Thursday, December 19, 2013

'बदलिये साधो अपनी चाल'

एक गीत :- 'बदलिये साधो अपनी चाल'

डसने को तैयार हो रहे, लोकपाल के व्याल,
बदलिये साधो अपनी चाल|
बदलिये साधो अपनी चाल||

पता नहीं कब किस कारण से, सच को घेरा जाये,
बिना बात कुछ कमजोरों के, सिर पर संकट आये|
झुकवाये जायें विवेक के, चौराहों पर भाल,
बदलिये साधो अपनी चाल|
बदलिये साधो अपनी चाल||

युगों-युगों के कई लुटेरे, फिर से हुये प्रभावी ,
सदाचार दफनाने वाले, लोकतन्त्र पर हावी|
आज राजशाही का बिछने, लगा राष्ट्र में जाल,
बदलिये साधो अपनी चाल|
बदलिये साधो अपनी चाल||

हारे-थके बोझ के मारे, भूखे- प्यासे बच्चे,
विपदाओं के सहे थपेड़े, बने रहे जो सच्चे|
खतरे में दिख रहा और भी, उनका जीवन-काल,
बदलिये साधो अपनी चाल|
बदलिये साधो अपनी चाल||

अपना देश बचाना होगा, भू का कर्ज चुकायें,
लोकतंत्र पर विपदा आई, नैतिक फर्ज निभायें|
निगल रहे वे संविधान को, जो हैं मालामाल,
बदलिये साधो अपनी चाल| 
बदलिये साधो अपनी चाल||

Monday, December 16, 2013

सफेदी दिखती है लाचार..



राजनीति के गलियारे में, कीचड़ की भरमार,
सफेदी दिखती है लाचार|
सफेदी दिखती है लाचार||

अनुभवहीन व्यक्तियों द्वारा, ऐसा उठा विवाद,
सत्य तथ्य के ऊपर हावी, होने लगा निनाद|
भ्रष्ट दूर करने को निकले, फैला भ्रष्टाचार|
सफेदी दिखती है लाचार|
सफेदी दिखती है लाचार||

असमंजस में खोई जनता, सुने अनैतिक गीत,
सुविधाभोगी लगे समझने, अपने को जगजीत|
स्वार्थवृत्ति के दुरभिसंधि से, होने लगे करार|
सफेदी दिखती है लाचार|
सफेदी दिखती है लाचार||

मजबूरी में दिल्ली छोड़ी, गये गाँव की ओर,
चौथेपन ने तरुणाई को, दिया खूब झकझोर|
जनता फूटी आँखों देखे, परिवर्तित व्यवहार|
सफेदी दिखती है लाचार|
सफेदी दिखती है लाचार||

तुकाराम वर्मा

Saturday, December 14, 2013

दिल्ली की खिल्ली..


राजनीती में घुस बैठे हैं, कई शेखचिल्ली|
उड़ रही दिल्ली की खिल्ली|
उड़ रही दिल्ली की खिल्ली||

लम्बी-चौड़ी बातें करके, इतना भ्रम फैलाया,
मतदाता को मोह तमाशा, समझ नहीं आया|
चूस रही है रक्त पिपासी, सत्ता की किल्ली|
उड़ रही दिल्ली की खिल्ली|
उड़ रही दिल्ली की खिल्ली||

खींच-तान की आन-बान में, शान हुई मैली,
काम नहीं आ रही अर्थ की, अब काली थैली|
चूहों पर है आँख लगाये, ताक रही बिल्ली|
उड़ रही दिल्ली की खिल्ली|
उड़ा रही दिल्ली की खिल्ली|| 

युवाशक्ति ने सत्य वक्त का, कुछ पहचाना है,
कथनी को करनी में पूरा, कर दिखलाना है|
लालचियों के ऊपर रख दी, बर्फीली सिल्ली| 
उड़ रही दिल्ली की खिल्ली|
उड़ रही दिल्ली की खिल्ली||

Wednesday, December 11, 2013

जो कुछ हुआ समाज में

जो कुछ हुआ समाज में वो ठीक हो गया,
इतना पिसा पहाड़ भी बारीक हो ऐसा| 

वह तो गुनाहगार है तस्दीक हो गया,
इस हेतु राजतंत्र के नजदीक हो गया|

क्यों राजनीति में यहाँ विद्रोह-सा मचा,
धनवान आसमान पर आसीन हो गया| 

सद्भावना मिठास की जिसमें असीम थी, 
उस शीत का मिज़ाज भी नमकीन हो गया|

जिसको सुधार के लिए सम्मान था मिला,
वह अर्थ जाप यज्ञ में तल्लीन हो गया|

हिम के समान श्वेत जो पहचान थी कभी,
पहनाव उस फकीर का रंगीन हो गया|

जिसकी महानता तुका बेहद बखान की,
वह ठीक वक्त पर सुना दो तीन हो गया|

Monday, December 2, 2013

बातें करते हैं


कुछ लोग मुहब्बत के घर में नफ़रत की बातें करते हैं,
कुछ नफ़रत सहते है फिरभी चाहत की बातें करते हैं|

वे नायक हैं व्यावहारहीन आदत की बातें करते हैं 
जिसकी न इबारत पढ़ सकते उस खत की बातें करते हैं|

जिनको इंसानी बोध नहीं इंसानों -सा व्यवहार नहीं, 
वे लूट रहे पर इज्जत को इज्जत की बातें करते हैं|

इस दुनिया का दस्तूर यही थोड़ा-सा अर्थ चढ़ा करके,
ईश्वर से अधिक चाहने को मिन्नत की बातें करते हैं|

उन लोगो को सम्मान लाभ जनता से मिलता रहता जो,
नेताओं के घर पर जाकर कसरत की बाते करते हैं|

उनके चिंतन को मान तुका क्यों साहित्यिक जीवन में हो,
जो केवल शोहरत पाने को दौलत की बातें करते हैं|

Friday, November 22, 2013

गीत गाओ मीत

***गीत गाओ मीत***
**************

भ्रष्टाचारी के विरोध में, ध्वस्त हुआ अभियान,
ठगों ने बहुत किया हैरान|
ठगों ने बहुत किया हैरान||

गाँव गरीब किसान कहाँ हैं? छलियों में गुणवान कहाँ है?
केवल चतुराई की कथनी, बन सकती रहमान कहाँ है? 
कभी करोड़ीमल हो सकते, नहीं आम इन्सान,
ठगों ने बहुत किया हैरान|
ठगों ने बहुत किया हैरान|| 

जिसने जीवन अर्थ न समझा, रहा स्वार्थ में उलझा-उलझा,
उसके कलुष कारनामों से, खिला चमन तक जाता मुरझा| 
जाल- फरेबी ताने- बाने, बुनते है शैतान,
ठगों ने बहुत किया हैरान|
ठगों ने बहुत किया हैरान||

शब्द साधना जो करते हैं, धन से बहुत दूर रहते हैं,
जनता की आवाज़ उठाते, प्राणवायु बनकर बहते हैं| 
कविता नहीं त्याग सकती है, शिवम सत्य ईमान,
ठगों ने बहुत किया हैरान|
ठगों ने बहुत किया हैरान||

मान लिया सत्ता है खोटी, शिखरों ऊपर दाढ़ी- चोटी,
चित्त गंदगी साफ करे जो, उसकी अक्ल हो गई मोटी|
एक -एक तीली झाड़ू की, बिखर गई श्रीमान| 
ठगों ने बहुत किया हैरान|
ठगों ने बहुत किया हैरान||

Saturday, November 16, 2013

हमारी ग़ज़ल

हमारी ग़ज़ल में तुम्हारी अदा है,
सखे देख लो आँख ये नर्मदा है|

गली गाँव में गूँज है कुछ घरों ने,
भरी लूटकर देश की सम्पदा है|

जिन्हें लोग बेबस बताते उन्हीं के, 
सिरों पर भयाभय बोझा लदा है|

फकीरी सिखाती सदाचार सेवा,
अमीरी नहीं मानती कायदा है|

सदा से रहा बोलवाला बड़ों का,
दुखी कीं न सुनता कोई सदा है|

'तुका' सोचिये तो किसी लेखनी से, 
लिखाती गलत क्या कभी शारदा है?

