Thursday, January 31, 2013

अपने-अपने हितवर्धन के,ढोल पीटना राग बजाना|
इस माहौल बीच क्या संभव,मानवता के सूत्र सुनाना?

निराधार अफवाह उड़ाना,अपनी खिचड़ी अलग पकाना,
जिन्हें सुहाता बैर बढ़ाना,सब काले व्यापार चलाना |
उनसे कुछ कहना यों मानों,ज्यों लोहे के चने चबाना|
इस माहौल बीच क्या संभव,मानवता के सूत्र सुनाना?

जिन्हें पेट की आग बुझाना,क्या मुश्किल उनको बहकाना?
ठग क्या जाने, क्या होता है,अपनी नज़रों में गिर जाना?
ठगुओं हेतु न्याय है यों ज्यों, गप से हलुवा- पूरी खाना |
इस माहौल बीच क्या संभव,मानवता के सूत्र सुनाना?

मर्यादा का ताना- बाना, इतना कसकर है उलझाना,
सुलझाने से सुलझ न पाये,क्योंकि उन्हें है रक्त बहाना|
आगे नाथ न पीछे पगहा,किनसे नैतिक धर्म निभाना?
इस माहौल बीच क्या संभव,मानवता के सूत्र सुनाना?

Wednesday, January 30, 2013



वे गुलामी के सबालों से नहीं उबरे|
आदमी जो धर्म तालों से नहीं उबरे||

ख्याल तो प्रत्येक के चिंतन-मनन को है,
क्यों व्यवस्थापक कुचालों से नहीं उबरे?

पत्थरों को तोड़ जिनका स्वेद है बहता,
वे अभी तक दो निवालों से नहीं उबरे|

बैंक भी है ए.टी.एम भी गाँव नगरों में,
किन्तु धनवाले हवालों से नहीं उबरे|

भाइयों का साथ उनको रास क्यों आये,
सालियों के मीत सालों से नहीं उबरे|

शब्द से साहित्य का पीयूष लेने में ,
किस तरह हों दक्ष व्यालों से नहीं उबरे|

सज्जनों के पग तुका पहुँचें वहाँ कैसे,
राजनैतिक दल दलालों से नहीं उबरे|
     

Sunday, January 27, 2013

दिन को दिन कहना जीवन में,जिसे रहा स्वीकार|
उसी ने जिया सत्य व्यवहार|| 
उसी ने किया सत्य व्यवहार||| 

मरुस्थलों को मैदानों को,शिखर वादियों तूफ़ानों को,
साम्य दृष्टि से रहा देखता,जो धरती के सब प्राणों को|
मौन पत्थरों के अंतर की, सुनता रहा पुकार| 
उसी ने जिया सत्य व्यवहार|| 
उसी ने जिया सत्य व्यवहार|||

रात-रात भर जगा न सोया,चकाचौंध में कभी न खोया,
शोध हेतु जो शाधक जैसा, बना विवेकी ज्ञान संजोया|
पतझर को वासंती -सी दी, समरस सुखद बयार|
उसी ने जिया सत्य व्यवहार| 
उसी ने जिया सत्य व्यवहार||

पर दुख में कर कभी न खींचे,शिवम पारखी नेत्र न मींचे,
वृक्ष लताएँ उर बागीचे,जीवन जल से अविरल सींचे |
बिका मुफ्त में सदा लुटाता, रहा सभी को प्यार |
उसी ने जिया सत्य व्यवहार|| 
उसी ने जिया सत्य व्यवहार|||

हरे चनों की हरियाली-सा,खिलती सरसों की डाली-सा,
पहली-फली फस्ल जब देखी,तब हँस पड़ा कृषक माली-सा|
जिसने पर उपकार हेतु निज, रक्त दिया उपहार| 
उसी ने जिया सत्य व्यवहार|| 
उसी ने जिया सत्य व्यवहार|||

Wednesday, January 23, 2013

पहले मानव मूल्य समझिये,फिर कविता लिखिये,
सत्य-झूठ में फर्क परखिये,फिर कविता लिखिये|

रूढ़ि प्रथा हो या कि कथा हो, इसके पालन के,
अपने आग्रह आप बदलिये,फिर कविता लिखिये|

शब्द साधना एक तपस्या, शोधन करने को , 
भाव सिंधु के बीच उतरिये,फिर कविता लिखिये|

इस धरती पर झेल रहे जो, पग-पग नित विपदा , 
उनकी पीड़ा देख तड़पिये, फिर कविता लिखिये|

सत्ता- शासन रूपी तरु के, मधु फल खाने को,
बानर जैसा नहीं लपकिये,फिर कविता लिखिये|

तुकाराम का कथन यही है,जन-मन के हित में,
पावन मेह समान बरसिये,फिर कविता लिखिये|

Monday, January 21, 2013

अपनी सोच नहीं कुछ जिनकी,उन्हें विविध सम्मान,
कहें वे सत्ता को रहमान|
कहें वे सत्ता को रहमान||

