँगा ||

दुबले-पतले इस शरीर ने, शक्ति अपरिमित पायी है |
निर्धन हूँ पर अंतरमन में,शुचि अनुरक्ति समायी है||
युग प्रबोध के नियम-उपनियम, जन-जन को समझाऊंगा|
उपेक्षितों के साथ हमेशा , आगे बढ़ता जाऊँगा ||

जलचर,नभचर मृगवृन्दों ने ,स्नेहल स्वर अपनाया है|
सुनो आप समझो तो भैया, कवि ने ह्रदय सजाया है ||
मानव हूँ बस मानव हित में, मार्ग नवीन बनाऊंगा|
उपेक्षितों के साथ हमेशा , आगे बढ़ता जाऊँगा |

Wednesday, October 26, 2011


सिवा तुम्हारे किसे सुनायें, अनुभव अर्जित हाल|
बुरे हैं धनिक लाल के ख्याल||
बुरे हैं धनिक लाल के ख्याल|||
 
मानवता का मान कहाँ है, सज्जन का सम्मान कहाँ है?
जुड़े हुए जो राजनीति से, उन पर व्याप्त विधान कहाँ है?
संत ह्रदय तो झेल रहे हैं, पग- पग पर जन्जाल|
बुरे हैं धनिक लाल के ख्याल||
 
कमजोरों का नहीं गुजारा, क्रूर तस्करों का जयकारा |
मिलकर जाति-वर्ग,वर्णों ने,किया राष्ट्र धन का बंटवारा||
मार कुंडली बैठ गए हैं, भ्रष्टाचारी व्याल |
बुरे हैं धनिक लाल के ख्याल||
 
 
दिखती उज्ज्वल राह नहीं है, सकल प्रगति की चाह नहीं है|
यूँ लगता ज्यों न्यायालय की, पूर्ण स्वतंत्र निगाह नहीं है ||
फल लगते ही झुक जाती है, न्याय वृक्ष की डाल |
बुरे हैं धनिक लाल के ख्याल||
बुरे हैं धनिक लाल के ख्याल|||
 
लोकतंत्र का पथ पहचानो, अपनेपन की जिद्द न ठानो|
वोट शक्ति की शुचि क्षमता को, अणु अस्त्रों से ज्यादा जानो||
मतदाता के आगे  झुकते, बड़े-बड़ों के भाल|
बुरे हैं धनिक लाल के ख्याल||
बुरे हैं धनिक लाल के ख्याल|||

Tuesday, October 25, 2011

जाति- वर्ग का मीत नहीं हूँ, इंसानों का गीत हूँ |
बात विभाजन की जो करता,उस स्वर के विपरीत हूँ ||

यह दुनिया परिवार एक है,जिसमें सब इंसान हैं|
इनमें भेद डालने वाले, स्वार्थ पथी शैतान हैं|| 
चेतनता जो विकसित करता, वह प्रबोध संगीत हूँ|
बात विभाजन की जो करता,उस स्वर के विपरीत हूँ||

रूप-रँग भौगोलिक सीमा, राजनीति का खेल है |
सोच मजहबी समझ लीजिए, एक अँधेरी जेल है ||
धर्म-तंत्र के रक्त-पात का, भूला नहीं अतीत हूँ |
बात विभाजन की जो करता ,उस स्वर के विपरीत हूँ||

लोकतंत्रीय निर्मल वाणी, समता परक स्वाभाव है |
जिन पर करती जुल्म व्यवस्था,उनसे सहज लगाव है|
न्याय नीति मंथन से निकला, संवर्धक नवनीत हूँ |
बात विभाजन की जो करता ,उस स्वर के विपरीत हूँ||

Friday, October 21, 2011

घर- परिवारों के रिश्तों में

घर- परिवारों के रिश्तों में, बड़ी गिरावट आई है|
भौतिकता ने नैतिकता की,खड़ी फस्ल कटवाई है||

जिसने अपना दूध पिलाया, सबसे पहला शब्द सिखाया|
भूख-प्यास को सहकर हरदम,पका-पका जिसे खिलाया||
उसी पुत्र के द्वारा माँ ने, विपदा विपुल उठाई है|
भौतिकता ने नैतिकता की,खड़ी फस्ल कटवाई है||

जिसने अंगुली पकड़ चलाया,अपने कन्धों पर बैठाया|
विविध विषाक्त परिस्थितियों में,जिसका वर्षों साथ निभाया||
उसी पुत्र ने वृद्ध पिता की, प्यास न कभी बुझाई है|
भौतिकता ने नैतिकता की, खड़ी फस्ल कटवाई है||

जिसने बाबुल का घर छोड़ा,पत्नी धर्मं का नाता जोड़ा|
उसी कली के हाथ-पैर को, उसके गृहस्वामी ने तोडा ||
सुमन सुहानी सुन्दर काया, धन के लिए जलाई है |
भौतिकता ने नैतिकता की,खड़ी फस्ल कटवाई है||

जिसने सास श्वसुर ठुकराये,जेठ-जिठानी जिसे न भाये|
ननद देवरों ऊपर तीखे , शब्द- वाण बहुभाँति चलाये||
उस नारी ने मानवता की , शुचि पहचान मिटाई है |
भौतिकता ने नैतिकता की, खड़ी फस्ल कटवाई है||
 बड़ी गिरावट आई है|
भौतिकता ने नैतिकता की,खड़ी फस्ल कटवाई है||

जिसने अपना दूध पिलाया, सबसे पहला शब्द सिखाया|
भूख-प्यास को सहकर हरदम,पका-पका जिसे खिलाया||
उसी पुत्र के द्वारा माँ ने, विपदा विपुल उठाई है|
भौतिकता ने नैतिकता की,खड़ी फस्ल कटवाई है||

जिसने अंगुली पकड़ चलाया,अपने कन्धों पर बैठाया|
विविध विषाक्त परिस्थितियों में,जिसका वर्षों साथ निभाया||
उसी पुत्र ने वृद्ध पिता की, प्यास न कभी बुझाई है|
भौतिकता ने नैतिकता की, खड़ी फस्ल कटवाई है||

जिसने बाबुल का घर छोड़ा,पत्नी धर्मं का नाता जोड़ा|
उसी कली के हाथ-पैर को, उसके गृहस्वामी ने तोडा ||
सुमन सुहानी सुन्दर काया, धन के लिए जलाई है |
भौतिकता ने नैतिकता की,खड़ी फस्ल कटवाई है||

जिसने सास श्वसुर ठुकराये,जेठ-जिठानी जिसे न भाये|
ननद देवरों ऊपर तीखे , शब्द- वाण बहुभाँति चलाये||
उस नारी ने मानवता की , शुचि पहचान मिटाई है |
भौतिकता ने नैतिकता की, खड़ी फस्ल कटवाई है||

Sunday, October 16, 2011

                गीत समय का
कुछ कहते हैं, कुछ करते हैं , किन्तु नहीं शर्माते लोग |
किसे  सुनायें गीत समय का, सत्य कहाँ सुन पाते लोग?