Saturday, November 2, 2013

जीवन गीत:-

जीवन गीत:-

ज्ञान रौशनी देने वाली, दिखती आज निगाह नहीं है|
अर्थतंत्र में फँसी ज़िन्दगी, तर्क विवेकी चाह नहीं है||

अंधकार में दीप जगाना, कभी हमारा चिंतन था,
उच्च सोच थी मानववादी, कहीं न झूठा बंधन था|
आज स्वतंत्र लोकशाही है, लोक समर्थक राह नहीं है|
अर्थतंत्र में फँसी ज़िन्दगी, तर्क विवेकी चाह नहीं है||

शिक्षा ऊपर ताले डाले, हर प्रकार अज्ञान बढ़ा, 
जो परार्थ जीते-मरते थे, उनपर स्वार्थी रंग चढ़ा| 
लालच के सागर की पायी, खोजी ने भी थाह नहीं है|
अर्थतंत्र में फँसी ज़िन्दगी, तर्क विवेकी चाह नहीं है||

आपस में छीना-झपटी का, दौर चलाया मनमाना,
देता है इतिहास गवाही, हुआ सहोदर अनजाना|
अपने और परायेपन को, भाती उचित सलाह नहीं है| 
अर्थतंत्र में फँसी ज़िन्दगी, तर्क विवेकी चाह नहीं है||

यह छोटी सी बात समझना, सबके लिए जरूरी है|
प्रगति पगों के आगे ठहरी, कभी नहीं मजबूरी है||
जीवन गीत नहीं वो जिसमें, होता मुक्त प्रवाह नहीं है| 
अर्थतंत्र में फँसी ज़िन्दगी, तर्क विवेकी चाह नहीं है||

Thursday, October 31, 2013

आचरित गीत



कवि ने शब्दशक्ति से खोले, युगप्रबोध के नैन,
दिया है चिंतन का सुख-चैन| 
दिया है चिंतन का सुख-चैन||

सबको अपनों -सा पहचाना, नहीं भेद- भावों को माना,
उपेक्षितों घर आना- जाना, जो भी भोज मिला वह खाना|
जीवन भर परार्थ कृत्यों को, किया बंधु दिन-रैन, 
दिया है चिंतन का सुख-चैन| 
दिया है चिंतन का सुख-चैन||

इस दुनिया को इंसानों ने, साधक चिंतक विद्वानों ने,
रहने योग्य समाज बनाया, शील विनय से गुणवानों ने|
तार्किकता से सदा मिटाया, जड़ता मूलक दैन,
दिया है चिंतन का सुख-चैन| 
दिया है चिंतन का सुख-चैन||

वर्तमान जीवन विज्ञानी, तजी धारणायें पाषाणी,
सर्वोदयी नीति अपनायी, सोच बनायी है कल्याणी| 
संवैधानिक विधि से पकड़ी, लोकतंत्र की गैन,
दिया है चिंतन का सुख-चैन| 
दिया है चिंतन का सुख-चैन||

Wednesday, October 23, 2013

लोकतंत्र का राज..

 लोकतंत्र का राज..

गाँव-शहर की गली-गली में, गूँज रही आवाज़,
बनायें समता परक समाज|
बनायें समता परक समाज||

बहुत हो चुकी खींचातानी, चोर-लुटेरों की मनमानी,
अब तो दैनंदन जीवन में, दखल दे रहे ठग अज्ञानी|
भौतिकता ने नैतिकता का, छीन लिया है ताज,
बनायें समता परक समाज|
बनायें समता परक समाज||

सत्ता करती नहीं समीक्षा, अनाचार दिलवाये दीक्षा,
शब्दशक्ति को देनी होगी, न्यायनीति के हेतु परीक्षा|
टुकड़ों टुकड़ों में न बटेगा, युवा राष्ट्र में आज|
बनायें समता परक समाज|
बनायें समता परक समाज||

अच्छे कार्य कदापि न टालें, खुद सँभलें जनतंत्र सँभालें, 
वैज्ञानिक साँचों में अपने, वर्तमान जीवन को ढालें|
हमें सुरक्षित रखना ही है, लोकतंत्र का राज,
बनायें समता परक समाज|
बनायें समता परक समाज||

तुकाराम वर्मा

Friday, October 11, 2013

"सर्वोदय नवनीत"

"सर्वोदय नवनीत"

प्रकृति प्रदर्शन बीच गूँजने, लगा सरस संगीत,
लुटाने लगी शरद ऋतु प्रीत|
लुटाने लगी शरद ऋतु प्रीत||

चारों ओर सुखद हरयाली, नैसर्गिक छवि भव्य निराली,
खेतों में दिखती स्वर्णिम-सी, पके धान की डाली-डाली|
अरमानों के शुभागमन की, साफ दिख रही जीत| 
लुटाने लगी शरद ऋतु प्रीत|
लुटाने लगी शरद ऋतु प्रीत|| 

नभचर जलचर थलचर गाते, एकसाथ आनन्द मनाते,
बैर-भाव का गया ज़माना, सब सबको अब हैं अपनाते|
अपनेपन का गौरव बिखरा, सब लगते हैं मीत| 
लुटाने लगी शरद ऋतु प्रीत|
लुटाने लगी शरद ऋतु प्रीत|| 

सच्चे लोकतन्त्र अनुयायी, समझें सम्विधान प्रभुतायी,
ज्यों मौसम है सर्वहितैषी, त्यों विकास हो जन सुखदायी|
अबतो सबको देना ही है, सर्वोदय नवनीत| 
लुटाने लगी शरद ऋतु प्रीत|
लुटाने लगी शरद ऋतु प्रीत||

Monday, September 30, 2013

क्षेत्रवाद परिवेश

जाति-धर्म के साथ बनाया, क्षेत्रवाद परिवेश|
बिखेरा इंसानों में द्वेष|
बिखेरा इंसानों में द्वेष||

अपनी बोली अपनी भाषा, अपना किया विकास,
इस दूषित अपनेपन से तो, जन मन हुआ निराश|
अपनेपन की मनमानी का, प्रतिफल व्यापक क्लेश|
बिखेरा इंसानों में द्वेष|
बिखेरा इंसानों में द्वेष||

हम भारत के भारतवासी, हम भारत के लोग,
सरल सहज वाणी विचार से, करते थे सहयोग|
इन जीवन मूल्यों को भूले, धनपशु हुये विशेष|
बिखेरा इंसानों में द्वेष|
बिखेरा इंसानों में द्वेष||

लोकतंत्र का अर्थ न जाना, रहे लोक से दूर,
सुविधाभोगी शैतानों के, जिये क्षुद्र दस्तूर|
शील विनय से किया किनारा, अपनाया आवेश|
बिखेरा इंसानों में द्वेष|
बिखेरा इंसानों में द्वेष||

हमसे अच्छा और न कोई, ऐसा घृणित प्रचार,
पाखण्डी चिंतन में आया, किंचित नहीं सुधार|
महिमामंडित करते रहते, सामन्ती अवशेष|
बिखेरा इंसानों में द्वेष|
बिखेरा इंसानों में द्वेष||

राजनीति का लेकर झण्डा, माँग रहे हैं वोट,
धनकुबेर कुछ लुटा रहे हैं, इन पर काले नोट|
काला धन सफ़ेद करने को, होने लगा निवेश|
बिखेरा इंसानों में द्वेष|
बिखेरा इंसानों में द्वेष||

