Saturday, October 17, 2020

लिखते लिखते

लिखते-लिखते पढ़ते-पढ़ते, जीवन बीत रहा।

लोकतंत्र को समझाने में, विफल अतीत रहा।।


जिनको मिली नहीं सुविधायें,जिनकी रही न अभिलाषायें।

उनको रंच नहीं समझायीं,नागरिकों की पारिभाषायें।।

सुप्त करे जो युग प्रबोध वो, गुंजित गीत रहा।

लोकतंत्र को समझाने में, विफल अतीत रहा।।


अर्थतंत्र ने जिनको जाया, चुनकर नायक उन्हें बनाया।

शोषणवादी मकड़जाल को,जाति-धर्म ने सुदृढ़ कराया।।

न्यायालय ही न्यायतंत्र के, अति विपरीत रहा।

लोकतंत्र को समझाने में, विफल अतीत रहा।।


लूटपाट खींचातानी है, मौनी बन बैठा ज्ञानी है।

बीमारी से पीत धरा को, छली वैद्य कहता धानी है।।

आश्वासन की लेप चढ़ा के, खल जग जीत रहा।

लोकतंत्र को समझाने में, विफल अतीत रहा।।


छीन रहे जो अधिकारों को, जो ठुकराते लाचारों को।

वे सामंती चला रहे हैं, पूँजीवादी सरकारों को।।

शासक वर्ग प्रशासन से तो, खुद भयभीत रहा।

लोकतंत्र को समझाने में, विफल अतीत रहा।।


गाँव-गली में जाया जाये, तर्क विवेक बढ़ाया जाये।

बहुत हो चुकी है लफ़्फ़ाज़ी, सम्विधान समझाया जाये।।

पंचशील ही मानवता का, रक्षक मीत रहा।

लोकतंत्र को समझाने में, विफल अतीत रहा।।

Wednesday, October 14, 2020

काव्य प्रयोजन

 

काव्य प्रयोजन
नाम कमाया दाम कमाये, मगर न शिवम् विचार।
कि ऐसी कविताई बेकार।।
कि ऐसी कविताई बेकार।।।
काव्य प्रयोजन समझ न पाये,
मदिरा पिये झूमकर गाये,
दीन दुखी लाचार जनों को-
ठगुआ चिंतन क्या सिखलाये?
आकर्षण के लिए परोसा, नारी का शृंगार।
कि ऐसी कविताई बेकार।।
कि ऐसी कविताई बेकार।।।
लोकतंत्र का अर्थ न जाना,
सिर्फ़ पढ़ा सरकारी गाना,
गाँव -गली के अंधियारे में-
भूल गए वो आना-जाना।
युगप्रबोध के हेतु अनय पर, कर न सके प्रहार।
कि ऐसी कविताई बेकार।।
कि ऐसी कविताई बेकार।।।
जाति-धर्म के रंग चढ़ाये,
भ्रामक झूठे पाठ पढ़ाये,
चौड़े-चौड़े फ़्रेमों में तो-
विज्ञापन के चित्र मढ़ाये।
पुरस्कार के लिए शीश से, पगड़ी दिए उतार।
कि ऐसी कविताई बेकार।।
कि ऐसी कविताई बेकार।।।

Tuesday, October 13, 2020

 -:प्राणवायु गीत संकलन से एक गीत:-


अर्थ को ज़िन्दगी मानकर, आदमी श्रेष्ठता खो रहा।

सत्य की शक्ति को त्यागकर, झूठ के भार को ढो रहा।।


स्वर्ण का बोलबाला बढ़ा,वर्ण का भूत सबको चढ़ा।

आचरण का पतन देखिये,स्वार्थ का पाठ युग ने पढ़ा।।

त्याग की भावना भूलकर,भोग की गोद में सो रहा।

सत्य की शक्ति को त्यागकर,झूठ के भार को ढो रहा।।


आज की नीति छल नीति है,द्वेष से हो गई प्रीति है।

क्या कहें और किससे कहें,न्याय की भी यही रीति है।।

नीड़ कमजोर का नोंचकर पाँव सहजोर के धो रहा।

सत्य की शक्ति को त्यागकर,झूठ के भार को ढो रहा।।


दर्द की कोठरी में कहीं,स्नेह को मान्यता है नहीं।

सभ्यता के नगर गाँव में,वासनायें विपुल बस रहीं।।

कर्म के पंथ से हारकर,धर्म बेशर्म -सा हो रहा।

सत्य की शक्ति को त्यागकर,झूठ के भार को ढो रहा।।


पुष्प की वाटिका में कहीं,आज आनन्द आता नहीं।

अर्थ को ज़िंदगीचारणों की जमातें जहाँ,क्यों क़लमकार जाता वहीं?

एकता का चमन रौंदकर,भेद के बीज को बो रहा।।

सत्य की शक्ति को त्यागकर,झूठ के भार को ढो रहा।।

काव्य प्रयोजन

काव्य प्रयोजन


नाम कमाया दाम कमाये, मगर न शिवम् विचार।

कि ऐसी कविताई बेकार।।

कि ऐसी कविताई बेकार।।।


काव्य प्रयोजन समझ न पाये,

मदिरा पिये झूमकर गाये,

दीन दुखी लाचार जनों को-

ठगुआ चिंतन क्या सिखलाये?

आकर्षण के लिए परोसा, नारी का शृंगार।

कि ऐसी कविताई बेकार।।

कि ऐसी कविताई बेकार।।।


लोकतंत्र का अर्थ न जाना,

सिर्फ़ पढ़ा सरकारी गाना,

गाँव -गली के अंधियारे में-

भूल गए वो आना-जाना।

युगप्रबोध के हेतु अनय पर, कर न सके प्रहार।

कि ऐसी कविताई बेकार।।

कि ऐसी कविताई बेकार।।।


जाति-धर्म के रंग चढ़ाये,

भ्रामक झूठे पाठ पढ़ाये,

चौड़े-चौड़े फ़्रेमों में तो-

विज्ञापन के चित्र मढ़ाये।

पुरस्कार के लिए शीश से, पगड़ी दिए उतार।

कि ऐसी कविताई बेकार।।

कि ऐसी कविताई बेकार।।।