सकरी राहों पर चल कर के , जिनको मंजिल पानी है|
उनके लिए यहाँ पग-पग पर , उलझन है हैरानी है|| 
कमजोरों के विविध विरोधी , मुँह के कौर छिनाते लोग|
किसे सुनायें गीत समय का,सत्य कहाँ सुन पाते लोग?

शासक और प्रशासक दोनों, भुजबलियों से डरते हैं |
लूट-पाट, छीना-झपटी को, बेबस देखा करते हैं ||
धनहीनों को ठुकराते हैं , धनिकों से घबराते लोग |
किसे सुनायें गीत समय का,सत्य कहाँ सुन पाते लोग?

जाति-वर्ग मजहब भाषा ने, बाँट दिया इंसानों को |
क्षेत्रवाद की स्वार्थ वृत्ति ने, अपनाया शैतानों को ||
कुछ को उच्च यहाँ पर , कुछ को नीच बताते लोग|
किसे सुनायें गीत समय का सत्य कहाँ सुन पाते लोग?

भौतिकता की चकाचौध में, बुद्धि-विवेक को गया है|
मानव को अपने से ज्यादा, धन से प्यार हो गया है||
बिटियों का तो भ्रूण गिराते, बहुंयें यहाँ जलाते लोग |
किसे सुनायें गीत समय का,सत्य कहाँ सुन पाते लोग?

Friday, October 14, 2011

सहस्रों साल तक जिसने, यहाँ पर मार खायी है|
उसी के राज करने की, व्यवस्था आज आई है ||

बिछाओं लाख शूलों को, उन्हें भी झेल वे लेंगे ,
जिन्होंने शीलवर्धन की, स्वतः सौगंध खाई है|
किसी की गंदगी ढोते, रहे जो सैकड़ों वर्षों ,
वही सब साफ कर लेंगे,जमीं जिस ठौर काई है|

तुम्हारी स्वार्थ सत्ता के,लिए निज रक्त पानी-सा,
बहाते ही रहे फिर भी, न पाई एक पाई है ||

सभी को ज्ञात है किस्सा,सुनायें और क्या किसको,
अभावों में मरी ताई , विलखती नित्य माई है |

उपेक्षित जो रहे अब तो , उन्होंने सीख ली भाषा,
'तुका' की ज़िन्दगी में ही, पढाई रंग लाई है ||

Sunday, October 9, 2011

अभी तक यह निश्चित नहीं हो सका है कि यह आन्दोलन भ्रस्टाचार के मूल को उन्मूल करने के लिये खड़ा किया गया है अथवा सरकार के विरोध के लिये,और लोकतान्त्रिक संवैधानिक व्यवस्था को कमजोर करने के लिये, कांग्रेस को वोट मत दो, यह मुहिम क्या साबित करती है और किसे वोट दो, इस पर मौन रहना किस चतुराई को प्रदर्शित कर रही है, संघ प्रमुख का वक्तव्य और सिविल सोशायटी के विचार में क्या कोई तालमेल दिख रहा है, क्या संघ प्रमुख से अधिक विश्वसनीय सिविल सोशायटी के सदस्य, आर.एस.एस. के कार्यकर्ताओं की दृष्टि में हो सकते है?  सिविल सोशायटी के सदस्य स्वघोषित दूध के धुले हैं और पूरी कांग्रेस पार्टी उनकी दृष्टि में साफसुथरी नहीं है ऐसी भावना से अनुप्रेरित क्या कोई गैरराजनैतिक संगठन हो सकता है? और क्या यह संगठन किसी राजनैतिक पार्टी को ईमानदार भावना से अनुप्रेरित मानता है, जब की एन.जी.ओ. का समर्थन कर रहा, पूंजीपतियों के हितवर्धक के रूप में सामने आया है , जिस संगठन ने अपने जन्म के समय ही भारतीय सामजिक और संवैधानिक व्यवस्था का किंचित मात्र भी ध्यान नहीं रखा उसे  
सम्पूर्ण नागरिकों का प्रतिनिधि कैसे माना सकता है?

किसी लोकपाल बिल की तुलना में भारतीय संविधान को रखना किंचित मात्र भी न्यायिक नहीं है, तुलना दो समान प्रकृतियों धर्म और गुणों  के साथ की जाती है  और जो लोग ऐसा कर रहे हैं उन्हें स्वयमेव एक बार मुक्त मन से यह सोचना चाहिए क्या वह भारत में दो समानांतर सत्तायें और व्यवस्थायें चाहते हैं ?
भारतीय संविधान के दायरे में संचालित संस्थायें हर प्रकार के भ्रस्टाचार को उन्मूलित करने हेतु सक्षम हैं किसी भी प्रकार के लोकपाल की आवश्यकता नहीं है , वर्तमान में एक से बढ़कर एक शक्तिशालियों को प्रभावशालियों को राजनीतिज्ञों को और अधिकरियों को इसी व्यवस्था के अंतर्गत सजा दी जा रही अथवा प्रक्रिया प्रारम्भ की गई है| आवश्यकता है केवल सदाचरण की जो किसी कानून से नहीं अपितु पारिवारिक सामाजिक सोच से विकसित हो सकती है| कानून की जटिलता से भय उत्पन्न होता है, जो अंततः भ्रस्टाचार को बढ़ाता है| वर्तमान में भी भ्रस्टाचार के बढ़ने में कानूनी जकड़ने ही अधिक जुम्मेदार हैं| भय लोकतंत्र विरोधी हैं, निर्भयता लोकतंत्र पोषक| 

कानून सामान्यतः आने वाली पीढ़ियों को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं और में एक अध्यापक के रूप में, एक विचारक के रूप में एक कवि के रूप में अपने ६४ वर्षीय अर्जित अनुभव के आधार पर यह कह सकता हूँ कि जो कोई भी अपने आप को ईमानदार घोषित कर रहा है वह इस देश के छोटे-छोटे बच्चों कि तुलना में  कम ईमानदार है| हम इन बच्चों को ईमानदार बना रहने दें यही बहुत बड़ा उपकार होगा इन्हें जितने क़ानूनी फेर में डालेंगे यह उतने ही पराधीनता  की और जायेंगे|    

Friday, October 7, 2011

लोकतंत्रीय राज़
हारे-थके बोझ के मारें ,लोगों की आवाज़ |
उठाता लोकतंत्रीय राज़||
उठाता लोकतंत्रीय राज़ |||
 लोकतंत्र का मूलभाव है, कमजोरों की सेवा |
लाचारों को भी मिल पाये,सुविधाओं का मेवा||
स्नेह शक्ति से बढ़ती जाये,प्रगतिशील परवाज़|
हारे-थके, बोझ के मारें ,लोगों की आवाज़ |
उठाता लोकतंत्रीय राज़ ||

नागरिकों को हो स्वतंत्रता,निज अनुभव कहने की|
पढ़ने,लिखने, खाने-पीने, घर- बाहर रहने की ||
मेल-भाव की सरस धुनों पर, सदा बजायें साज़ |
हारे-थके, बोझ के मारें ,लोगों की आवाज़ |
उठाता लोकतंत्रीय राज़||