Wednesday, September 25, 2013

चरम है|

तुम्हारा रहम है तुम्हरा करम है,
हमें प्यार करना तुम्हारा धरम है|

बड़े लोग हैं पर घरौंदा किसी का,
उन्हें छीनने में न आती शरम है|

उन्हें क्या पता भूख की मार कैसी, 
हमेशा रही जेब जिनकी गरम है|

जिन्होंने यहाँ जुल्म ढाए हमेशा, 
बुरी बात उनकी लगती नरम है|

सभी के लिए क्यों खुला वो रहे जो,
बनाया किसी के हितों का हरम है|

'तुका' प्राण जो और के हेतु दे दे,
मुहब्बत भरा मानिये वो चरम है|

Friday, September 6, 2013

हे! मानवता के सूत्रधार|


हे! मानवता के सूत्रधार|
जनजीवन के उत्कर्ष हेतु, दे दिये सुहाने नवविचार|
हे! मानवता के सूत्रधार|
हे! मानवता के सूत्रधार||

जीवन में लोकतंत्र विधि का,
परिपालन अपने आप किया|
संवर्धन के सन्मार्ग रचे,
भूलों पर पश्चाताप किया||
विपरीत दशाओं में देता, सद्शक्ति अपरिमित सदाचार|
हे! मानवता के सूत्रधार|
हे! मानवता के सूत्रधार||

क्या उचित और अनुचित होता,
यह भलीभाँति समझाया है| 
वह मानव क्या जो मानव का,
उपकार नहीं कर पाया है||
नित चिंतन मनन विवेचन से, कर लिया ह्रदय को निर्विकार|
हे! मानवता के सूत्रधार|
हे! मानवता के सूत्रधार||

परहित में अपना हित रहता,
यह सीधी सरल कहानी है|
जो सबको आकर्षित करती,
वह नैतिक मीठी वाणी है||
वह असफल कभी न होता जो, निज भूलों का करता सुधार|
हे! मानवता के सूत्रधार|
हे! मानवता के सूत्रधार||

Tuesday, August 27, 2013

स्वप्निल स्वर्गिक वादे


बहुत विलखते हुए स्वरों ने, प्रभु को पुनः पुकारा है|
किसी क्रूर ने दुखियारी के, तन का चीर उतारा है||

सरेआम कन्या को खींचा, उसे कार से ले भागे,
पता नहीं इन दुर्दान्तों के, जुड़े कहाँ से हैं धागे|
गिरते अश्रुकणों का सोचो, बनता कौन सहारा है?
बहुत विलखते हुए स्वरों ने, प्रभु को पुनः पुकारा है|

इधर-उधर की लफ्फाजी में, छली प्रशासन खोया है|
यहाँ लग रहा अबतो यूँ ज्यों, संरक्षक ही सोया है||
जिसे लेखनी भूल रही थी, फिर वो दर्द उभारा है|
बहुत विलखते हुए स्वरों ने, प्रभु को पुनः पुकारा है|

कदाचार ने सदाचार के, कई लबादे लादे हैं| 
यहाँ लूटने वाले करते, स्वप्निल स्वर्गिक वादे हैं||
वदन चटोरों ने संस्कृति के, तन को किया उघारा है|
बहुत विलखते हुए स्वरों ने, प्रभु को पुनः पुकारा है|

Friday, August 23, 2013

विद्वानों को किया किनारे

अपने आप विचार कीजिये, क्यों न बढ़ेंगे दंगे?
विद्वानों को किया किनारे, पुजने लगे लफंगे||

अज्ञानी जी ज्ञानी जैसी, अंकित किये निशानी,
जहाँ चाहते वहाँ सुनाते, ठग्गू छद्म कहानी|
तंत्र- मन्त्र से हम करते हैं, बीमारों को चंगे|
विद्वानों को किया किनारे, पुजने लगे लफंगे||

यद्दपि संसद भवन राष्ट्र का, महान्याय मंदिर है,
जिसके हर आसान पर बैठा, संसदीय इन्दर है|
कमजोरों के हक पर फिरभी, लगते कई अडंगे|
विद्वानों को किया किनारे, पुजने लगे लफंगे|| 

सदाचार के सूत्र सिखाते, करते हेरा- फेरी,
भ्रष्टाचार छिपाये मौसी, अनाचार की चेरी|
लोकतंत्र को दूषित करते, बलशाली बेढंगे| 
विद्वानों को किया किनारे, पुजने लगे लफंगे||

Tuesday, August 20, 2013

खुले न जिनके

खुले न जिनके ओंठ सोचिये आँगन में,
लगा रहे वे दाग समुज्ज्वल दामन में|

हुआ नहीं बदलाव अकारण मौसम में,
बरस रही है आग आजकल सावन में|

हुई अनैतिक सोच प्रभावी अब इतनी,
जहर मिलाया गया तेल में राशन में|

किसे लगायें दोष प्रदूषण है इतना, 
पड़ा हुआ बीमार प्यार वृन्दावन में|

उन्हें समझते लोग खजाना विद्या का,
गरल उगलते खूब यहाँ जो भाषण में|

करें शिकायत कौन 'तुका' इन लोगों से, 
सुनी न जाती बात प्रशासन शासन में|

Monday, August 12, 2013

लोक व्यवस्था

कर्त्तव्यों की बोझिल गठरी लादे घूम रहे,
आज अनोखेलाल गगन के तारे चूम रहे|

लोक व्यवस्था दोनों हाथों देती मान उन्हें,
जो सत्ता की हिस्सेदारी से महरूम रहे|

अध्यापन की गरिमा शोभा देती नहीं उन्हें,
ज्ञान दान करने में जो भी बेहद सूम रहे|

संविधान ने जीवन यापन का अधिकार दिया,
पर किसकी क्या हैं सीमायें यह मालूम रहे|

खींचातानी अफरातफरी होगी क्यों न वहाँ,
भूख-प्यास से व्याकुल रोता जहाँ हुजूम रहे|

हो सकता संभव सामाजिक तब सदभाव 'तुका',
जब नफ़रत फैलाने वाला रंच न धूम रहे|

Friday, August 9, 2013

नगाड़े लोकशाही के

सुनाई दे रहा सुनिये यही तो शोर है,
पसारा गुंडई ने खौफ़ चारों ओर है|

अचानक आ गया बदलाव ये माहौल में,
भयाभय साँप से दिखने लगा अब मोर है|

हवा में चैन की खुशबू अभी फैली नहीं,
हुआ क्या बाकई सुख शान्ति वर्धक भोर है?

उसी को राजनैतिक क्षेत्र में अवसर यहाँ ,
हुआ जो हाथ-पैरों अर्थ से सहजोर है|

नगाड़े लोकशाही के बहुत से गूँजते,
कहो फिर क्यों गरीबों को बनाया ढोर है|

किसी ने भी उसे सम्मान से देखा नहीं,
'तुका' जो आचरण से ही रहा गमखोर है|

Wednesday, August 7, 2013

अनोखेलाल

कर्त्तव्यों की बोझिल गठरी लादे घूम रहे,
आज अनोखेलाल गगन के तारे चूम रहे|

लोक व्यवस्था दोनों हाथों देती मान उन्हें,
जो सत्ता की हिस्सेदारी से महरूम रहे|

अध्यापन की गरिमा शोभा देती उन्हें नहीं,
ज्ञान दान करने में भी जो बेहद सूम रहे|

संविधान ने जीवन यापन का अधिकार दिया,
पर किसकी हैं क्या सीमायें यह मालूम रहे|

खींचातानी अफरातफरी होगी क्यों न वहाँ,
भूख-प्यास से व्याकुल रोता जहाँ हुजूम रहे|

हो सकता संभव सामाजिक तब सदभाव 'तुका',
जब नफ़रत फैलाने वाला रंच न धूम रहे|

Friday, August 2, 2013

चिंतन जल

सुना गया है यहाँ यही तो, बड़े लोग वे होते हैं?
करें नहीं जो सत्कृत्यों को, पड़े चैन से सोते हैं|

सहजोरों के घर वैभवता, कमजोरों को निर्धनता,
राज्य धर्म के दो पाटों में, पिसती रहती है जनता|
इन्हीं कुचालों ने मानव तो, ढोरों जैसे जोते हैं|
सुना गया है यहाँ यही तो, बड़े लोग वे होते हैं?

