Tuesday, November 29, 2011

निर्वाचन

नीति निकष पर अपने प्रतिनिधि, परखें बारम्बार |
करें हम अपने आप सुधार,करें हम अपने आप सुधार||
...
समय-चक्र ने पुनः पुकारा,लगने लगा चुनावी नारा,
समझ लीजिये जनजीवन की, रक्षा होगी किसके द्वारा?
लोकतंत्र में ही संभव है, मानवीय व्यवहार |
करें हम अपने आप सुधार,करें हम अपने आप सुधार||

सब प्रान्तों की भाषाओँ को, वर्तमान की आशाओं को,
लोकतंत्र सम्मानित करता,जीवन की परिभाषाओं को|
लोकतंत्र का मूल भाव है,समरसता सहकार |
करें हम अपने आप सुधार,करें हम अपने आप सुधार||

परख लिया चौसठ वर्षों को, अपकर्षों को उत्कर्षों को ,
जाति- धर्म भाषा क्षेत्रों के ,संघर्षों को आदर्शों को |
लोकतंत्र में मानित होते, मुक्त उदात्त विचार |
करें हम अपने आप सुधार, करें हम अपने आप सुधार||

नम्र निवेदन प्रतिभाओं से,किंचित डरें न विपदाओं से,
सब अधिकार प्राप्त हो सकते,वोट शक्ति की क्षमताओं से|
लोकतंत्र के बिना न होगा, जा-मन का उद्धार |
करें हम अपने आप सुधार, करें हम अपने आप सुधार ||

जन-मन को महकाते हो

एक वार समझाओ प्रिय! क्यों, इतना कष्ट उठाते हो?
गल-पिस कर बन गये इत्र तुम, जन-मन को महकाते हो||

किंचित भेद नहीं माना है, तुमने पर्वत घाटी में |
यह भी सच है हुए अंकुरित, सड़कर के शुचि माटी में|| 
जाड़ा गर्मी बरसातों को, सहतो हो मुस्काते हो|
गल-पिस कर बन गये इत्र तुम, जन-मन को महकाते हो||

पले-बढ़े हो नित शूलों में,लेकिन नहीं गिला कोई |
सबको मकरंदी सुगंध दी, अपनी सुध-बुध भी खोई||
घर से बेघर किया जिन्होंने, उनको भी अपनाते हो |
गल-पिस कर बन गये इत्र तुम, जन-मन को महकाते हो||

कवियों ने अपने अनुभव से,तुमको सुमन बताया है|
लेकिन उन सबने अपने को, तुम-सा नहीं सजाया है||
सुमन समान बनो फिर महको, शायद यही सिखाते हो|
गल-पिस कर बन गये इत्र तुम, जन-मन को महकाते हो||

Sunday, November 6, 2011

मिले सहारा भले न कोई, किन्तु नहीं घबराऊंगा|
उपेक्षितों के साथ हमेशा , आगे बढ़ता जाऊँगा ||

जहाँ घिरा घनघोर अँधेरा , दीपक वह जलाना है|
आंधी- पानी तूफानों में, शांति केतु फहराना है | 
मिलन भाव से सिक्त शब्द की, सरस गंध बिखराऊंगा|
उपेक्षितों के साथ हमेशा , आगे बढ़ता जाऊँगा ||

खंडन-मंडन से बच करके, चन्दन-सा बन जाना है |
प्यास बुझाने हेतु धरा की, शील सलिल बरसाना है||
क्षुधा सभी की तृप्त करे जो, वही फसल उपजाऊंगा|
उपेक्षितों के साथ हमेशा , आगे बढ़ता जाऊँगा ||

दुबले-पतले इस शरीर ने, शक्ति अपरिमित पायी है |
निर्धन हूँ पर अंतरमन में,शुचि अनुरक्ति समायी है||
युग प्रबोध के नियम-उपनियम, जन-जन को समझाऊंगा|
उपेक्षितों के साथ हमेशा , आगे बढ़ता जाऊँगा ||

जलचर,नभचर मृगवृन्दों ने ,स्नेहल स्वर अपनाया है|
सुनो आप समझो तो भैया, कवि ने ह्रदय सजाया है ||
मानव हूँ बस मानव हित में, मार्ग नवीन बनाऊंगा|
उपेक्षितों के साथ हमेशा , आगे बढ़ता जाऊँगा |