जीवन शैली राष्ट्र हितैषी, मानवता पोषक हो |
कथनी-करनी न्याय नीति से,परिपूरित रोचक हो||
विश्व एक परिवार हमारा, यही रहे अंदाज़ |
हारे-थके बोझ के मारें , लोगों की आवाज़ |
उठाता लोकतंत्रीय राज़ ||
उठाता लोकतंत्रीय राज़ |||

Wednesday, October 5, 2011


 

ग्राम देवता --
गाँवों से पहचान जुड़ी है, अपनी बड़ी पुरानी |
है स्वदेश कि शान हमारी, खेती और किसानी||
भोर-भोर से अपने-अपने, कामों पर जाते हैं |
एक साथ मिल पुनः शाम को, प्रेम गीत गाते हैं||
... पाने को समृद्धि सुनायी, जाती कर्म-कहानी |
है स्वदेश कि शान हमारी, खेती और किसानी||
शक्ति पुंज हैं बैल हमारे, हल लेकर कलते हैं|
गाय-भैस के दूध-पूत से, बाल-वृद्ध पलते हैं||
दूध दही घी के प्रभाव से, महके सरस जवानी |
है स्वदेश कि शान हमारी, खेती कला किसानी||
तिलहन गेहूँ धान चने की,फ़सल उगाते आये|
उपज बढ़ाने को दलहन की,नवल बीज अपनाये||
अगहन पौष माघ रातों में, देते रहते पानी |
है स्वदेश की शान हमारी, खेती और किसानी||
ग्राम देवता की पदवी को, बहा पसीना पाये |
श्रम सीकर ही तो नगरों में, चमक दमक पहुँचाये||
श्रमिक-कृषक हैं इस धरती के शुच सपूत दानी |
है स्वदेश की शान हमारी, खेती और किसानी||
संस्कृति समझ सभ्यता अपनी,गाँवों की बस्ती है|
वहीँ सुरक्षित भारत माँ की, सदियों की हस्ती है ||
गाँव स्रोत हैं श्री वैभव के, जिनकी झलक सुहानी|
है स्वदेश कि शान हमारी, खेती और किसानी||
 
 
 
 

Sunday, October 2, 2011

धार्मिक विश्वास किंचित मात्र भी व्यक्तिवादी मान्यता से नहीं समझा जा सकता है, उसे समझने के लिये जीवन मूल्यों को ही आधार बनाया जा सकता है , जब जिज्ञासु व्यक्तिवादी हो जाता है तब वह भक्त हो जाता है और भक्त अपने ईष्ट में कोई कमी नहीं देख पाता जिसके कारण उसकी सत्य और ज्ञान की खोज दूषित हो जाती है और दूषित हो जाने के कारण व आपने लक्ष्य से ही भटक जाता जब कि मूल्य आधारित साधक निरंतर सत्य की खोज में साधनारत रहकर लक्ष्य के समीप पहुँचने में सफल हो जाता इसे ही मुक्ति कहा जाता है|
धार्मिक मान्यता के मूल तत्त्व हैं, सत्य, प्रेम ,करुणा, दया ,क्षमा ,चोरी न करना, व्यभिचार न करना,अधिक संचय न करना, हिंसा न करना, नशा न करना ,नित्य आत्म निरीक्षण करना, परार्थ भाव से जीवन व्यतीत करना , त्याग की भावना से प्रेरित रहकर दूसरों के हितार्थ समर्पित रहना,असत्य गवाही न देना और एक ऐसी शक्ति में विश्वास रखना जो सदैव सत्य ज्ञान की खोज में लगे रहने के लिये उत्प्रेरित करती हो, जिसका लक्ष्य अंततः जीवन को अंतिम यात्रा के लिये भय रहित तैयार रखना है |

Saturday, October 1, 2011

एक मुक्त छंद रचना :

देखकर ये जहाँ आज रोता ह्रदय,
जिसमें बसते हैं शैतान हर मोड़ पर|
ये ज़मीं तो बनी आदमी के लिये,
किन्तु रहने लगे हिन्दू,मुस्लिम यहाँ-
कोई कहता है-
ईशा के चेले हैं हम,
कोई कहता है नानक की तस्वीर हैं;
कुछ बने बुद्ध ज्ञानी के अनुयायी खुद ,
कुछ ने माना महाबीर के भक्त हैं |
किन्तु लड़ते हैं आपस में,
हर वक्त वे,
काटते हैं उन्हें-
जो कि इन्सान हैं|
जब 'तुका' घूमता है शहर गाँव में,
ऊँची-नीची गली, धूप में छाँव में ;
देखता लोग रहते हैं जिस हाल में,
काटते ज़िन्दगी भूख -जंजाल में ;
तब मिला न वहाँ कोई हिन्दू कभी,
न गया था वहाँ नेक मुस्लिम कभी,
बुद्ध नानक महाबीर के शिष्य भी,
यीशु करुणामयी के परमधीर भी,
न मिले थे वहाँ लेके पानी कभी,
उस विलख कि झलक से-
व्यथित उर कहे,
आज बन जा अरे! बंधु इंसा सही|

Friday, September 30, 2011

                     -एक गीत -
सुनाओ गीत कवि ऐसा,क्षितिज तक शोर हो जाये|
ज़माना त्याग दे  तन्द्रा , चतुर्दिक  भोर हो जाये ||

जहाँ इन्सान भूखा है ,ह्रदय का खेत सूखा है,
जहाँ अनुरक्ति का उत्तर,मिला हर वक्त रुखा है|
वहाँ सहयोग घन बनकर,बरसिये रातदिन इतना-
अनैतिक शक्तियों का स्वर,स्वतः कमजोर हो जाये|
ज़माना त्याग दे  तन्द्रा , चतुर्दिक  भोर हो जाये ||

जहाँ पर लूट- घोटाले, जहाँ धंधे चलें काले ,
जहाँ पर स्वार्थी उर ने, लगाये नीति पर ताले|
वहा साहित्य संबल से, प्रबोधन कीजिये इतना-
घृणा की और जो है वह, प्रणय की और हो जाये|
ज़माना त्याग दे  तन्द्रा,चतुर्दिक  भोर हो जाये ||

सहा करते अनय को जो, नहीं समझे समय को जो,
मृगों की भाँति जीवन भर-भुला पाये न भय को जो|
फजायें चाहतीं उनकी , रगों का रक्त खुला दो-
सर्प का दर्प दलने को, कबूतर मोर हो जाये |
ज़माना त्याग दे तन्द्रा ,चतुर्दिक  भोर हो जाये||
सुनाओ गीत कवि ऐसा,क्षितिज तक शोर हो जाये..   