शोषण के पोषण की गाथा, सदियों छली सुनाये हैं,
बदले में शासन -सत्ता से, दान सुरक्षा पाये हैं|
परजीवी के भारी बोझे, सदा कमेरे ढोते हैं|
सुना गया है यहाँ यही तो, बड़े लोग वे होते हैं?

दुरभिसंधियों के प्रयास को, परमेश्वर से जोड़ा है,
ठगुओं ने भोले-भालों को, नहीं कहीं का छोड़ा है|
पुनर्जन्म के भव सागर में, बंधक खाते गोते हैं|
सुना गया है यहाँ यही तो, बड़े लोग वे होते हैं?

तुम्हें तथागत ने समझाया, फिर क्यों समझ नहीं आता,
परमात्मा आत्मा का कोई, नहीं सत्य से है नाता|
दुख सुख नहीं समझते वे जो, निज विवेक को खोते है| 
सुना गया है यहाँ यही तो, बड़े लोग वे होते हैं?

सदा निवारण हर कारण का, निश्चय जग में होता है ,
वही बुद्ध है जो विपत्ति में, कभी न नैन भिगोता है|
मिलते हैं फल वही कि जिनके, बीज आदमी बोते है|
सुना गया है यहाँ यही तो, बड़े लोग वे होते हैं?

यही उचित है सभी सभी के, सुख-दुख को मिलकर बाँटें,
मानवकृत भेदों को त्यागें, स्नेह सहित जीवन काटें|
श्रेष्ठ संत तो भ्रम की काई, चिंतन जल से धोते हैं|
सुना गया है यहाँ यही तो, बड़े लोग वे होते हैं?

Monday, July 29, 2013

जख्मी आवाज़




बहुत विलखते हुए स्वरों ने, फिरसे उसे पुकारा है|
दुर्दान्तों ने दुखियारी के, तन से चीर उतारा है||

सरेआम कन्या को खींचा, उसे कार से ले भागे,
पता नहीं इन मुस्दंडों के, जुड़े कहाँ से हैं धागे|
गिरते हुए आँसुओं को तो, मिलता नहीं सहारा है|
दुर्दान्तों ने दुखियारी के, तन से चीर उतारा है||

बेमतलब की लफ्फाजी में, सकल प्रशासन खोया है|
यहाँ लग रहा अब यूँ जैसे, संरक्षक ही सोया है||
उद्दंडों के क्रूर कर्म भी, सुनना नहीं गंवारा है|
दुर्दान्तों ने दुखियारी के, तन से चीर उतारा है||

इज्जत जिनकी गई उतारी, उनको बुरा-भला कहते|
दहशतगर्दों की सेवा में, लगे सिपाही कुछ रहते||
न्यायतंत्र ने दौड़ा करके, मरे हुओं को मारा है| 
दुर्दान्तों ने दुखियारी के, तन से चीर उतारा है||

Friday, July 26, 2013

प्यार सद्धर्म है

प्यार सद्धर्म है मूल अधिकार है,
प्यार ने ही रचा भव्य संसार है|

हो सके तो सुदृढ़ से सुदृढ़ कीजिये,
ज़िन्दगी के लिए प्यार आधार है|

भीड़ इस पार है भीड़ उस पार है,
भ्रान्ति के सिंधु में नाँव मझधार है|

लोग जिसको बताते मुसीबत बड़ी,
वो दयावान का श्रेष्ठ उपहार है|

वोट की शक्ति के सामने जानिये,
तीर तलवार क्या तोप बेकार है|

सभ्य संवाद है ज्ञात उसको 'तुका',
मित्र ही क्या जिसे शत्रु स्वीकार है|

Wednesday, July 24, 2013

शाश्वत राग

पतझर ने उजाड़ डाला है, जीवन बाग हमारा|
एकाकी ही गूंज रहा है, शाश्वत राग हमारा||

कालचक्र की इच्छायें तो, हुई न कभी पता,
लेकिन शीत ग्रीष्म वर्षा में, सदा रहा चलता|
अनुभव की आवाज़ हो गया, पावन त्याग हमारा|
एकाकी ही गूंज रहा है, शाश्वत राग हमारा||

जब से होश सँवाला तब से, परहित लगा रहा,
थका तभी सैया पर पहुँचा, फिरभी जगा रहा |
वो भी छीन लिया ठगुओं ने, जो था भाग हमारा|
एकाकी ही गूंज रहा है, शाश्वत राग हमारा||

इसे न समझा बैरी उसको, कभी न मित्र कहा,
समता परक स्वभाव सभी के, लिए पवित्र रहा| 
प्राणवायु सा जगहित बहता, उर अनुराग हमारा|
एकाकी ही गूंज रहा है, शाश्वत राग हमारा||

Saturday, July 20, 2013

थू-थू, थू-थू



थू-थू, थू-थू है धिक्कार ---

गुंडा-गर्दी अत्याचार ,
राजनीति का यह उपहार|
आम आदमी ठेंगे पर-
वाह-वाह सुनती सरकार||१ 
थू-थू, थू-थू है धिक्कार ---

चौराहों ऊपर मक्कार,
जगह-जगह बैठे गद्दार| 
गिरता कन्याओं का भ्रूण-
ताल-ठोकता है व्यभिचार||२ 
थू-थू, थू-थू है धिक्कार ---

लापरवाही का अधिकार,
क्रूर हुई भोजन की मार|
घोर गरीबी की संतान-
प्राण गँवायें खाये मार||३ 
थू-थू, थू-थू है धिक्कार ---

राष्ट्रभक्ति का शिष्टाचार, 
लूट डकैती भ्रष्टाचार|
पायें सत्ता का सुख भोग-
दुरभिसंधि कर कुछ परिवार||४ 
थू-थू, थू-थू है धिक्कार ---

जातिवादियों का विस्तार,
क्षेत्रवादियों की जयकार|
पूंजीपतियों का सद्धर्म- 
फैलाना काले व्यापार||५ 

कौन यहाँ पर जुम्मेदार?
किनके कन्धों ऊपर भार?
ऐसा लगता आज नागरिक-
छोड़ रहे मौलिक अधिकार||६ 

गाँव संस्कृति बंटाधार,
नगरों में है हाहाकार|
युवक युवतियों की आवाज़- 
इन रोगों का हो उपचार||७ 
थू-थू, थू-थू है धिक्कार ---

मौज मनाओ है इतवार,
अथवा हो जाओ तैयार|
न्याय हितौषी होकर एक 
करें प्रयोग वोट अधिकार||८ 
थू-थू, थू-थू है धिक्कार ---

अनाचारियों का प्रतिकार,
सदाचारिता का संचार|
लोकहितैषी सीधे मार्ग-
अबतो करने हैं स्वीकार||९ 
संविधान के प्रति आभार| 
संविधान के प्रति आभार|

Sunday, July 14, 2013

पंचशील का बाग

किसी क्षेत्र में राष्ट्र प्रेम की, महक न मंदिम पड़ पाये|
मिला स्नेह सहकार वृक्ष जो, जड़ उसकी न उखड़ पाये||

मान रहा हूँ स्वार्थवृत्ति का, रोग निरन्तर फैल रहा|
रोकथाम करने को कब से, हटा मानसिक मैल रहा|
दिया सरहदों ऊपर पहरा, अरिदल अब न उमड़ पाये|
मिला स्नेह सहकार वृक्ष जो, जड़ उसकी न उखड़ पाये||

काव्यशक्ति से नागरिकों को, युग प्रबोध संगीत दिया,
सत्य- असत्य परखने वाला, पारख सूत्र प्रणीत किया|
प्रगतिशील जीवन हों अपने, जड़ता नहीं जकड़ पाये|
मिला स्नेह सहकारवृक्ष जो, जड़ उसकी न उखड़ पाये||

