Thursday, July 26, 2012

परेशान करते सबालात कर लें |
चलो ज्ञानियों से मुलाक़ात कर लें||

सदाचार के वे बड़े है पुरोधा,
भलाई बुराई जरा ज्ञात कर लें|

वही हाजिरे दौर के हैं मसीहा,
उन्हें देख खुद को विख्यात कर लें|

दिया तो उन्हें संत-सा मर्तबा है,
भले राष्ट्र के संग वे घात कर लें|

बड़ी तेज गर्मी यहाँ हो रही है,
परस्पर मिले नेत्र बरसात कर लें|

कभी रंग काला न गोरा बनेगा,
किसी भी तरह से सफ़ा गात कर लें|

मुहब्बत सिखाती 'तुका' को यही तो,
तजें शत्रुता प्यार से बात कर लें|

Wednesday, July 25, 2012

एक नहीं हो सकता प्यारे धर्मों का छाता|
क्योंकि इनका इंसानों से नहीं रहा नाता||

इनका जो वितान है उसके नीचे हिन्दू मुस्लिम हैं,
बौद्ध बहाई सिक्ख जैन ईसाई मुजरिम हैं |
सबका खुला हुआ सदियों से अलग-अलग खाता|
क्योंकि इनका इंसानों से, नहीं रहा नाता||

इनको दौलत ठगी बदौलत छलिया सत्ता प्यारी है,
अपने और परायेपन की इन्हें लगी बीमारी है |
इनको भाग्य भरोसे सब कुछ देता है दाता|
क्योंकि इनका इंसानों से, नहीं रहा नाता||

तर्क बुद्धि की बात कभी भी,इनको नहीं सुहाती हैं,
पकी पकाई फस्ल कृषक की,इनके घर आ जाती है|
फूटी आँख न इन्हें सुहाता,साखी का ज्ञाता|
क्योंकि इनका इंसानों से, नहीं रहा नाता||

Tuesday, July 24, 2012

भारतवर्ष खिलौना नहीं जो कोई यह सोचे कि:-

मेरा मुन्ना रूठ जाएगा उसे खिलौना देना है|
चुप करने के लिए उसे तो अद्धा-पौना देना है||

इस सोच का प्रतिफल इस रचना में देखें :-

खा पीकर बच्चों को केवल सोना होता है,
मन चाही चीजों के खातिर रोना होता है|

बूढ़े भी तो कभी बालकों भाँति जिद्द करते,
क्योंकि उन्हें इस वक्त नहीं कुछ खोना होता है|

बालक बूढों की करतूतों के परिणाम सभी,
युवक-युवतियों को जीवन भर ढोना होता है|

जिन कन्धों पर जुआ राष्ट्र रचना का रक्खा हो,
उन्हें देखना एक आँख से हर कोना होता है|

सर्जन हेतु परिश्रम साहस बुद्धि साथ देती,
जादू होता है ना  कुछ भी टोना होता है |

सामाजिक जीवन में जाने के पहले समझो,
सबको अपने हाथों अपना मुँह धोना होता है|

भेद-भाव से 'तुकाराम' कुछ बात नहीं बनती,
कृषकों को फसलें सब के हित बोना होता है|

Monday, July 23, 2012

मित्रो! जीवन के अनुभव को,लिख-लिख कर गाया|
पुरस्कार में आप सभी का, सरस प्यार पाया ||

लिखते-लिखते वर्ष छियालिस,बीत गये अबतो,
कवि हूँ कविता हेतु जी रहा, जान गये सब तो|
शब्द साधना करते-करते,सुख-दुख अपनाया|
पुरस्कार में आप सभी का, सरस प्यार पाया ||

पैंसठ वर्ष गुजार दिये हैं,बिना किसी भय के,
व्यक्त किये हैं भाव चेतना, संयुत निर्णय के |
मंथन का नवनीत जगत के,सम्मुख पहुँचाया|
पुरस्कार में आप सभी का, सरस प्यार पाया ||

चौथेपन की दुआ यही है, तरुवर -सा फलना,
सरि-सा अविरल बहते रहना,पवन भाँति चलना|
शिव सुन्दर सच के पथ पर ही,नित चलता आया|
पुरस्कार में आप सभी का, सरस प्यार पाया ||

Sunday, July 22, 2012


समा गई उर बीच करोडों,युवकों की तस्वीर|
हरेंगे जो जन मन की पीर||
हरेंगे जो जन मन की पीर|||

हुए जो जाति प्रथा से दूर,जिन्हें है समरसता मंजूर,
चुने हैं वैज्ञानिक दस्तूर,बन गये जो धरती के नूर|
अर्जित किये विवेक -शक्ति से,ज्ञानोदय जागीर|
हरेंगे जो जन मन की पीर||
हरेंगे जो जन मन की पीर|||