Wednesday, September 28, 2011

परिवर्तन अनिवार्य है,कहती है अनुरक्ति |
लोकतंत्र में वोट की , अपराजित है शक्ति||
अपराजित है शक्ति , इसी से बदले सत्ता,
जब तक चले न वायु, नहीं हिलता है पत्ता;
नागरिकों को दान , करें वैचारिक दर्शन |
राष्ट्र प्रगति के हेतु, तभी संभव परिवर्तन||

Monday, September 26, 2011

                    गीत वेदना
गाँव-नगर में आम आदमी, तड़प रहा उत्पीडन से|
असमंजस में फँसा रो रहा, महगाई  विज्ञापन से ||

उगती पौध व्यवस्था चरती,हिंसा का अभिवादन करती|
आततायियों के घेरों में, घिरी हुई सत्ता है डरती ||
गीत वेदना बनकर उमड़ा, स्वतः सहज संवेदन से |
असमंजस में फँसा रो रहा, महगाई  विज्ञापन से ||

कुछ सुख सुविधाओं के भोगी,पीकर मधुरस बनते रोगी|
कर्म-हीन अधिकार जताने, हेतु  बन गये ढोंगी जोगी||
न्याय-तंत्र भी विमुख दिख रहा,विलख रहे जन,गण,मन से|
असमंजस में फँसा रो रहा, महगाई  विज्ञापन से ||

चिंतन-मनन विवेक खो गया,काव्य अर्थ का दास हो गया|
सदाचार के शिक्षालय का,  शिक्षक खाकर भाँग सो गया||
सार तत्त्व अब तो यह पाया, व्यवहारिक  अनुशीलन से|
असमंजस में फँसा रो रहा, महगाई  विज्ञापन से ||  

Saturday, September 24, 2011

पर्वत दर्श

Dr.N.Gopi has wrriten a poem in Telugu title  Nichhalana Chalana
translated in Hindi by Dr. Tukaran Verma for National Symposium of Poets 2000
organised by Prasara Bharati at Bhopal A R IM.P.
पर्वत दर्श मुझे उतना ही है उत्प्रेरण दाता |
जितना सरि के अवलोकन से ह्रदय प्रेरणा पाता||
सरि में गति है पर्वत उसको उत्प्रेरित करता है,
सरि है जीवित काव्य, दूरियाँ जो चित्रित करता है ,
पर्वत ऊषा को धारण कर सांस समय की लेता ,
इस प्रकार वह शांत भाव से मौन प्रेरणा देता |
आस-पास के सब ग्रामों का उचित मंत्रणा दाता|

जब होती है वर्षा गिरि के गर्त ताल बन जाते ,
मोती जैसी बूंदे इसके तब कपोल ढरकाते,
चट्टानों पर इन  कृतियों के सर्ग सहस्र बने हैं|
शिला पीठ पर पड़ोसियों ने मेटे ताप घने हैं ,
शैल पीठ पर पथ सर्पीला सहज फैलता जाता |

चक्कर भरे मार्ग से पूछो गिरि दयालु कितना है,
जीवित यातायात युक्त हो जो जीवंत बना है|
पर्वत इसे उदार ह्रदय से वर प्रदान करता है ,
तदुपरांत स्वयमेव सिमटकर लघु स्वरुप धरता है|
टूटे दर्पण के टुकड़ों में इसका बिम्ब समाता |

मेरे घर की दीवारों पर गेरू धारियाँ आतीं ,
मेरा लहू चूस संध्या की किरणें लाली पातीं|
पर्वत आत्मसात कर उसको मुझे तोष तब देता,
जब कि सांध्य का अंतिम खगदल हार गोल रच लेता|
तभी शैल तरु सदृश ह्रदय से दीर्घ उसाँसे लाता |

अति चीर जीवन कि चक्की में पिसकर गिरि बन पाया,
शालग्राम समान शांत रह यह निश्चल रहता आया |
निर्धनता का गौरवमय जब शुभ्र मुकुट था मेरा ,
आशा के राज्यभिषिक्त का यही बना था डेरा |
मेरे खींचे शिलाक्षरों से बाल्यास्मृति का नाता |

पतझर के पत्तों जैसे उड़ गये सखागण प्यारे,
अचरज है शोणित में अब भी बहती शिला हमारे|
बीज चूमते जब धरती को उनमें अंकुर आते ,
गिरि में प्रकृति जड़ें जिनसे बहु स्वप्न सुमन खिल जाते|
सरिता में लघु-लघु कण बहते शैल कहाँ बह पाता ?

संस्कृति प्रतीक गिरि आदि व्यथा बिखरे बिना पचाता,
इस आश्रय संगीत सरस नित मैं आकर सुन पाता |
अनुभूति मधुर यदि सरि है तो गिरि एकांत मिटाता ,
अपने कोमल स्नेह आवरण बीच मुझे अपनाता |
गिरि मेरा धन चाह घनी गिरि यह पहचान विधाता |
 
प्रकृति मुस्काती है
आने देते उसे नहीं जो , सबको जग   में  लाती है|
कन्याओं का भ्रूण गिराते, शर्म नहीं क्यों आती है?

यही भ्रूण कन्या बनती है, यही बहन, भाभी, माता |
इसके हाथों मोहक बचपन स्नेह सहित पाला जाता||
यही सजाती घर चौबारे , दुख-सुख  गले लगाती है |
कन्याओं का भ्रूण गिराते, शर्म नहीं क्यों आती है?

यही लिखाती शब्द पढ़ाती, रचना धर्म सिखाती है ,
यही साथियो! सबके उर में, शाश्वत प्रेम जगाती है|
यही विश्व के ज्ञान दीप की, जलने  वाली  बाती है |
कन्याओं का भ्रूण गिराते, शर्म नहीं क्यों आती है?

इसे सजाओ इसे सँवारो , इसको  आगे आने दो |
कवि का कथन यही है प्यारे! इसको प्यार लुटाने दो|
इसके हँसने मुस्काने के, साथ  प्रकृति मुस्काती है |
कन्याओं का भ्रूण गिराते, शर्म नहीं क्यों आती है?

Friday, September 23, 2011

तर्क-निकष पर परख लें,उमड़ा ह्रदय विचार|
यदि पायें उसको खरा , प्रकट करें तब सार||वानर|
सत्य नहीं छिपता कभी, लाख रहें व्यवधान|
लोग रहे यदि मौन तो , बोलेंगे पाषाण ||करभ|
सच को सुंदर रूप में , कवि कहता इस हेतु |
नव सर्जन हो विश्व में, बनें प्रगति के सेतु ||गयंद|
चीख-चीख कार कह रहा,अब तक का इतिहास|
अस्त्रों-शस्त्रों ने किया , बाधित विश्व विकास ||हंस|

Thursday, September 22, 2011

        अम्मा
जब से मुँह पर आई अम्मा |
तब से नहीं भुलाई अम्मा ||
सच को सच कहने से प्यारे,
कहीं नहीं शरमाई अम्मा |
हर मौसम में श्रम करने से,
कभी नहीं उकताई अम्मा |
इस भू पर जीवन यापन की,
समझी है गहराई अम्मा |
जीवन के इस चौथेपन में,
देती नित्य दिखाई अम्मा |
कवि का कथन याद भी रखना,
जन-मन की शहनाई अम्मा |
'तुकाराम' की इन साँसों में,
स्वर की तरह समाई अम्मा|

Wednesday, September 21, 2011

ज्योति-शिखर को

    ज्योति-शिखर को
किसी क्षेत्र से बुद्धि-विवेकी , अगर रौशनी आई |
तभी समझना चेतनता की,लौ न अभी बुझ पाई||