लोकहितैषी उद्योगों को, भलीभाँति विकसित कर लें,
जिन क्षेत्रों में पीछे उनके, कारण अन्वेषित कर लें|
पंचशील का बाग सुहाना, फिरसे नहीं उजड़ पाये|
मिला स्नेह सहकार वृक्ष जो, जड़ उसकी न उखड़ पाये||

विश्व शान्ति के हेतु हमारा, संविधान उद्घोषक है,
बुद्धि विवेक तर्क विज्ञानी, राह चुनी सहयोजक है|
संचित शक्ति करें अब इतनी, कोई कर न पकड़ पाये|
मिला स्नेह सहकार वृक्ष जो, जड़ उसकी न उखड़ पाये||

Friday, July 12, 2013

कहानी हो किसी की

नहीं सम्बन्ध रखते जो भले इन्सान से,
सुनाते कातिलानी भूमिका वे शान से|

ठगों की आदतें जाती नहीं गुणगान से, 
सही पहचान होती है नहीं परिधान से|

कभी सत्ता मिले शायद उन्हें भी देश की,
मिलेंगे लेखकों को तोहफे अनुदान से|

उन्हीं के हाथ से स्वीकार के उपहार को, 
खड़े हरदम रहेंगे साथ में जी जान से|

समझना चाहिये इन्सान को इतना सदा,
भला होता किसी का भी नहीं शैतान से|

इसी में तोष मिलता है यही चाहत रही, 
महज दो रोटियाँ मिलती रहें सम्मान से|

कहानी हो किसी की भी किसी दौरान की,
उसे समझा 'तुका' ने तर्क से विज्ञान से|

Sunday, July 7, 2013

चेतना जाग्रत

चेतना जाग्रत करे जो वो कहानी जानिये|
बैठिये नजदीक आकर जिंदगानी जानिये||

वाहवाही लूटने की शक्तियाँ जिसमें भरी,
सभ्यता संवेदना की काव्यवाणी जानिये|

मानता हूँ वो किसी की वाटिका में कैद है, 
पर महकती जो यहाँ वो रातरानी जानिये|

बंधनी सी अब दिखाई दे रही लेकिन कभी,
लोकशाही भावना मत खानदानी जानिये|

जो सुनी सुनते सुनाते आ रहे हो आदि से, 
वो कथा है सत्य कितनी संत ज्ञानी जानिये? 

यूँ किसी को ज्ञात अगला पल नहीं होता मगर,
शायरों की ज़िन्दगी को गैरफानी जानिये|

भौतिकी विज्ञान के इस दौर में सोचो 'तुका',
क्या सिखाती हैं किताबें आसमानी जानिये?

Saturday, July 6, 2013

रूप हमारे गाँव का

बदल गया है बचपन वाला, रूप हमारे गाँव का|
सूख गया है मृदु जल वाला, कूप हमारे गाँव का||

जटिल कार्य सहकार भाव से, सब कर लेते थे,
जिसका जो हक बनता थे वो, उसको देते थे |
दुनिया भर में जाना जाता, जूप हमारे गाँव का|
बदल गया है बचपन वाला, रूप हमारे गाँव का||

गेहूँ चना मटर की फसलें, यूँ लहराती थी,
जैसे सजी-धजी माँ-बहनें कजरी गाती थी|
कृषकों श्रमिकों-सा रहता था, भूप हमारे गाँव का|
बदल गया है बचपन वाला, रूप हमारे गाँव का||

तीन- तीन तालाब नीर से, पूरित रहते थे,
जिनमें कई बतख जीवन की, महिमा कहते थे|
सहज प्रेरणा स्रोत रहा आनूप हमारे गाँव का|
बदल गया है बचपन वाला, रूप हमारे गाँव का||

युवक युवतियाँ सहोदरों- सा, हँसते गाते थे,
हिलमिलकर के सब नर-नारी, पर्व मनाते थे|
चारों और बहुत चर्चित था, यूप हमारे गाँव का |
बदल गया है बचपन वाला, रूप हमारे गाँव का||

Wednesday, July 3, 2013

राजधानी

नशेबाज-सी सो रही राजधानी,
कदाचार को ढो रही राजधानी| 

डकैती बकैती लठैती प्रभावी,
अनाचार से रो रही राजधानी|

कहीं नीर निर्मल दिखाई न देता, 
वदन कीच से धो रही राजधानी| 

व्यवस्था हुई चम्बली आज देखो,
डवांडोल कुछ हो रही राजधानी|

विषैले फलों को उगाती रहे जो, 
वही बीज तो बो रही राजधानी|

मचा राजनैतिक घमासान ऐसा,
'तुका' धैर्य को खो रही राजधानी|

Monday, July 1, 2013

हाथ में हाथ

हाथ में हाथ सबसे मिलाते नहीं,
शान शौकत हमेशा दिखाते नहीं|

आसमां शीश ऊपर उठाते नहीं|
शक्ति बेकार में तो गँवाते नहीं|

कौन-सा राष्ट्रहित वे करेंगे कहो,
जो सुबह विस्तरा छोड़ पाते नहीं|

हाल बेहाल उनका हुआ क्या कहें,
शिष्य भी आजकल पास जाते नहीं|

मित्र से क्या शिकायत करें वे भला,
शत्रु भी शत्रुता अब निभाते नहीं |

वक्त ने इस तरह से सताया 'तुका'
अश्रु आते नहीं मुस्कराते नहीं|

Wednesday, June 26, 2013

परायी पीर का जिसने ज़रा अनुभव किया होगा,
सरे बाज़ार में उसने दमन का विष पिया होगा|

नहीं वो दूर रह सकता कभी सद्भावनाओं से,
स्वजीवन शायरों जैसा स्वतः जिसने जिया होगा|

जमाने में जिसे इन्सान का दर्जा मिला उसने,
किसी के प्राण लेने को नहीं खंजर लिया होगा|

जिसे कर्तव्य मानव के पता हैं वह किसी की भी,
मलिनता दूर करने को खड़ा एलानिया होगा|

जहाँ में प्यार की खुशबू लुटाता जो चला आया,
समझिये आदमी वो एशियाई पूर्विया होगा| 

यही पहचान है कवि की 'तुका' मत भूल जाना ये,
गरल पीकर ज़माने को दिया ज्योतित दिया होगा|

Sunday, June 23, 2013

पहले कलुष भावना उर से, बाहर करिये आप|
तभी समझोगे पर संताप|
तभी समझोगे पर संताप||

सदाचार के हेतु ह्रदय को, निर्मल रखना होगा|
कहते जो शत प्रतिशत उसको, पालन करना होगा||
अपने सुख के लिए करोगे, जब तुम नहीं विलाप|
तभी समझोगे पर संताप|
तभी समझोगे पर संताप|| 

ज्यों मन को धन शक्ति सर्वथा, शान्ति नहीं देती है|
त्यों न वदन को स्वस्थ्य बनाती, लोभ मोह खेती है||
नैतिक नियमों से समाज का, जब कि करोगे माप| 
तभी समझोगे पर संताप|
तभी समझोगे पर संताप|| 

परहित में अर्पित रहने से, शाश्वत सुख मिलता है|
शूलों बीच फूल जो पलता, वो कितना खिलता है?
जब विवेक से परखा जाये, क्या होता है पाप?
तभी समझोगे पर संताप|
तभी समझोगे पर संताप|
खो गया संसार में नैतिक ह्रदय पावन कहाँ?
साफ हैं लेकिन सुहावन आधुनिक आनन कहाँ?

नागरिक नेतृत्व जिसका आचरण से मान लें,
राष्ट्र जीवन में रहा वो स्वच्छ सञ्चालन कहाँ?

