जीवन गीत:-
ज्ञान रौशनी देने वाली, दिखती आज निगाह नहीं है|
अर्थतंत्र में फँसी ज़िन्दगी, तर्क विवेकी चाह नहीं है||
अंधकार में दीप जगाना, कभी हमारा चिंतन था,
उच्च सोच थी मानववादी, कहीं न झूठा बंधन था|
आज स्वतंत्र लोकशाही है, लोक समर्थक राह नहीं है|
अर्थतंत्र में फँसी ज़िन्दगी, तर्क विवेकी चाह नहीं है||
शिक्षा ऊपर ताले डाले, हर प्रकार अज्ञान बढ़ा,
जो परार्थ जीते-मरते थे, उनपर स्वार्थी रंग चढ़ा|
लालच के सागर की पायी, खोजी ने भी थाह नहीं है|
अर्थतंत्र में फँसी ज़िन्दगी, तर्क विवेकी चाह नहीं है||
आपस में छीना-झपटी का, दौर चलाया मनमाना,
देता है इतिहास गवाही, हुआ सहोदर अनजाना|
अपने और परायेपन को, भाती उचित सलाह नहीं है|
अर्थतंत्र में फँसी ज़िन्दगी, तर्क विवेकी चाह नहीं है||
यह छोटी सी बात समझना, सबके लिए जरूरी है|
प्रगति पगों के आगे ठहरी, कभी नहीं मजबूरी है||
जीवन गीत नहीं वो जिसमें, होता मुक्त प्रवाह नहीं है|
अर्थतंत्र में फँसी ज़िन्दगी, तर्क विवेकी चाह नहीं है||
ज्ञान रौशनी देने वाली, दिखती आज निगाह नहीं है|
अर्थतंत्र में फँसी ज़िन्दगी, तर्क विवेकी चाह नहीं है||
अंधकार में दीप जगाना, कभी हमारा चिंतन था,
उच्च सोच थी मानववादी, कहीं न झूठा बंधन था|
आज स्वतंत्र लोकशाही है, लोक समर्थक राह नहीं है|
अर्थतंत्र में फँसी ज़िन्दगी, तर्क विवेकी चाह नहीं है||
शिक्षा ऊपर ताले डाले, हर प्रकार अज्ञान बढ़ा,
जो परार्थ जीते-मरते थे, उनपर स्वार्थी रंग चढ़ा|
लालच के सागर की पायी, खोजी ने भी थाह नहीं है|
अर्थतंत्र में फँसी ज़िन्दगी, तर्क विवेकी चाह नहीं है||
आपस में छीना-झपटी का, दौर चलाया मनमाना,
देता है इतिहास गवाही, हुआ सहोदर अनजाना|
अपने और परायेपन को, भाती उचित सलाह नहीं है|
अर्थतंत्र में फँसी ज़िन्दगी, तर्क विवेकी चाह नहीं है||
यह छोटी सी बात समझना, सबके लिए जरूरी है|
प्रगति पगों के आगे ठहरी, कभी नहीं मजबूरी है||
जीवन गीत नहीं वो जिसमें, होता मुक्त प्रवाह नहीं है|
अर्थतंत्र में फँसी ज़िन्दगी, तर्क विवेकी चाह नहीं है||
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