पगडण्डी पर चलने वाले , प्राण नहीं घबराते,
गर्म - धूल शूलों पर नंगे , पैर बढ़ाते जाते |
किसी हाथ ने न्यायनीति की अगर मशाल उठाई|
तभी समझना चेतनता की,लौ न अभी बुझ पाई||

स्वार्थ सिद्धि से सिक्त ज़िन्दगी,होती है शैतानी,
हिलमिलकर जीवन यापन की पद्धति है इंसानी |
किसी ह्रदय ने समरसता की, राह अगर अपनाई|
तभी समझना चेतनता की,लौ न अभी बुझ पाई||

ज्योति-शिखर को अंधकार के यान कहाँ छू पाये,
जो परमार्थ जिए वे निश्चय, परिवर्तन ले आये |
एक शब्द साधक ने भी यदि ,मानवता दिखलाई|
तभी समझना चेतनता की,लौ न अभी बुझ पाई||

Sunday, September 18, 2011


 



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जब से मुँह पर आई अम्मा |
तब से नहीं भुलाई अम्मा ||
सच को सच कहने से प्यारे,
कहीं नहीं शरमाई अम्मा |
हर मौसम में श्रम करने से,
 कभी नहीं उकताई अम्मा |
इस भू पर जीवन यापन की,
समझी है गहराई अम्मा |
जीवन के इस चौथेपन में,
देती नित्य दिखाई अम्मा |
कवि का कथन याद भी रखना,
जन-मन की शहनाई अम्मा |
'तुकाराम' की इन साँसों में,
स्वर की तरह समाई अम्मा|

Friday, September 16, 2011

          सामयिक एक गीत
अगर राष्ट्र -जीवन में फैला, भ्रस्टाचार मिटाना है |
तो चारित्रिक शुचि शैली को,हमें स्वतःअपनाना है||

न्यायहीन व्यवहार अनैतिक,वातावरण बनाता है |
धर्मतंत्र का आश्रय लेकर  ,चिंतन सुप्त कराता है ||
रूढ़िवाद के कारागृह से, बंदी बाहर लाना है ...

अर्थ लालची सदाचार के,पथ पर शूल बिछाते हैं|
स्वार्थसिद्धि की विषम भित्तियाँ,चारों ओर बनाते हैं|
प्रगति विरोधी गद्दारों का, विफल प्रयत्न कराना है...

लोकतंत्र में राजतन्त्र की, नियमावली छोड़नी है |
शोषण की जंजीर शीघ्र ही,मिलकर चलो तोड़नी है||
हारे थके दबे कुचलों में, साहस शक्ति जगाना है |
अगर राष्ट्र -जीवन में फैला, भ्रस्टाचार मिटाना है |
तो चारित्रिक शुचि शैली को,हमें स्वतःअपनाना है||

इल्म के दीप

शब्द के पारखी अर्थ से दूर हैं |
इसलिए आदमी आज मजबूर हैं|
चेतना की ग़ज़ल यदि कहेंगे न तो,
ज़ुल्म होने यहाँ रोज़  भरपूर हैं|
बीत सदियाँ गई तम मिटा ही नहीं,
नूर के कौन से  आज दस्तूर हैं |
लोग जिनकी बड़ाई किये जा रहे,
वे अदब हीन हैं और मगरूर हैं|
इल्म के दीप जो भी जलाये हुए,
उन  सभी  के तुकाराम  मशकूर हैं| 

इल्म के दीप

शब्द के पारखी अर्थ से दूर हैं |
इसलिए आदमी आज मजबूर हैं|
चेतना के दिये यदि जलेंगे न तो,
ज़ुल्म होने यहाँ रोज़  भरपूर हैं|
बीत सदियाँ गई तम मिटा ही नहीं,
नूर के कौन से  आज दस्तूर हैं |
लोग जिनकी बड़ाई किये जा रहे,
वे अदब हीन हैं और मगरूर हैं|
इल्म के दीप जो भी जलाये हुए,
उन  सभी  के तुकाराम  मशकूर हैं| 

Sunday, September 11, 2011

भ्रष्टाचार विमुक्त

अगर चाहते राष्ट्र हो, भ्रष्टाचार विमुक्त|
तो समाज को कीजिये,सदाचार से युक्त||
पोषक भ्रष्टाचार के , होते हैं कानून |
यही चूसते हैं सदा, कमजोरों का खून||
नहीं किसी कानून से,खिले चरित्र प्रसून|
युग नायक गाँधी बने,तोड़ नमक कानून||
जीवन में उनके नहीं, रहता भ्रस्टाचार|
जो चरित्र के हैं धनी, करते शुचि व्यवहार||


सच समझाओ हे परमेश्वर

सच समझाओ हे परमेश्वर!,क्या सचमुच यह जग प्यारा है ?
इस धरती के हर मानव को, क्या तुमने स्वयं सँवारा है ?

यदि ऐसा है तो क्यों लाखों, आँखों में आँसू आते हैं ?
कचरों के ढेरों में बच्चे , जूठन बटोर क्यों खाते हैं ?
यह सुबह-शाम होने वाला,क्या देख नहीं नजारा है ?
इस धरती के हर मानव को, क्या तुमने स्वयं सँवारा है ?

जिसने कि तुम्हारी रचना को,टुकड़ों-टुकड़ों में बटवाया|
क्यों उसे राज संचालन का, उत्तरदायी है ठहराया ?
अपने बच्चों को मजहब की, क्यों दी आजीवन कारा है?
इस धरती के हर मानव को, क्या तुमने स्वयं सँवारा है ?

तुझसे तेरी संतानों का ,क्यों स्वामी सेवक- सा नाता ?
वे बच्चे हुए भिखारी क्यों, जिनका हो परमपिता दाता?
यह दशा देख कवि क्यों न कहे,अस्तत्व न कहीं तुम्हारा है?
इस धरती के हर मानव को, क्या तुमने स्वयं सँवारा है ?

Wednesday, September 7, 2011

लोकशाही यही पूछती

लोग क्या क्या कहे हैं इसे जानिए?
तीर कितने सहे हैं इसे जानिए?
काव्य लिखना बड़ी बात होती नहीं,
क्या सही लिख रहे हैं इसे जानिए?
ध्वंस आँधी चले प्राण पोषक पवन,
साथ किसके बहे हैं इसे जानिए ?
बीत सदियाँ गईं द्वेष की आग में,
शील कितने दहे हैं इसे जानिए ?
लोकशाही यही पूछती है 'तुका '
गेह किसके ढहे हैं इसे जानिए ?

Tuesday, September 6, 2011

बिक गया प्यार के सौदे .