इधर-उधर की बातें करते,राजकोष की जेब कतरते,
कुछ टुकड़ों के लिए शीश को,ठगुओं के पैरों में धरते|
कलम थामकर जो विकास के,पथ के हैं व्यवधान,
कहें वे सत्ता को रहमान|
कहें वे सत्ता को रहमान||

कभी अर्थ की कभी व्यर्थ की,बहस चलाते हैं अनर्थ की,
कमजोरों के बने विरोधी,चाटुकार कतिपय समर्थ के |
अनय समर्थक रूढ़िवाद के,परिपोषक शैतान,
कहें वे सत्ता को रहमान|
कहें वे सत्ता को रहमान||

लोकतंत्र को गरियाते हैं,सामंतों की जय गाते हैं,
शील-अहिंसा को धिक्कारें,चम्बलता को अपनाते हैं|
काले धन का करते रहते,जो आदन-प्रदान|
कहें वे सत्ता को रहमान|
कहें वे सत्ता को रहमान||

 

Sunday, January 20, 2013

प्यारे! हरे-भरे भारत में,कितना गरल घोल डाला?
अब तो किसी अनाथ सुता को,शरण नहीं देती खाला|

वोट जुटाने के दीवाने,रंग-विरंगे ध्वज ताने,
गलियों-गलियों गाते घूमें,उकसाने वाले गाने|
थानेदार भयाभय रहता,पड़े न नेता से पाला |
प्यारे! हरे-भरे भारत में,कितना गरल घोल डाला?

उन्हें फिक्र क्या तेरी-मेरी जो करते हेरा-फेरी,
राजनीती हो गई विषैले,छलियों बलियों की चेरी|
जिधर देखिये उधर जल रही,द्वेष-घृणा वाहक ज्वाला|
प्यारे! हरे-भरे भारत में,कितना गरल घोल डाला?

यही हमारी यही तुम्हारी,पीड़ा एक बड़ी भारी|
झेली नहीं किसी से जाती,मार मजहबी सरकारी||
वक्त यही कहता मत डालो,निज विवेक ऊपर ताला|
प्यारे! हरे-भरे भारत में,कितना गरल घोल डाला?

Saturday, January 19, 2013

मुफ़्त के माल की ओर तकता नहीं,
डालरों की तरफ भी लपकता नहीं|

चाह है घूमने की सकल विश्व में,
और बीजा कभी माँग सकता नहीं|

मुक्त अखबार हूँ ख़ूब पढ़ लीजिए,
क्षेपकों से कभी तथ्य ढकता नहीं|

सर्जना के लिए शक्ति देता वही,
धूप में स्वेद-श्रम जो टपकता नहीं|

सत्य अनुभूतियों को सुनाते हुए,
मंचपर कवि लटकता मटकता नहीं|

लाख लालच रहें पर उन्हें देख के,
संत परमार्थ पथ से बहकता नहीं|

सृष्टि को जीवनी शक्ति देके 'तुका',
प्राणपोषक पवन-पैर थकता नहीं |

Friday, January 18, 2013



अदब के शहर में ग़ज़ब ही ग़ज़ब है|
कहीं रक्त के पान की अब तलब है|
गई शाम जो कल सलामत सिखा के,
उसी की सुबह का नज़ारा अजब है|
हमारे घरों का अमन लूटने को,
कदाचारियों ने लगाई नकब है|
इधर से उधर जो बहाया गया  वो ,
लहू है किसी का न समझो कलब है|
अगर रक्त ही रक्त को पी रहा तो,
जरा सोचिये कौन इसका सबब है?
उसे तो किसी रूप में देखना क्या ,
रहा जो सदा से स्वतः ही सरब है|
पराया समझता तुका जो किसी को,
समझ लो नहीं मजहबी वो हसब है|

Saturday, January 12, 2013

आँसुओं को न बाहर निकलने दिया|
वेदना को ह्रदय बीच पलने दिया ||

मौसमों के चुभे तीर पत्थर सहे,
चित्त परमार्थ तरुभांति फलने दिया|

स्नेह सरिता प्रवाहित रहे इसलिए,
बर्फ की भांति उर नित्य गलने दिया|

कीच के बीच से कल निकाला जिसे,
सत्य पथ पर उसी ने न चलने दिया|

इन दृगों में जलन आग जैसी 'तुका',
पर इन्हें दीप-सा नित्य जलने दिया

Thursday, January 10, 2013

एक गीत:-

प्रश्न पुराने उठा-उठाकर ,बहस कराते हैं|
आग लगाकर चतुराई से, वोट जुटाते हैं||

मीठी बातें करें कहीं पर,कहीं गरल उगलें,
आसमान में दौड़ लगायें,धरती पर फिसलें,
ऐसे रूढिग्रस्त सामंती,कलुष उपायों से-
भोले-भाले युवकों को बेहद बहकाते हैं|
आग लगाकर चतुराई से वोट जुटाते हैं||