जिन्हें है भली भांति युगबोध,जिन्होंने किया सत्य हित शोध,
जगा सकते वे प्रगति प्रबोध,कि जिनकी वाणी सरस सुबोध|
वही बहाने को निकले हैं,सौरभ शील समीर |
हरेंगे जो जन मन की पीर||
हरेंगे जो जन मन की पीर|||

चल पड़े हिलमिलकर हमराज.बजायें परिवर्धन के साज, 
अनोखा इनका है अंदाज,उठाते सर्जन की आवाज़ |
इनके गीत सजीले यूँ ज्यों, गाते संत कबीर| 
हरेंगे जो जन मन की पीर||
हरेंगे जो जन मन की पीर|||

Saturday, July 21, 2012

अब तो उनकी पीर समझनी होगी|
भारत की तस्वीर समझनी होगी||
क्यों गर्मी के बाद बरसते घन हैं,
पानी की तासीर समझनी होगी |
भोजन नीर अभाव वहाँ क्यों पसरा,
यहाँ फिक रही खीर समझनी होगी|
पहनाई जो गई पगों में वो तो ,
दस्तूरी जंजीर समझनी होगी ||
लोकतंत्र की खुली हवा में भी वो,
धारे क्यों है  धीर समझनी होगी|
विज्ञापन से जो सत्ता चलवाती,
वो शातिर तदवीर समझनी होगी|
जिस पर सबको गर्व 'तुका'सदियों से,
वो किसकी तहरीर समझनी होगी?

Thursday, July 19, 2012

अगर इन्सान का जीवन प्रिये! घनश्याम हो जाये|
भला फिर यह ज़माना क्यों नहीं अभिराम हो जाये?
सलोनी बात करने से सलोनापन नहीं आता,
सलोनापन मिले तब जब कि मन गुलफाम हो जाये|
चलन इस दौर का ऐसा दिखाई दे रहा अबतो,
मसीहा भी ठगों के काम से बदनाम हो जाये |
हकीकत सामने आती छिपाने से नहीं छिपती,
भले अभिव्यक्ति का परिणाम कत्लेआम हो जाये |
यही ख्वाहिश हमेशा से रही इस चित्त को घेरे,
तुम्हें सुख-चैन पाने को हमारा धाम हो जाये|
निराशा छोड़कर जीवन जिया परमार्थ ही सोचा,
नहीं कुछ दुख कहीं भी ज़िन्दगी की शाम हो जाये|
इबादत तो युगों से बस यही करता चला आया, 
'तुका' को हो भले पीड़ा उसे आराम हो जाये|
क्या होता है काव्य कर्म कवि कैसे बनते हैं|
जिनको हैं यह बोध कभी वे नहीं बहकते हैं||

जिसको जितनी सुवुधाओं के बीच गया पाला,
वे अभाव में उतना निज छाया डरते हैं| 

शीतल जल का दान मेघ नव जीवनार्थ देते,
लेकिन कभी-कभी उनसे भी उपल बरसते हैं|

जिनसे एक बूंद भी जल की कभी नहीं मिलती,
से बादल सिर पर आकर के बहुत गरजते हैं|

उन्हें भला इन्सान कहें तो कहो मित्र कैसे,
पर पीड़ा को देख न जिनके अश्रु निकलते हैं|

जिनकी सत्ता से नजदीकी होती है जितनी,
जनता से वे अक्सर उतनी दूरी रखते हैं|

शूलों में रह जो फूलों जैसा पलते खिलते,
'तुकाराम' वे दुनिया भर में नित्य महकते हैं|

Tuesday, July 17, 2012


कलम जो हाथ थामे हैं नहीं वे सिर झुकाते हैं|
मुसीबत झेलते हैं पर नहीं आँसू गिराते हैं ||

कभी यह पूछिये तो प्रिय,बिना संकोच अपने से,
किसी की बात का विद्वान क्या ढोलक बजाते हैं?