बिक गया प्यार के सौदे में,कुछ मिला नहीं यह गिला नहीं|
चल रहा साथ पथ पर मेरे, काफ़िला नहीं यह गिला नहीं ||
परपीड़ा देख गला ऐसा , तापों से हिम पिघला जैसा,
फिर भी कुछ कुटिल निगाहों ने,ताना मारा ऐसा-वैसा|
गाता हूँ यद्दपि स्वर मेरा,  कोकिला  नहीं यह गिला नहीं |
चल रहा साथ पथ पर मेरे, काफ़िला नहीं यह गिला नहीं ||
मन की होती है आयु नहीं,तन कान्ति कदापि चिरायु नहीं,
वह फ़सल सूखती है जिसके, अनुकूल हुई जलवायु नहीं|
मैंने दिन-रात चमन सींचा ,पर खिला  नहीं यह गिला नहीं|
चल रहा साथ पथ पर मेरे, काफ़िला नहीं यह गिला नहीं ||
शूलों से भरा रहा डेरा ,फूलों ने सुख छीना मेरा ,
क्या ख़ूब मिला वरदान मुझे, है गहन अँधेरे ने घेरा |
सहयोगी होकर भी अपना, दिल मिला नहीं यह गिला नहीं|
चल रहा साथ पथ पर मेरे, काफ़िला नहीं यह गिला नहीं ||

शब्द के पारखी

शब्द के पारखी अर्थ से दूर हैं |
इसलिए लोग कमजोर मजबूर हैं|
चेतना के दिये यदि जलेंगे न तो,
ज़ुल्म होने यहाँ रोज़  भरपूर हैं|
बीत सदियाँ गई तम मिटा ही नहीं,
नूर के कौन से  आज दस्तूर हैं |
लोग जिनकी बड़ाई किये जा रहे,
वे अदब हीन हैं और मगरूर हैं|
इल्म के दीप जो भी जलाये हुए,
उन सभी के तुकाराम मशकूर हैं| 

 

Monday, September 5, 2011

विश्व हित वरदान है

भारत भुवन में गूँज है नव चेतना अब जागरी,
नित राष्ट्रहित में रत रहे हिंदी सहित लिपि नागरी|
इस स्नेह-सरिता  से प्रवाहित हो रहा अनुरागरी,
देने चली है विश्व को निर्मल सुधारस  गागरी ||
जीवन-सुधा के घाट तक इसने बनायी राह है ,
संकल्प इसका दूर करना हर ह्रदय की आह है|
सब दीन-दुखियों शोषितों की भी इसे परवाह है,
यह चिरयुवा है और युवकों-सा भरा उत्साह है||
अभिव्यक्ति की क्षमता संजोये ज्ञान के भण्डार से ,
ज्यों लिखी जाती पढ़ी त्यों हैं सरल व्यवहार से |
स्वर-वर्ण इसके उच्चरित अपने सुनिश्चित द्वार से,
अपना रही है विश्व को निज त्यागमय आचार से ||
भाषा तथा लिपि तत्त्व का इसमें भरा विज्ञान है,
यह सभ्यता के मूल की लगती प्रथम पहचान है|
सदभावना  का सर्वथा इसने दिया अवदान  है,
श्रुति कंठ मन का मंजु मृदु यह विश्व हित वरदान है||  

Friday, September 2, 2011

उपहार लिये फिरते

कुछ लोग अकारण ही हथियार लिये फिरते|
दो शब्द छ्प गये क्या अख़बार लिये फिरते||
यह दौर नया आया सहकार बढ़ाने को,
क्यों सातवीं सदी के तकरार लिये फिरते ?
अवरोध कभी कोई पथ के न बने काँटे,
वह जान चुके कवि गण उपचार लिये फिरते|
मझधार फँसे जन को उस पार लगा दे जो,
हम नित्य उसी स्वर की पतवार लिये फिरते|
जिसमें न ज़रा भी है दुर्भाव भरी बदबू ,
दिनरात 'तुका'नय का उपहार लिये फिरते|
 

Saturday, August 20, 2011

बच्चे बने अभागे

मत देखो इन फटी बिवाई ,लहू बहाते पाँवों को |
अगर देखना है तो देखो,अभ्यंतर के घावों को ||
उपेक्षितों के साथ शक्ति ने,खेल घिनौना खेला|
सदियों से ढ़ोते आये हैं, अपमानों का ठेला||
मसली गयीं सहस्रों कलियाँ,फूँक दिये घर-गाँवों को|
जहाँ कहीं आवाज़ उठ गयी, अन्यायों के आगे |
वहीँ हुई अगणित विधवायें,बच्चे बने अभागे ||
सुविधाओं से परे रहा हूँ , कष्टों में ही सदा पला हूँ |
फिर भी स्नेह-मेघ -सा सबका ,करता रहता सदा भला हूँ||
अन्धकार -अज्ञान राह पर, ज्योति जगाकर चलता आया|
साहस-धैर्य ज्ञान के बल से ,अवरोधों को दलता आया ||
भेद-भाव से विलग  सर्वथा ,न्यायिक सहयोगी पहला हूँ ..
भौतिक इच्छाओं को जीता , परम्परायें ठुकराई हैं |
युग में  मानन-मूल्यों वाली, कर्म-प्रभायें दर्शाई हैं ||
मैं जन-सेवक वृक्ष जगत का,जन हित के ही लिये फला हूँ |

Wednesday, August 17, 2011

कवि बनना

कविता लिखना बहुत सरल है , कवि बनना आसन  नहीं है|
उसे कौन कवि कहे कि जिसको ,झूठ-सत्य का ज्ञान नहीं है||
काव्यशास्त्र के नियमों द्वारा, शब्द चयन कर यति-गति लय में,
संयोजित कर उथल-पुथल तो ,की जा सकती किसी ह्रदय में|
पर वह कविता नहीं की जिससे, होता जन कल्याण नहीं है||
कवि बनकर जो जिया न उसकी, कविता जीवन में मरती है|
लेकिन जो कवि बनकर लिखता ,उसे अमर कविता करती है||
सकल सृष्टि में कवि से बढ़कर ,कोई भी इंसान नहीं है|
कविता लिखना बहुत सरल है , कवि बनना आसन  नहीं है|





Tuesday, August 16, 2011

माननीय अन्ना हजारे
 माननीय अन्ना हजारे के द्वारा प्रारम्भ किये गये भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल बिल के समर्थन में जो राजनैतिक दल उनका सहयोग कर रहे हैं अथवा करना चाहते हैं उन्हें जनता से कम-कम यह तो कहना ही चाहिए कि जहाँ कहीं उनके दल की सरकारें हैं वहाँ उन्होंने भ्रष्टाचार के वृक्ष का उन्मूलन कर दिया हैं| 
मेरे परम प्रिय भाइयो और बहनो! यह विश्व विदित प्रभु ईसामसीह का कथानक है कि जब एक तथाकथित व्यभिचारिणी नारी को संसार करने के लिये अर्थार्थ पत्थरों से मारने के लिये जनसमूह उमड़ पड़ा तो उन्होंने कहा था कि इस बहन को पहला पत्थर मारने का वही अधिकारी है जिसने जीवन में कोई पाप न किया हो और अल्प अवधि में पूरा जनसमूह वहाँ से अपने हाथों के पत्थरों को फेककर चला गया ,मैं यह तो कभी नहीं कहूँगा कि कोई व्यक्ति भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ न उठाये लेकिन यह अवश्य कहूँगा कि भ्रष्टाचार का उन्मूलन लोकपाल बिल से नहीं होगा , अच्छे चरित्र से हो सकता है और वह हम सबको अपने अंदर विकसित करना है |

