Wednesday, June 26, 2013

परायी पीर का जिसने ज़रा अनुभव किया होगा,
सरे बाज़ार में उसने दमन का विष पिया होगा|

नहीं वो दूर रह सकता कभी सद्भावनाओं से,
स्वजीवन शायरों जैसा स्वतः जिसने जिया होगा|

जमाने में जिसे इन्सान का दर्जा मिला उसने,
किसी के प्राण लेने को नहीं खंजर लिया होगा|

जिसे कर्तव्य मानव के पता हैं वह किसी की भी,
मलिनता दूर करने को खड़ा एलानिया होगा|

जहाँ में प्यार की खुशबू लुटाता जो चला आया,
समझिये आदमी वो एशियाई पूर्विया होगा| 

यही पहचान है कवि की 'तुका' मत भूल जाना ये,
गरल पीकर ज़माने को दिया ज्योतित दिया होगा|

Sunday, June 23, 2013

पहले कलुष भावना उर से, बाहर करिये आप|
तभी समझोगे पर संताप|
तभी समझोगे पर संताप||

सदाचार के हेतु ह्रदय को, निर्मल रखना होगा|
कहते जो शत प्रतिशत उसको, पालन करना होगा||
अपने सुख के लिए करोगे, जब तुम नहीं विलाप|
तभी समझोगे पर संताप|
तभी समझोगे पर संताप|| 

ज्यों मन को धन शक्ति सर्वथा, शान्ति नहीं देती है|
त्यों न वदन को स्वस्थ्य बनाती, लोभ मोह खेती है||
नैतिक नियमों से समाज का, जब कि करोगे माप| 
तभी समझोगे पर संताप|
तभी समझोगे पर संताप|| 

परहित में अर्पित रहने से, शाश्वत सुख मिलता है|
शूलों बीच फूल जो पलता, वो कितना खिलता है?
जब विवेक से परखा जाये, क्या होता है पाप?
तभी समझोगे पर संताप|
तभी समझोगे पर संताप|
खो गया संसार में नैतिक ह्रदय पावन कहाँ?
साफ हैं लेकिन सुहावन आधुनिक आनन कहाँ?

नागरिक नेतृत्व जिसका आचरण से मान लें,
राष्ट्र जीवन में रहा वो स्वच्छ सञ्चालन कहाँ?

चित्त की चंचल तरंगें शान्त जो करता रहा,
आज उस संगीत के सौंदर्य का गायन कहाँ?

देखते ही शीघ्र जिसको मुस्कराये आदमी,
आज अपने बीच में वो प्रेम अभिवादन कहाँ?

क्यों न हो हुड़दंगियों का बोलवाला देश में,
राजनैतिक हस्तियों में उच्च अनुशासन कहाँ?

लोकतांत्रिक सोच से नियमावली जो है बनी,
हो रहा उसका यहाँ सम्मान अनुपालन कहाँ? 

काव्य के परिवेश से उपजी 'तुका' चिंता यही, 
भावनाओं से भरा सहकार अपनापन कहाँ?

Monday, June 17, 2013

अपराधी बेख़ौफ़ नगर में नगरी में,
मारे जाते लोग बहुत से तफरी में||

जो होती अनुभूति दरी में कथरी में,
मिलता वो आनंद मिर्च में मिसरी में|

आकर यों हम लोग यहाँ पर बैठे ज्यों,
करते पंच विचार गाँव की बखरी में|

सामाजिकता हेतु जानना ही होगा,
क्यों होता है भेद सलोनी सवरी में?