चित्त की चंचल तरंगें शान्त जो करता रहा,
आज उस संगीत के सौंदर्य का गायन कहाँ?

देखते ही शीघ्र जिसको मुस्कराये आदमी,
आज अपने बीच में वो प्रेम अभिवादन कहाँ?

क्यों न हो हुड़दंगियों का बोलवाला देश में,
राजनैतिक हस्तियों में उच्च अनुशासन कहाँ?

लोकतांत्रिक सोच से नियमावली जो है बनी,
हो रहा उसका यहाँ सम्मान अनुपालन कहाँ? 

काव्य के परिवेश से उपजी 'तुका' चिंता यही, 
भावनाओं से भरा सहकार अपनापन कहाँ?

Monday, June 17, 2013

अपराधी बेख़ौफ़ नगर में नगरी में,
मारे जाते लोग बहुत से तफरी में||

जो होती अनुभूति दरी में कथरी में,
मिलता वो आनंद मिर्च में मिसरी में|

आकर यों हम लोग यहाँ पर बैठे ज्यों,
करते पंच विचार गाँव की बखरी में|

सामाजिकता हेतु जानना ही होगा,
क्यों होता है भेद सलोनी सवरी में?

पंचसितारा होटल के मधुभोजन से, 
ज्यादा मिलता तोष तुम्हारी तहरी में|

बीस हजारी शूट पहनने से ज्यादा,
खिल जाता व्यक्तित्व तुका तो सदरी में|
क्रूरों का जब साथ निभाने, लगे लोक सरकार|
रुके तब कैसे अत्याचार||
रुके तब कैसे अत्याचार|||

जब कानून व्यवस्था रोये, शासक निज विवेक जब खोये,
पैर पसार ओढ़कर चादर, जब धर्माचारी भी सोये |
सांप्रदायिक ज्वाला में जब, जलते घर- परिवार|
रुके तब कैसे अत्याचार||
रुके तब कैसे अत्याचार|||

जब कि अर्थ बन जाये स्वामी, संरक्षक हो जाये कामी,
सदाचार को कदाचार की, डर कर करनी पड़े गुलामी|
जन रक्षक जब भक्षक बनकर, करता भ्रष्टाचार |
रुके तब कैसे अत्याचार||
रुके तब कैसे अत्याचार|||

जब भूखे को मिले न रोटी, वोट-बैंक हो दाढ़ी-चोटी,
जब पुत्रों के आगे कटने, लगे पिता-माता की बोटी|
धनपशु जब करने लगते हैं, नारी का व्यापार|
रुके तब कैसे अत्याचार||
रुके तब कैसे अत्याचार|||

Thursday, June 6, 2013



हमें मालूम है सत्ता तुम्हारे पैर की दासी|
जिसे आदेश देती आ रही है आदि से काशी||

तुम्हें हर हाल में अज्ञानियों से संधि करनी है,
अनैतिक कारनामों से तिजोरी खूब भरनी है|
तुम्हारी वो चतुर माँ -सी सिखाती लूट बदमासी,
हमें मालूम है सत्ता तुम्हारे पैर की दासी|
जिसे आदेश देती आ रही है आदि से काशी||

भरे बाजार में हरदम तुम्हारा ढोल बजता है,
गुजरते हो जहाँ से स्वर्ग-सा वो मार्ग सजता है|
तुम्हें सम्मान देने को खड़े रहते मधुरभाषी|
हमें मालूम है सत्ता तुम्हारे पैर की दासी|
जिसे आदेश देती आ रही है आदि से काशी||

तुम्हारे पास में संभव नहीं है संत का जाना,
नई तकनीक धागों से बुना ताना तथा बाना|
तुम्हे घेरे सदा रहते सहस्रों स्वार्थ अभिलाषी,
हमें मालूम है सत्ता तुम्हारे पैर की दासी|
जिसे आदेश देती आ रही है आदि से काशी||

Monday, June 3, 2013

ठग विद्या के अभियानों से शैक्षिक दीप जलाने की, 
बंधु! प्रतीक्षा अभी हो रही पय की नदी बहाने की|

सीधे- साधे इंसानों से जय- जयकार कराने की, 
धर्म और कुछ नहीं नसैनी है सत्ता हथियाने की|

कोई उनसे क्यों टकराये जिन्हें प्रदर्शन प्यारा हो,
सत्ता आखिर आदत छोड़े कैसे रौब दिखाने की?

सरकारी व्यवहार देखिये शोध परक सच्चाई का,
खूब नई तरकीब चली कागज़ पर पेड़ उगाने की|

उसकी कहाँ जुगाड़ नहीं है सत्ता के गलियारे में,
जिसने सीखी कला अनोखी पीने और पिलाने की|

राजनीति की चाल यहीं है 'तुका' गरीबों के हित में,
कुछ नीचे लाओ फिर सोचो नभ की ओर उठाने की|

Saturday, June 1, 2013

जुदाई की कमाई को कहा जाता तन्हाई है|
मगर सहयोगियों ने भी दिखाई बेबफाई है||

बिना परखे भरोसे के मिले अंजाम तो देखो,
तुम्हारे कारनामों ने तुम्हारी की धुनाई है|

शिकायत क्यों कहीं अपराध की कोई सुने बोलो, 
तुम्हीं ने दी उन्हें अपराधियों की रहनुमाई है?

मिटाये जुल्म जो बेख़ौफ़ होकर राष्ट्र-आँगन से, 
बताओ आजकल होती कहाँ ऐसी पढ़ाई है?

स्वतः पहचान अपनी जाति-धर्मों से कराने को,
उन्होंने बाँध ली रंगीन धागों से कलाई है|

भलाई को भलाई जो बुराई को बुरा कहता,
उसी की तो 'तुका' होती यहाँ पर जग हँसाई है|

Friday, May 31, 2013

अब अशेष सासें कर दी हैं, कविता को कुर्बान|
हमारी बस इतनी पहचान||
हमारी बस इतनी पहचान|||

काव्य-कर्म की महिमा गाना, शब्दों का भण्डार बढ़ाना,
साहित्यिक -अनुशासन द्वारा, जीवन का उद्देश्य बताना|
इन्सानों की जटिल ज़िन्दगी, करनी है आसान| 
हमारी बस इतनी पहचान||
हमारी बस इतनी पहचान|||

पीड़ित की आवाज़ उठाना, सुप्त चेतना शक्ति जगाना,
वर्तमान को सजा-धजा के, कुछ भविष्य संपन्न बनाना| 
नैतिक मूल्यों के प्रसार का, थाम लिया अभियान|
हमारी बस इतनी पहचान||
हमारी बस इतनी पहचान||| 

पंचशील का स्वस्थ करीना, लोकतांत्रिक जीवन जीना,
उसको मुख्य धार में लायें, जिसे ज्ञात बस खाना -पीना|
करें लोकशाही विचार का, प्रिय! आदान -प्रदान| 
हमारी बस इतनी पहचान||
हमारी बस इतनी पहचान|||

Wednesday, May 29, 2013

किया किसी ने सवाल कैसा?
मचा ह्रदय में बवाल कैसा?

सुप्रेरणा की जब याद आयी,
तभी दृगों में बरसात छायी,
लगी सताने अनुभूति पीड़ा --
करीब कैसे फिर खींच लायी?
अधीर आनन प्रबाल कैसा?
मचा ह्रदय में बवाल कैसा?

अजीब हालात रहे हमेशा,
परार्थ प्रेमी युगबोध पेशा, 
सुकर्म पाया पढ़ना पढ़ाना-
लगा इसी में मनप्राण रेशा|
किया कला ने कमाल कैसा?
मचा ह्रदय में बवाल कैसा?

