Tuesday, October 28, 2014

आह कराह का गीत

चल पड़ा है धमकियों का गालियों का दौर,
प्रिय! आप ही समझाइये यह हो रहा क्यों और|
मिल गई सत्ता भला फिरभी नहीं क्यों चैन,
क्या अभी भी चाहते काली अंधेरी रैन|
निज वायदों पर कीजिये स्वयमेव ही कुछ गौर| 
चल पड़ा है धमकियों का गालियों का दौर,
प्रिय! आप ही समझाइये यह हो रहा क्यों और|
क्या जमाखोरी रुकी है क्या रुका उत्कोच,
क्या मिलावटखोर की बदली जरा भी सोच|
जा रहे छीने अभी भी हैं मुखों से कौर| 
चल पड़ा है धमकियों का गालियों का दौर,
प्रिय! आप ही समझाइये यह हो रहा क्यों और|
पिट रहा जयकार का डंका भरे बाजार,
हँस रहे अब मौन हैं इन्सान हैं लाचार|
बेहद सराहा जा रहा है भोगवादी तौर| 
चल पड़ा है धमकियों का गालियों का दौर,
प्रिय! आप ही समझाइये यह हो रहा क्यों और|

Monday, October 20, 2014

पीर युग की


पीर युग की देखकर, हम अश्रु भर लाये,
तब विकल मन ने, सहज कुछ गीत रच पाये|
स्वार्थ विसराये, परमार्थ उपजाये||
मोमबत्ती की तरह निस्वार्थ जल-जल के,
रौशनी करते रहे तम के शिविर दल के|
क्रूरता के खौफ़ से किंचित न घबराये,
तब विकल मन ने, सहज कुछ गीत रच पाये|
स्वार्थ विसराये, परमार्थ उपजाये||
आ गया हूँ आप तक निज गेह से चल के,
ताप से हिम की तरह अधिकाँश गल-गल के|
प्यास सबकी शान्त करने के लिए धाये,
तब विकल मन ने, सहज कुछ गीत रच पाये|
स्वार्थ विसराये, परमार्थ उपजाये||
गाँव-घर तपने लगे तब मेघ बन करके,
छा गये आकाश में शुचि स्नेह जल भर के|
सबके लिए वर्षा किए सृष्टि सरसाये,
तब विकल मन ने, सहज कुछ गीत रच पाये|
स्वार्थ विसराये, परमार्थ उपजाये||
नीम बनकर भूमि पर उपचार हित उपजे,
व्याधियाँ हरते रहे फिरभी नहीं गरजे|
अंग तक काटे गये, तो और हरयाये,
तब विकल मन ने, सहज कुछ गीत रच पाये|
स्वार्थ विसराये, परमार्थ उपजाये||
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Thursday, October 2, 2014

नाचते दिखते हैं कुछ मोर


हो रही जय-जय चारों ओर,
नाचते दिखते हैं कुछ मोर, 
प्रदर्शन अच्छा है प्रदर्शन अच्छा है|
मगर कुछ सोचो भी श्रीमान,
बढ़ रहा प्रचलन में अज्ञान,
समस्यायें उठ रही अनेक -
ज़िन्दगी हुई नहीं आसान||
नीर से भरी आँख की कोर...
निराशा भरी नहीं है बात,
रुके हैं नहीं घात-संघात,
दरिंदे घूम रहे आज़ाद-
पनपता पाखंडी उत्पात|
खा रहे खूब मलाई चोर...
लग रही प्रतिबंधित अभिव्यक्ति,
दिख रही व्यवहारों में भक्ति,
प्रफुल्लित अभी जीत के मीत-
तड़पती दिखती है अनुरक्ति|
आज भी हावी हैं सहजोर...