पंचसितारा होटल के मधुभोजन से, 
ज्यादा मिलता तोष तुम्हारी तहरी में|

बीस हजारी शूट पहनने से ज्यादा,
खिल जाता व्यक्तित्व तुका तो सदरी में|
क्रूरों का जब साथ निभाने, लगे लोक सरकार|
रुके तब कैसे अत्याचार||
रुके तब कैसे अत्याचार|||

जब कानून व्यवस्था रोये, शासक निज विवेक जब खोये,
पैर पसार ओढ़कर चादर, जब धर्माचारी भी सोये |
सांप्रदायिक ज्वाला में जब, जलते घर- परिवार|
रुके तब कैसे अत्याचार||
रुके तब कैसे अत्याचार|||

जब कि अर्थ बन जाये स्वामी, संरक्षक हो जाये कामी,
सदाचार को कदाचार की, डर कर करनी पड़े गुलामी|
जन रक्षक जब भक्षक बनकर, करता भ्रष्टाचार |
रुके तब कैसे अत्याचार||
रुके तब कैसे अत्याचार|||

जब भूखे को मिले न रोटी, वोट-बैंक हो दाढ़ी-चोटी,
जब पुत्रों के आगे कटने, लगे पिता-माता की बोटी|
धनपशु जब करने लगते हैं, नारी का व्यापार|
रुके तब कैसे अत्याचार||
रुके तब कैसे अत्याचार|||

Thursday, June 6, 2013



हमें मालूम है सत्ता तुम्हारे पैर की दासी|
जिसे आदेश देती आ रही है आदि से काशी||

तुम्हें हर हाल में अज्ञानियों से संधि करनी है,
अनैतिक कारनामों से तिजोरी खूब भरनी है|
तुम्हारी वो चतुर माँ -सी सिखाती लूट बदमासी,
हमें मालूम है सत्ता तुम्हारे पैर की दासी|
जिसे आदेश देती आ रही है आदि से काशी||

भरे बाजार में हरदम तुम्हारा ढोल बजता है,
गुजरते हो जहाँ से स्वर्ग-सा वो मार्ग सजता है|
तुम्हें सम्मान देने को खड़े रहते मधुरभाषी|
हमें मालूम है सत्ता तुम्हारे पैर की दासी|
जिसे आदेश देती आ रही है आदि से काशी||

तुम्हारे पास में संभव नहीं है संत का जाना,
नई तकनीक धागों से बुना ताना तथा बाना|
तुम्हे घेरे सदा रहते सहस्रों स्वार्थ अभिलाषी,
हमें मालूम है सत्ता तुम्हारे पैर की दासी|
जिसे आदेश देती आ रही है आदि से काशी||

Monday, June 3, 2013

ठग विद्या के अभियानों से शैक्षिक दीप जलाने की, 
बंधु! प्रतीक्षा अभी हो रही पय की नदी बहाने की|

सीधे- साधे इंसानों से जय- जयकार कराने की, 
धर्म और कुछ नहीं नसैनी है सत्ता हथियाने की|

कोई उनसे क्यों टकराये जिन्हें प्रदर्शन प्यारा हो,
सत्ता आखिर आदत छोड़े कैसे रौब दिखाने की?

सरकारी व्यवहार देखिये शोध परक सच्चाई का,
खूब नई तरकीब चली कागज़ पर पेड़ उगाने की|

उसकी कहाँ जुगाड़ नहीं है सत्ता के गलियारे में,
जिसने सीखी कला अनोखी पीने और पिलाने की|

राजनीति की चाल यहीं है 'तुका' गरीबों के हित में,
कुछ नीचे लाओ फिर सोचो नभ की ओर उठाने की|

Saturday, June 1, 2013

जुदाई की कमाई को कहा जाता तन्हाई है|
मगर सहयोगियों ने भी दिखाई बेबफाई है||

बिना परखे भरोसे के मिले अंजाम तो देखो,
तुम्हारे कारनामों ने तुम्हारी की धुनाई है|

शिकायत क्यों कहीं अपराध की कोई सुने बोलो, 
तुम्हीं ने दी उन्हें अपराधियों की रहनुमाई है?

मिटाये जुल्म जो बेख़ौफ़ होकर राष्ट्र-आँगन से, 
बताओ आजकल होती कहाँ ऐसी पढ़ाई है?

स्वतः पहचान अपनी जाति-धर्मों से कराने को,
उन्होंने बाँध ली रंगीन धागों से कलाई है|

भलाई को भलाई जो बुराई को बुरा कहता,
उसी की तो 'तुका' होती यहाँ पर जग हँसाई है|