जातियां होती नहीं इनको नकार दो,
आदमी को आदमीयत से सवांर दो,
थाम ली है जब कलम कवि के स्वरूप में -
तो सभी को आप अपनों सा दुलार दो |
Saturday, November 27, 2010
Friday, November 19, 2010
धूर्त का
भूभल ऊपर जिनके तलवे किंचित नहीं जले,
दुर्गम पथ पर शूल न आये जिनके पांव तले,
वे जीवन की सच्चाई को कैसे जानेंगे -
जिनके हाथ-पैर पानी में रहकर नहीं गले,|
धूर्त का हर हाल में प्रतिरोध होना चाहिए ,
धर्म के परिक्षेत्र का भी बोध होना चाहिए,
शांति तो अनिवार्य है इंसानियत के मार्ग में-
किन्तु चोरों के कृतों पर क्रोध होना चाहिए|
दुर्गम पथ पर शूल न आये जिनके पांव तले,
वे जीवन की सच्चाई को कैसे जानेंगे -
जिनके हाथ-पैर पानी में रहकर नहीं गले,|
धूर्त का हर हाल में प्रतिरोध होना चाहिए ,
धर्म के परिक्षेत्र का भी बोध होना चाहिए,
शांति तो अनिवार्य है इंसानियत के मार्ग में-
किन्तु चोरों के कृतों पर क्रोध होना चाहिए|
Saturday, November 13, 2010
दो मुक्तक
स्नेह सिंचित जगत को वचन चाहिए |
अनुकरण के लिए आचरण चाहिए ||
शांत कर दे थकन जो मधुर पर्श से -
वह वदन को सरसतम`पवन चाहिए ||
जगमगाने लगे दीप विज्ञान के |
अब रहेंगे नहीं स्रोत अज्ञान के||
कह रही हर कली फूल भी पात भी -
हम सभी साथ हैं विश्व उत्थान के||
Sunday, November 7, 2010
Ashiyane prem ke
आशियाने प्रेम के सबको मिले नहीं
साठ वर्षों बाद भी गुलशन खिले नहीं
यत्न तो लाखों हुए लेकिन अभी तुका -
टूट पाये द्वेष-नफरत के किले नहीं
अर्थ की आंधियां तेज चलने लगीं
भूख से अर्थियाँ कुछ निकलने लगीं
सृष्टि का इस कदर तेज दोहन हुआ -
वक्त के पूर्व ऋतुएं बदलने लगीं
साठ वर्षों बाद भी गुलशन खिले नहीं
यत्न तो लाखों हुए लेकिन अभी तुका -
टूट पाये द्वेष-नफरत के किले नहीं
अर्थ की आंधियां तेज चलने लगीं
भूख से अर्थियाँ कुछ निकलने लगीं
सृष्टि का इस कदर तेज दोहन हुआ -
वक्त के पूर्व ऋतुएं बदलने लगीं
Saturday, November 6, 2010
Moolya iska naheen
मूल्य इसका नहीं लोग धनवान हैं
और बलवान विद्वान गुणवान हैं
मूल्य हैं लोग क्या ज्ञान धन शक्ति से
विश्व कल्याण के योग्य इन्सान हैं
और बलवान विद्वान गुणवान हैं
मूल्य हैं लोग क्या ज्ञान धन शक्ति से
विश्व कल्याण के योग्य इन्सान हैं
Ferj kavi ka
गीत बेखौफ गाता रहूँगा
फ़र्ज़ कवि का निभाता रहूँगा
कल न शायद रहूँ इस जहाँ में
पर तुम्हें याद आता रहूँगा
चेतना शून्य जो हो गए हैं
उन सभी को जगाता रहूँगा
भोग जिसका सभी कर सकें वो
फ़स्ल उन्नत उगाता रहूँगा
जी सके जो तुका सा उसे ही
संत जैसा बताता रहूँगा
फ़र्ज़ कवि का निभाता रहूँगा
कल न शायद रहूँ इस जहाँ में
पर तुम्हें याद आता रहूँगा
चेतना शून्य जो हो गए हैं
उन सभी को जगाता रहूँगा
भोग जिसका सभी कर सकें वो
फ़स्ल उन्नत उगाता रहूँगा
जी सके जो तुका सा उसे ही
संत जैसा बताता रहूँगा
Ferj kavi
गीत बेखौफ गाता रहूँगा
फ़र्ज़ कवि का निभाता रहूँगा
कल न शायद रहूँ इस जहाँ में
पर तुम्हें याद आता रहूँगा
चेतना शून्य जो हो गए हैं
उन सभी को जगाता रहूँगा
ये वदन जीर्द
फ़र्ज़ कवि का निभाता रहूँगा
कल न शायद रहूँ इस जहाँ में
पर तुम्हें याद आता रहूँगा
चेतना शून्य जो हो गए हैं
उन सभी को जगाता रहूँगा
ये वदन जीर्द
Friday, November 5, 2010
Thursday, November 4, 2010
savaiya
किस भाति जगे जन चेतनता इस हेतु विचार उभर सकूँउपलब्ध न भोजन बस्त्र जिन्हें उनकी विपदा परिहार सकूँ
कवि हूँ कविता बल से युग की छवि को कुछ और सुधार सकूँ
घर गाँव प्रदेश न मात्र स्वदेश सखी जग रूप सवांर सकूँ
अभिलाष अपूर्ण अभी अपना जग बीच न स्नेह बिखेर सका
नव ज्योति जिन्हें न मिली उनके हित ज्योतित मार्ग न हेर सका
धरती पर पीड़ित मानव के सिर ऊपर हाथ न फेर सका
युगबोध शिला पर जीवन की जन चेतनता न उकेर सका
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