नहीं छिपाये छिपती कहानी,
लड़ी दुखों से डटके जवानी,
स्वभाव क्रोधी पर मित्र कोई -
कही न झूठी अपमान वाणी| 
मिला सुदर्शन विशाल कैसा? 
मचा ह्रदय में बवाल कैसा?
कवि जीवन मार्ग प्रेणता, होता पावन व्रतधारी|
अगुवाई कर कविता ने, मानव तस्वीर सँवारी||

जब कविता की क्षमता को, इन्सान समझने लगते,
सिंहासन हिल जाते हैं, सम्राट विलखने लगते|
स्वर-वर्णों की ज्वाला में, जल जाते अत्याचारी|
अगुवाई कर कविता ने, मानव तस्वीर सँवारी|||

अनुबंध किया कविता से, तो सविता बनकर चमको,
घर-आँगन गाँव-शहर क्या, अब दुनिया भर में गमको|
शुचि नैसर्गिक नियमों के, सर्जक सच्चे अधिकारी|
अगुवाई कर कविता ने, मानव तस्वीर सँवारी|||

अवनति उन्नति का क्रम तो, परिवर्तन का हिस्सा है,
रवि उगे न डूबे ज्यों, त्यों, कवि स्वर शाश्वत किस्सा है| 
सामाजिक मूल्य विधाता, अनुशासन धर्म प्रभारी|
अगुवाई कर कविता ने, मानव तस्वीर सँवारी||
धोखा देने वाले बोलो, कितने धोखे दोगे|
कितना और गिरोगे आखिर, कितना और गिरोगे?

आदिकाल से राजतन्त्र ने, प्यार किया शैतान को|
अनदेखी विपदा के भय से, पूजा है अज्ञान को||
ठग आरे से हरिश्चन्द्र-सा, कितना और चिरोगे? 
कितना और गिरोगे आखिर, कितना और गिरोगे?

जय-जयकार किया करते जो, समझो उन्हें न मित्र हैं|
चाटुकारियों के कोई भी, होते नहीं चरित्र हैं||
लगुओ-भगुओं के घेरे में , कितना और घिरोगे?
कितना और गिरोगे आखिर, कितना और गिरोगे?

गाँव-नगर की गलियों-गलियों, चौराहों बाजार में|
भूखी-प्यासी जनता राहें, रोक रही प्रतिकार में||
सोचो छिपने हेतु फिरोगे, कितना और फिरोगे?
कितना और गिरोगे आखिर, कितना और गिरोगे?

Tuesday, May 21, 2013

मत कहो संसार में सब बेसबब होता रहा,
बस इसी विश्वास से अधिकार जन खोता रहा|

भाग्य की सारी कहानी लूटवादी कल्पना,
इस प्रखर पाखण्ड से बोझा ह्रदय ढोता रहा|

क्यों नहीं वंचित रहेगा वो सफल आयाम से, 
मौज रूपी विस्तरे पर जो पड़ा सोता रहा|

ज़िन्दगी की डोर जिसने आप ही थामी नहीं,
वो गुलामों की तरह चुपचाप बस रोता रहा|

फल मधुर उसके पसीना से यहाँ फलते रहे,
बीज जो परमार्थ के निष्पृह यहाँ बोता रहा|

हाथ उसके शुद्ध मोती खोज लेते हैं 'तुका',
शब्द सागर में लगाता जो ह्रदय गोता रहा|

Friday, May 17, 2013

अपने पर जो किये भरोसा, वही जगत के नूर बने|
उनके कार्यकलाप अनोखे, सामाजिक दस्तूर बने||

कवि कहते उन्मुक्त भाव से, समझी परखी बात सही,
इन्सानों की आदिकाल से, सर्जनात्मक सोच रही|
जिन लोगों को प्यार विश्व से, दस्तकार मजदूर बने|
उनके कार्यकलाप अनोखे, सामाजिक दस्तूर बने||

छिपी नहीं यह बात किसी से, बिना त्याग के प्यार नहीं,
परपीड़ा से व्यथित न जो हों, उनमें उच्च विचार नहीं |
परहित जो मजबूर बने वे, दुनिया में मशहूर बने|
उनके कार्यकलाप अनोखे, सामाजिक दस्तूर बने||

असमंजस से भरी ज़िन्दगी, समझो भारी बोझ बनी,
उसके दैनंदन कृत्यों में, हरदम रहती तना- तनी|
पर जो अवरोधों से लड़ते, वे सब सफल जरूर बने|
उनके कार्यकलाप अनोखे, सामाजिक दस्तूर बने||

Saturday, May 11, 2013

कवि ने लिखी सुनायी सबको, महिमा परिवर्तन की|
जिसके कारण आज बज रही, मुरली जन वन्दन की||

एक समय था जब इंसा को, नहीं सुलभ थी रोटी,
और अकारण दूर- दूर थी, लम्बी दाढ़ी- चोटी|
इन हालातों में  बिखेर दी, सरस महक चन्दन की|
जिसके कारण आज बज रही, मुरली जन वन्दन की|| 

युग प्रबोध के गीत छंद से, सुप्त चेतना जागी,
लोकतंत्र ने बना दिया है, अंतर मन अनुरागी|
अब पैरों में नहीं किसी ने, साँकल जड़ बंधन की|
जिसके कारण आज बज रही, मुरली जन वन्दन की||

अधिकारों की बात हो रही, नारी की आज़ादी,
वृद्धों को सम्मान मिल रहा, खुश हैं दादा-दादी |
खड़ी प्रतीक्षारत स्वागत में, प्रतिभा संवर्धन की|
जिसके कारण आज बज रही, मुरली जन वन्दन की||

युवक युवतियों के हाथों ने, ले ली प्रगति मशालें,
हारे- थके बोझे के मारे, जो हैं उन्हें सँभालें|
संविधान की गौरव गाथा, जय मानव दर्शन की|
जिसके कारण आज बज रही, मुरली जन वन्दन की||

Thursday, May 2, 2013

जाति-वर्ग का मीत नहीं हूँ, इंसानों का गीत हूँ|
जो बिखेरता शील सरसता, वो सजीव संगीत हूँ||

कवि ने वही बनायी राहें, जिनमे चैन पा सकें आहें,
हारे-थके हुए को हँस के, गले लगाती स्नेहल बाहें|
अपने और परायेपन के, चिंतन के विपरीत हूँ|
जो बिखेरता शील सरसता, वो सजीव संगीत हूँ||

मानवता की यही कहानी, नहीं आचरण हो अभिमानी,
सर्जनात्मकता की लय से, जन-मन हो ज्ञानी-विज्ञानी|
इसी सोच से पल जीवन के, करता रहा व्यतीत हूँ|
जो बिखेरता शील सरसता, वो सजीव संगीत हूँ||

शब्द-अर्थ का मेल बढ़ाता, जग संवेदन शील बनाता, 
आँखों देखी समझी परखी, घटनाओं से बोध जगाता|
दहशतगर्दों के कृत्यों से, रहा नहीं भयभीत हूँ|
जो बिखेरता शील सरसता, वो सजीव संगीत हूँ||

Sunday, April 28, 2013

आसुओं के सिवा जो दिया आपने,
आज वापस उसे ले लिया आपने |

संत चुपचाप विषपान करता रहा,
और अमरत्व सागर पिया आपने|

नालियों में पड़े लोग सड़ते रहे,
क्या यही देखने को जिया आपने?

लाश की भाँति ढोनी पड़ी ज़िन्दगी,
जुल्म क्यों ये भयानक किया आपने?

खोजते- खोजते बंद आँखे हुई,
पर बताया न अपना ठिया आपने|

बात कैसे 'तुका' यह सही मान ले,
कुछ बनाये छली माफिया आपने?