Monday, August 15, 2011

मुक्तक

कवि कल्पना के बैंक में खता नहीं रखते ,
इंसानियत के शत्रु से नाता नहीं रखते ,
क्या फ़र्क सत्यासत्य में होता समझते हैं --
कविवृन्द अपने साथ व्याख्याता नहीं रखते|१|
कथरी-दरी के दर्द से सम्बन्ध हैं मेरे,
इस हेतु कविता से हुए अनुबंध हैं मेरे,
मझधार में जो हैं फँसे उनके लिये समझो--
यह गीत मुक्तक छंद तो तटबंध हैं मेरे|2 |

Sunday, August 14, 2011

भ्रष्टाचार

परमेश्वर का विचार कब से है यह कहना असंभव है लेकिन वर्तमान में परमेश्वर के कई पर्याय वाची हैं यथा - प्रभु , ईश्वर, नारायण , स्वामी , आदि और जब यही शब्द प्रभुता ,ऐश्वर्य, स्वामित्व के साथ व्यक्ति से जुड़ते हैं तो अनर्थ होता है क्योंकि इन शब्दों के साथ चढ़ावा जुड़ा हैं जब व्यक्तियों के पास चढ़ावा पहुँचता है तो पहुँचाने वाले को लाभ न पहुँचाने वाले को उपेक्षा आप समझ गए होंगे कि चढ़ावा भ्रष्टाचार का पर्याय है|

शुभ स्वतंत्रता दिवस

शुभ स्वतंत्रता दिवस राष्ट्र का,पावन पर्व महान है |
प्रेम-प्रतीक तिरंगा झंडा , समता परक विधान है ||
आज़ादी की हमें सुरक्षा , हर हालत में करनी है ,
सब के सुख के लिये सभी में,नव चेतनता भरनी है|
जन-जन का स्वतंत्रता में ही,निहित सदा कल्याण है|
जीवन में ग्रंथों से ज्यादा,उपयोगी निज अनुभव है|
समता,ममता और बंधुता, आज़ादी में संभव है ||
मुक्त-राष्ट्र चिंतन की जग में की जाती पहचान है|
प्रेम-प्रतीक तिरंगा झंडा , समता परक विधान है ||

नया संसार

 शब्द -अर्थ के साधक प्यारे! , करें स्नेह -संचार |
 बनायें एक नया संसार, बनायें एक नया संसार||
               जहाँ  न  प्रभुता  रौब  दिखाये,
               जहाँ  न  पैर  अनीति  जमाये,
               अनुभव सहज व्यक्त करने में-
               भय से भय न  विचारक खाये|
खुले रहें जीवन विकास  के, जहाँ प्रबोधक द्वार |
बनायें एक नया संसार , बनायें एक नया संसार||
               जिसमें कहीं न रहे विषमता ,
               जन जीवन में पसरे ममता ,
               सब सबके हित वर्धक बन के-
               करें प्रमाणित अपनी क्षमता|
मिलते रहें सदैव सभी को,सब अधिकृत अधिकार |
बनायें एक नया संसार , बनायें एक नया संसार||
               सद्विचार से सिचित वाणी ,
               भरे सरस रस हो कल्याणी,
               नित जीवन्त भावनाओं से,
               रहें प्रफुल्लित यूँ सब प्राणी|
एक वृक्ष के पत्तों में ज्यों, रहता  है  सहकार |
बनायें एक नया संसार , बनायें एक नया संसार||



Saturday, August 13, 2011

लोकतंत्र ने?


लोकतंत्र ने है किया,प्रश्न अभीत अटूट,
कौन यहाँ आज़ाद हैं, कौन रहे हैं लूट ?
कौन रहें हैं लूट ,कहाँ है सबको शिक्षा ?
स्वास्थ्य हीन लाचार,हजारों माँगें भिक्षा,
सोच चरित्र विहीन, बना दी अर्थ-तंत्र ने ;
क्या अनीति के हेतु, छूट दी लोकतंत्र ने?

Friday, August 12, 2011

नीति नहीं

नीति नहीं जिसके उर में,वह प्रीति की बात नहीं कहता है |
मानव बुद्धि- विवेक बिना ,अपना अपमान कहाँ सहता है?
जीवन की अनुभूति यही , परमार्थ समीर सदा बहता है |
स्वार्थ-पथी दिनरात 'तुका',पर शोषण में चिपका रहता है ||

न्याय की पताका


चित्र में किसी के दोष देखिये नहीं सुमित्र,हो सके तो चित्र को बनाना सीख लीजिये |
ठीक नहीं अपमान करना किसी का बंधु, रिपु को भी कंठ से लगाना सीख लीजिये ||
ज्ञान के विधान का यही महान अभियान,प्यार की बयार को बहाना सीख लीजिये |
आप हैं , स्वतंत्र लोकतंत्र के महानुभाव, न्याय की पताका फहराना सीख लीजिये ||

Sunday, August 7, 2011

घात मत कीजिये

स्वर्ग की नर्क की बात मत कीजिये |
धर्म के नाम पर घात मत कीजिये||
आदमी आदमी है यही सत्य है ,
जात होती नहीं ज्ञात मत कीजिये |
रौशनी कर सको तो करो प्यार की,
दोपहर को निविड़ रात मत कीजिये |
चैन से सांस लेने न दें जो कभी,
वह गरल युक्त हालत मत कीजिये |
शान्ति की राह अपनाइये अब 'तुका',
ध्वंस आयत-निर्यात मत कीजिये |

सत्य-तथ्य अनुभूति नहीं हो सकती शहद पगी ||

एक साथ रह  कभी न सकती,कविता ओर ठगी |
सत्य-तथ्य अनुभूति नहीं हो सकती शहद पगी ||
अनुभव को ज्यों-का त्यों कवि ने अगर न व्यक्त किया ,
तो समझो उसने बदले में कुछ अनुदान लिया |
कविता है वह छली-बली की होती  नहीं सगी |
सत्य-तथ्य अनुभूति नहीं हो सकती शहद पगी ||
घटना क्रम में कुछ कम करना, चोरी करना है,
बढ़ा-चढ़ाकर कुछ कह देना इज्जत हरना है|
करती नहीं मिलावट वह जो रहती आँख जगी|
सत्य-तथ्य अनुभूति नहीं हो सकती शहद पगी ||

Saturday, July 30, 2011

आप भी जानते |


काश ये दुर्दशा आप भी जानते?
क्यों चढ़ा है नशा आप भी जानते?
कौन है चोर पापी लुटेरा यहाँ ,
कौन है पारसा आप भी जानते ?
लोक के राज्य में लोग भूखे मरें,
पाप ये पाप-सा आप भी जानते |
धर्म शमसीर से जो हुए अधमरे
मित्र! उनकी दशा आप भी जानते|
भौतिकी-रौशनी से भरा दिन 'तुका',
क्यों हुआ रात-सा आप भी जानते |

