Monday, October 20, 2014

पीर युग की


पीर युग की देखकर, हम अश्रु भर लाये,
तब विकल मन ने, सहज कुछ गीत रच पाये|
स्वार्थ विसराये, परमार्थ उपजाये||
मोमबत्ती की तरह निस्वार्थ जल-जल के,
रौशनी करते रहे तम के शिविर दल के|
क्रूरता के खौफ़ से किंचित न घबराये,
तब विकल मन ने, सहज कुछ गीत रच पाये|
स्वार्थ विसराये, परमार्थ उपजाये||
आ गया हूँ आप तक निज गेह से चल के,
ताप से हिम की तरह अधिकाँश गल-गल के|
प्यास सबकी शान्त करने के लिए धाये,
तब विकल मन ने, सहज कुछ गीत रच पाये|
स्वार्थ विसराये, परमार्थ उपजाये||
गाँव-घर तपने लगे तब मेघ बन करके,
छा गये आकाश में शुचि स्नेह जल भर के|
सबके लिए वर्षा किए सृष्टि सरसाये,
तब विकल मन ने, सहज कुछ गीत रच पाये|
स्वार्थ विसराये, परमार्थ उपजाये||
नीम बनकर भूमि पर उपचार हित उपजे,
व्याधियाँ हरते रहे फिरभी नहीं गरजे|
अंग तक काटे गये, तो और हरयाये,
तब विकल मन ने, सहज कुछ गीत रच पाये|
स्वार्थ विसराये, परमार्थ उपजाये||
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