Tuesday, November 29, 2011
जन-मन को महकाते हो
एक वार समझाओ प्रिय! क्यों, इतना कष्ट उठाते हो?
गल-पिस कर बन गये इत्र तुम, जन-मन को महकाते हो||
किंचित भेद नहीं माना है, तुमने पर्वत घाटी में |
यह भी सच है हुए अंकुरित, सड़कर के शुचि माटी में||
जाड़ा गर्मी बरसातों को, सहतो हो मुस्काते हो|
गल-पिस कर बन गये इत्र तुम, जन-मन को महकाते हो||
पले-बढ़े हो नित शूलों में,लेकिन नहीं गिला कोई |
सबको मकरंदी सुगंध दी, अपनी सुध-बुध भी खोई||
घर से बेघर किया जिन्होंने, उनको भी अपनाते हो |
गल-पिस कर बन गये इत्र तुम, जन-मन को महकाते हो||
कवियों ने अपने अनुभव से,तुमको सुमन बताया है|
लेकिन उन सबने अपने को, तुम-सा नहीं सजाया है||
सुमन समान बनो फिर महको, शायद यही सिखाते हो|
गल-पिस कर बन गये इत्र तुम, जन-मन को महकाते हो||
Sunday, November 6, 2011
मिले सहारा भले न कोई, किन्तु नहीं घबराऊंगा|
उपेक्षितों के साथ हमेशा , आगे बढ़ता जाऊँगा ||
जहाँ घिरा घनघोर अँधेरा , दीपक वह जलाना है|
आंधी- पानी तूफानों में, शांति केतु फहराना है |
मिलन भाव से सिक्त शब्द की, सरस गंध बिखराऊंगा|
उपेक्षितों के साथ हमेशा , आगे बढ़ता जाऊँगा ||
खंडन-मंडन से बच करके, चन्दन-सा बन जाना है |
प्यास बुझाने हेतु धरा की, शील सलिल बरसाना है||
क्षुधा सभी की तृप्त करे जो, वही फसल उपजाऊंगा|
उपेक्षितों के साथ हमेशा , आगे बढ़ता जाऊँगा ||
दुबले-पतले इस शरीर ने, शक्ति अपरिमित पायी है |
निर्धन हूँ पर अंतरमन में,शुचि अनुरक्ति समायी है||
युग प्रबोध के नियम-उपनियम, जन-जन को समझाऊंगा|
उपेक्षितों के साथ हमेशा , आगे बढ़ता जाऊँगा ||
जलचर,नभचर मृगवृन्दों ने ,स्नेहल स्वर अपनाया है|
सुनो आप समझो तो भैया, कवि ने ह्रदय सजाया है ||
मानव हूँ बस मानव हित में, मार्ग नवीन बनाऊंगा|
उपेक्षितों के साथ हमेशा , आगे बढ़ता जाऊँगा |
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