छीना-झपटी लूट-पाटकर,आतप-सा पसरे,
कहने में अति कुशल मगर वे सुनने में बहरे,
बच्चा-बच्चा बोल रहा है चोर डकैत छली-
जाति-धर्म के बल पर सत्ता को हथियाते हैं|
आग लगाकर चतुराई से वोट जुटाते हैं||

मेरे-तेरे के घेरे में,खड़े-खड़े अकड़े,
स्वार्थ साँकलों से ठगुओं के हाथ-पैर जकड़े,
सागर पीकर भी बुझ पाई,प्यास नहीं जिनकी-
मरुस्थलों में वही दूध की नदी बहाते हैं|
आग लगाकर चतुराई से वोट जुटाते हैं||

Tuesday, January 8, 2013


पड़ा मुखों पर क्यों ताला?

गली-गली में दहक रही है अनय जलाने को ज्वाला| 
आयातित भौतिक वैभव का पड़ा मुखों पर क्यों ताला?

लगता है अब सज्जन हारे,नायक ने हैं हाथ पसारे,
ज्ञानदानियों ने शिक्षा के,बंद कर दिये हैं सब द्वारे |
जनप्रतिनिधि दलप्रतिनिधि बनके लगे बदलने हैं पाला| 
आयातित भौतिक वैभव का पड़ा मुखों पर क्यों ताला?

त्यागो कभी न नैतिक दावा,आज समय है बोलो धावा,
किसको पता कि कब आ जाये,बिना बताये वक्त बुलावा|
मिलकर शीघ्र हटाना ही है,लगा कलंकित धब्बा काला|
आयातित भौतिक वैभव का पड़ा मुखों पर क्यों ताला?| 

डरने वाले तो डरते हैं,पर करने वाले करते हैं,
नदियों को अविरल नीर मिले,पर्वत से झरने झरते हैं|
जयघोष लगाती विजय खड़ी,लायी है जयवंती माला||
आयातित भौतिक वैभव का पड़ा मुखों पर क्यों ताला?

Monday, January 7, 2013


काव्य-प्रभा गिरते मूल्यों के,फिरसे चमन खिला देगी|
शब्द- साधना की रस धारा, मरते प्राण जिला देगी ||

अपने से जो बचे उसे तो, खुले हाथ देते रहना ,
सुलभ न जिनको भोजन-पानी,उनकी सुधि लेते रहना|
स्नेह भावना थके हुओं को,कर्मठ शक्ति दिला देगी |
शब्द- साधना की रस धारा, मरते प्राण जिला देगी ||

जो सबका स्वागत करता हो,उस पथ के ऊपर चलना,
मधुर फलों के तरुओं जैसा जगहित दुख सहकर फलना|
त्यागवृत्ति अमरत्व बोध का,मधु पीयूष पिला देगी |
शब्द- साधना की रस धारा, मरते प्राण जिला देगी ||

सुमनों हेतु न चाहत रखना,शूलों को सिचित करना,
जीवनदायक प्राणवायु की भाँति व्यथा चलकर हरना|
प्रीति रीति अरि अभ्यंतर के दूषित अचल हिला देगी|
शब्द- साधना की रस धारा, मरते प्राण जिला देगी ||

Sunday, January 6, 2013

एक कवि-कर्म आधारित राष्ट्रीय गीत:-

राष्ट्र -रक्षकों ने स्वदेश के,राजकोष को लूटा है|
अब ऐसा आभास हो रहा,कुम्भ धैर्य का फूटा है||

अधिकारों ने की मनचाही,कहीं उगाही कहीं तबाही,
लापरवाही भरी व्यवस्था,न्याय हितैषी दिखें न राही|
कदचारियों के प्रभुत्व से, संयम -संबल टूटा है | 
अब ऐसा आभास हो रहा,कुम्भ धैर्य का फूटा है||

युगबोधक कबीर-सा गायें,जनमानस भयहीन बनायें,
विप्लववादी संगठनों से, जूझ रहे इन्सान बचायें|
बगुला-भक्तों की प्रवृत्ति से,दूषण भोग न छूटा है|
अब ऐसा आभास हो रहा,कुम्भ धैर्य का फूटा है|| 

समझें नव पीढ़ी की वाणी,विलख रहे हैं व्याकुल प्राणी,
विषम परिस्थिति से उबारती,सदा रही कविता कल्याणी|
हर हालत में मित्र बचाना,भारत भवन अनूठा है|
अब ऐसा आभास हो रहा,कुम्भ धैर्य का फूटा है||