Friday, April 26, 2013

कवि जीवन मार्ग प्रेणता, होता पावन व्रतधारी|
अगुवाई कर कविता ने, मानव तस्वीर संवारी||

जब कविता की क्षमता को,इन्सान समझने लगते,
सिंहासन हिल जाते हैं, सम्राट विलाखने लगते|
स्वर-वर्णों की ज्वाला में, जल जाते अत्याचारी|
अगुवाई कर कविता ने, मानव तस्वीर संवारी||

अनुबंध किया कविता से, तो सविता बनकर चमको,
घर-आँगन गाँव-शहर क्या, अब दुनिया भर में गमको|
शुचि नैसर्गिक नियमों के, सर्जक सच्चे अधिकारी|
अगुवाई कर कविता ने, मानव तस्वीर संवारी||

अवनति उन्नति का क्रम तो, परिवर्तन का हिस्सा है,
रवि उगे न डूबे ज्यों, त्यों, कवि स्वर शाश्वत किस्सा है| 
सामाजिक मूल्य विधाता, अनुशासन धर्म प्रभारी|
अगुवाई कर कविता ने, मानव तस्वीर संवारी||

Thursday, April 11, 2013

कुबेरों की गरीबी का जिसे अहसास हो जाता|
फकीरी ज़िन्दगी क्या है उसे आभास हो जाता||

सहस्रों वेदनाओं से, कभी विचलित न वो होता,
अभावों बीच रहने का जिसे अभ्यास हो जाता|

जहाँ पतझर दिखाता है प्रकृति के बीच मायूसी,
वहाँ दो चार दिन के बाद ही मधुमास हो जाता|

उसी के स्वप्न सब साकार होते हैं जमाने में,
जिसे अपने इरादों पर सहज विश्वास हो जाता|

जिन्हें परमार्थ करने में सरस आनंद आता है,
समझिये दूर उनसे तो विकट संत्रास हो जाता|

किसी के रोकने से क्या भला न्यायी कभी रुकता,
कभी सुकरात बन जाता कभी रविदास हो जाता|

नयी पहचान जीवन में अनोखा मर्तबा मिलता,
'तुका' साहित्य सर्जक तो जगत इतिहास हो जाता|

Tuesday, April 9, 2013

अधिवक्ता बन गई व्यवस्था, डाकू चोर लुटेरों की|
कोई नहीं वेदना कहता, भूखे श्रमण कमरों की||

साहित्यिक मर्यादा ने भी, अपनी राह बदल डाली,
जिनका चर्चा नगरों-नगरों, वे सब है नय से खाली|
इन्सानों को मिली बेड़ियाँ, सत्ता शक्ति सपेरों को|
कोई नहीं वेदना कहता, भूखे श्रमण कमरों की||

भरा राजनैतिक गलियारा, जाति-वर्ग के ढोरों से,
सहमी- सहमी सत्ता रहती, आतंकी सह्जोरों से |
लगी कतारें लंबी- लंबी, चमचों की मौसेरों की |
कोई नहीं वेदना कहता, भूखे श्रमण कमरों की||

नगरों की रंगत में भूले, गाँवों का अंधियारा,
हड़प रहे हैं ठग्गू दादा, जन-मन का हक सारा|
लिखी जा रही नई कहानी,अब तो नये कुबेरों की|
कोई नहीं वेदना कहता,भूखे श्रमण कमरों की||

सिखा रही अश्लील नग्नता, जननी ही औलादों को,
सदा मारती रहती ताने, दादों को परदादों को |
यहाँ उड़ाई जाती खिल्ली, ज्ञानी संत फकीरों की|
कोई नहीं वेदना कहता,भूखे श्रमण कमरों की||

Friday, April 5, 2013

कुछ दिन के उपरान्त यहाँ से जाना है;
जब तक जीवन श्वास हमें तो गाना है|

यह अपना वह गैर नहीं यह चिंतन में,
सबको अपनी भाँति सहज अपनाना है|

जिसमें हो अधिकार बात को कहने का,
बतलाओ वह दोस्त कहाँ पर थाना है?

क्यों सहोदरों से नहीं हमारे रिश्ते जब,
सब उसकी संतान सभी ने माना है ?

जनहित में उद्घोष काव्य -मर्यादा से, 
साहित्यिक संग्राम 'तुका' ने ठाना है|

Wednesday, March 27, 2013

एक मंथन गीत:-

शब्द-जाल है यति है गति है, पर उसमे सदभाव कहाँ?
काव्य-धर्म पालन करने का, चला गया प्रस्ताव कहाँ?

कौन जानता नहीं अर्थ का, अंतर अम्बल होता है,
पर सदियों के हेतु काव्य तो, जीवन-संबल होता है|
शब्द- शक्ति संवर्धन वाणी, रखती है अलगाव कहाँ?
काव्य-धर्म पालन करने का, चला गया प्रस्ताव कहाँ?

जब तक लिखो-पढ़ोगे मित्रो!, पूर्वाग्रह के ग्रंथों को,
तब तक नहीं बना सकते हो, मानवता के पंथों को|
बँटवारे का लेखन सोचो, कम कर सका तनाव कहाँ?
काव्य-धर्म पालन करने का, चला गया प्रस्ताव कहाँ?

वक्त कह रहा जग मानव को, मानव-सा अपनाओ भी,
नैसर्गिक सुषमा की रक्षा, करने को डट जाओ भी |
कवि के मन में किसी तरह का,घर कर सका दुराव कहाँ? 
काव्य-धर्म पालन करने का, चला गया प्रस्ताव कहाँ?

Tuesday, March 26, 2013

छूटे नहीं छुड़ाने से जो, और चमकता जाये|
ऐसे रंगों को ले करके, कोई आगे आये ||

जिये सदा जन-मन का होके, बढ़ते कदाचार को रोके,
जिसके दैनिक व्यवहारों से, अनुभव हों बयार के झोके|
जिसकी कथनी राष्ट्र-दृगों को, करनी में दर्शाये , 
ऐसे रंगों को ले करके, कोई आगे आये ||

सच से कभी न आँखें मींचे, नई पौध को रौपे सींचे, 
बुद्धि-विवेक युक्त बाहों से, प्रगति चक्र जो आगे खींचे|
पंचशील की क्षमताओं से, भेदभाव दफनाये|
ऐसे रंगों को ले करके, कोई आगे आये ||

हम भारत के लोग हमारा, जीवन लक्ष्य मनोरम न्यारा,
जिसको मानव में दिखता हो, मानव दर्शन चिंतन प्यारा|
सुख -समृद्धि का न्याय तिरंगा, जो नभ में फहराये|
ऐसे रंगों को ले करके, कोई आगे आये ||

Sunday, March 24, 2013

घिनौनी सोच से अक्सर मनाना चाहते होली|
सुना है सरहदों ऊपर मनाना चाहते होली||

मिलावटखोर हिलमिलकर मनाना चाहते होली,
गरल को बेचकर विषधर मनाना चाहते होली|

दरिंदे राजनैतिक हस्तियों की चौधराहट में,
गिराकर धर्म के पत्थर मनाना चाहते होली |

कुचलते आ रहे हैं मानवीयत जो युगों से वे,
पकड़कर न्याय का कालर मनाना चाहते होली|

उन्हें साम्राज्य वैभव का बढ़ाना है बढ़ाना है,
जलाकर घाष वाले घर मनाना चाहते होली|

तुम्हें उनसे सजग रहना यहाँ होगा हमेशा जो,
छिपाकर बाह में खंजर मनाना चाहते होली|

सराहा जा नहीं सकता 'तुका' ऐसे इरादे को,
दिलों के बीच हो अंतर मनाना चाहते होली|

Monday, March 18, 2013


बम किसी ओर धर के चले जाइये|
जोर का शोर करके चले जाइये||

छूट है लूटिये लोक भण्डार को,
फूल फल झोर कर के चले जाइये|

कौन क्या कर सकेगा बड़े लाल का,
न्याय को रौंद कर के चले जाइये|

शक्ति की डोर तो हाथ में आ चुकी ,
राष्ट्र कमजोर करके चले जाइये|

धर्म का आशियाना सुरक्षित सदा , 
पाप घनघोर करके चले जाइये|

स्वर्ग का नर्क का खौफ कैसा 'तुका',
ज़िन्दगी ढोर करके चले जाइये|