Friday, July 29, 2011

फ़लसफ़ा दें |

चलो ज़िंदगी को मोहब्बत बना दें |
पयामे सदाकत सभी को बता दें ||
जहाँ नफ़रतों के खुले हैं ठिकाने,
वहाँ न्याय की बस्तियों को बसा दें|
जहाँ में अँधेरा कहीं रह न पाये ,
नयी रौशनी के दिये जगमगा दें |
मुनासिब नहीं आज ख़ामोश रहना,
शराफ़त बढ़ाता हुआ  फ़लसफ़ा दें | 
'तुका' सूरतों से अधिक सीरतों को
कहे जो ज़रूरी चलन वह चला दें |

Thursday, July 28, 2011

विद्यामंदिर में जाना है, जीवन लक्ष्य मुझे पाना है |
बीत चुकी है रात अँधेरी, मम्मी जगो  करो मत देरी ,
देरी हो जाने के कारण ,बहुत हँसी होती है मेरी |
एक पराठा शीघ्र बना दो, अधिक नहीं मुझको खाना है |
इम्तिहान है आज हमारा, हिंदी का पेपर है प्यारा ,
पहला नम्बर में लाऊँगी,दुहरा लिया पथ है सारा |
जय हिंदी मैं सदा कहूँगी, हिंदी के सद्गुण  गाना है |
ख़ूब पढूंगी-ख़ूब पढूंगी,निश्चय मैं शिक्षिका बनूँगी ,
अपनी  शिष्याओं कारण ,मैं दुनिया भर में चमकूंगी|
पढ़ने का प्रतिफल क्या होता, इसको मैंने पहचाना है |
जीवन लक्ष्य मुझे पाना है, विद्द्यामंदिर  में जाना है ||

क्या उपाय किया


चारों और घूम रहे जाति-धर्म के गिरोह ,
साथ किसे लिया जाय आप ही बताइये?
चालबाज जालसाज राजकाज के अधीन,
बंधु! कैसे जिया जाय आप ही बताइये ?
अर्थ के प्रहार झेल टूट रहे परिवार ,
दोष किसे दिया जाय आप ही बताइये ?
झूठ का प्रचार देख-देख नहीं आती नींद,
क्या उपाय किया जाय आप ही बताइये?

Wednesday, July 27, 2011

प्यार व्यवहार बताता हूँ ||


सुनो अनुभूति सुनाता हूँ , प्यार व्यवहार बताता हूँ |
प्यार की शब्द रहित वाणी, प्यार की प्रतिभा कल्याणी,
प्यार को अपना लगता है, जगत जीवन का हर प्राणी |
प्यार से गलियों-गलियों में, प्यार का रस बरसाता हूँ |
                                         प्यार व्यवहार बताता हूँ ||
प्यार सहकार बढ़ाता है ,प्यार उपहार लुटाता है ,
प्यार का बसर नांव अपनी,आप ही खेता जाता है |
प्यार से  भरी ज़िंदगी मैं , हमेशा  जीता - गाता  हूँ |
                                      प्यार व्यवहार बताता हूँ||
प्यार ने अस्त्र  नहीं धारे, प्यार से बड़े-बड़े हारे ,
प्यार के कारण दुनिया में, खुल गये सभी बंद द्वारे|
प्यार जन-जन में बटता है, प्यार की फ़स्ल उगाता हूँ|
                                       प्यार व्यवहार बताता हूँ||

हम किसको गीत सुनायें|

हम किसको गीत सुनायें|
किस-किस के धक्के, किस-किस को दर्द बतायें||
इस महाछली दुनियां में, हम किसको गीत सुनायें|
थल को कर डाला काला ,
जल ऊपर डांका डाला ,
नभ पर भी चाह रहे हैं --
फैलाना दूषित ज्वाला |       
अब कहाँ गरीबे जायें, कैसे साँसे ले पायें|
हर भाँति मुक्त अपराधी, 
प्रभुता न किसी ने साधी ,
जिन पर दायित्व वही  तो -
कह  रहे बात हैं आधी |
इन विपदा के मारों को , कैसे इन्साफ दिलायें|  
इस महाछली दुनियां में, हम किसको गीत सुनायें|

Tuesday, July 26, 2011

मानवीयत के गुणों पर


जिन्स जो भरपूर हैं उनका बढ़ा आयत है |
और जिनकी है कमी उनका खुला निर्यात है ||
मानवियत के गुणों पर हो रहा आघात है ,
जातियों के संगठन हैं जातियों की बात है |
राजनैतिक क्षेत्र की पहचान कुछ ऐसी हुई ,
हाजमा जितना बढ़ा उतनी बढ़ी औकात है |
क्या कहें इस दौर के इंसान से जीवन कथा,     मानवीयत के गुणों पर
लक्ष्य भी उनको न अपनी ज़िंदगी का ज्ञात है|
ज़िंदगी भर भी 'तुका' इस तथ्य को मत भूलना,
आदमी की सिर्फ होती आदमीयत जात है |

आवश्यक है क़र्ज़ चुकाना|

मुक्त राष्ट्र की प्रगति नींव में , लोना लगा अपार |
                                  साथियो! चलो करें उपचार ||
टूट सुरक्षा शैल रहे हैं ,रोग विदेशी फ़ैल रहे हैं ,
चारों और प्रदूषण हावी-जन-मन पर चढ़ मैल रहे हैं|
 दिन दूना हर रात चौगुना, बढ़ा विलास  विकार --
                                साथियो! चलो करें उपचार |
भौतिकता की होड़ लगी है,नैतिकता घर छोड़ भगी है ,
दिन प्रतिदिन के व्यापारों में,मनमानी बेजोड़ ठगी है |
जगह-जगह पर फूल-फल रहा,कपट कलुष बाजार --
                                 साथियो! चलो करें उपचार |
यूँ तो है यह मर्ज़ पुराना, सहज नहीं है फ़र्ज़ निभाना,
फिर भी कवि को जन्मभूमि का, आवश्यक है क़र्ज़ चुकाना|
बुरे वक्त पर कलमकार ही ,करते हैं उद्धार---
                                  साथियो! चलो करें उपचार |       

यहाँ पर सब हैं थानेदार ---

यहाँ पर सब हैं थानेदार -
किसको अपने गले लगायें, किसे करें हम प्यार ?
यहाँ पर सब हैं थानेदार ---
बटा हुआ सम्पूर्ण इलाका,रिक्त नहीं है कोई नाका,
फिर भी लुटी जा रही बस्ती,नित्य हो रहा ध्वंस धमाका |
जिसकी लाठी भैस उसी की, मान रही सरकार ,
यहाँ पर सब हैं थानेदार ---
कुछ शासन सत्ता सुख भोगी,भाषण देते अति उपयोगी,
लेकिन उनकी करतूतों ने, बना दिये हैं लाखों रोगी |
हुआ वाही बीमार कि जिसको, करना था उपचार,
यहाँ पर सब हैं थानेदार ----
लोकतंत्र के दिखें न राही , दासी बनी लेखनी स्याही,
व्याप्त हो गई राज्यतंत्र में, अब मनचाही लापरवाही|
माँग रहे हैं विविध संगठन, कर्म बिना अधिकार ,
यहाँ पर सब हैं थानेदार ---