जिन्होंने काव्य को अपना समर्पित कर दिया जीवन,
किसी भी हाल में भोगे हुए अनुभव सुनाते हैं |

नदी का नीर दो तट बीच ज्यों परमार्थ में बहता,
उसी संकल्प से माधुर्य रस कविवर बहाते हैं |

समस्यायें हमेशा ज़िन्दगी को शक्ति ही देतीं,
इन्हीं के साथ इनका हल विचारक खोज लाते हैं|

सभी इन्सान प्यारे हैं सभी अपने हमें लगते,
चले जाते वहाँ भी हम जहाँ कुछ मुँह बनाते हैं|

'तुका' को कंठ कोयल-सा नहीं हासिल हुआ फिरभी,
ग़ज़ल हो गीत मुक्तक छंद खुलकर खूब गाते है|
· 

क्या होता है काव्य कर्म कवि कैसे बनते हैं|
जिनको हैं यह बोध कभी वे नहीं बहकते हैं||

जिसको जितनी सुवुधाओं के बीच गया पाला,
उतना वे अभाव में निज छाया से डरते हैं|

शीतल जल का दान मेघ नव जीवनार्थ देते,
लेकिन कभी-कभी उनसे भी उपल बरसते हैं|

जिनसे एक बूंद भी जल की कभी नहीं मिलती,
ऐसे बादल सिर पर आकर बहुत गरजते हैं|

उन्हें भला इन्सान कहें तो कहो मित्र कैसे,
पर पीड़ा को देख न जिनके अश्रु निकलते हैं|

जिनकी सत्ता से नजदीकी होती है जितनी,
जनता से वे  अक्सर उतनी दूरी रखते हैं|

शूलों में रह जो फूलों जैसा पलते खिलते,
'तुकराम' वे सकल सृष्टि में सदा महकते हैं|

Sunday, July 15, 2012

सिर्फ उपदेश हैं स्वार्थ व्यापार हैं|
धर्म के नाम पर क्रूर व्यवहार हैं||

पाप से दूर हम पापियों के सभी,
पाप को मेटने में मददगार हैं |

नफरतों से भरे अर्थ के दौर में,
खोलते जा रहे प्यार के द्वार हैं|

मत डराओ प्रिये!अब किसी खौफ़ से,
मौत के हेतु हर वक्त तैयार हैं|

कौन आतंकियों का करे सामना,
धर्म के तंत्र से राज्य लाचार हैं|

आधुनिक ज़िन्दगी की चकाचौंध में,
टूटते जा रहे गेह परिवार हैं |

आज भी देखिये तो 'तुका' के बने,
एक दो शत्रु पर मित्र दो चार हैं |

Saturday, July 14, 2012

नयी रौशनी मित्र गाँवों शहर में|
प्रगती देखनी मित्र गाँवों शहर में||

बजह कौन-सी है पता कुछ करें क्यों,
गयी शेरनी मित्र गाँवों शहर में|

न खुद से किसी ने पूछा किसे अब,
ठगी सीखनी मित्र गाँवों शहर में|

नये दौर में भी उपेक्षित रही क्यों,
यहाँ भीलनी मित्र गाँवों शहर में|

सभी भोग जिसका करें स्नेह से वो,
फसल रोपनी मित्र गाँवों शहर में|

कहो कौन-सा आज तूफ़ान आया,
थमी लेखनी मित्र गाँवों शहर में|

पढ़ाई 'तुका' जा रही आज भी क्यों,
घृणित जीवनी मित्र गाँवों शहर में?

वह है चतुर महान यहाँ कवियों जैसा|
पहने है परिधान यहाँ कवियों जैसा||

कविता का व्यवहार न जिसको ज्ञात उसे 
मिलता है सम्मान यहाँ कवियों जैसा|

भ्रष्टाचार विरोधी दल का जगह-जगह,
शुरू हुआ अभियान यहाँ कवियों जैसा|

घुस न सकेगा अरि दल भारत सीमा में,
उनका है एलान यहाँ कवियों जैसा|

चोर बकैत लठैत नहीं अब दिखें कहीं,
हर कोई गुणवान यहाँ कवियों जैसा| 

सुलभ उन्हें सब कुछ सत्ता के आँगन में,
पर मिला नहीं ईमान यहाँ कवियों जैसा|

'तुका' यही है सत्य सत्य है सत्य यही,
कौन हुआ कुर्वान यहाँ कवियों जैसा?
इधर से उधर से उठाकर लिखा हँ|
समझिये न चोरी बताकर लिखा है||

नयी रौशनी की नयी गीतिका को,
नियम ज़िन्दगी के निभाकर लिखा है|

सभी को हँसाना जिन्हें है सुहाया, 
उन्होंने हंसी को छिपाकर लिखा है|

मुहब्बत किसी को कहाँ चैन देती,
महबूब का दिल दुखाकर लिखा है| 

तुकाराम जैसा मिला नाम जिनको,
उन्होंने स्वयं को रुलाकर लिखा है|

Friday, July 13, 2012

स्वानुभूति कहने से पहले सत्यासत पहचानिये|
वक्त चाहता है कवियों से युग-आहत पहचानिये||

सोच-समझ की तर्क शक्ति से सर्जनात्मक बोध बढ़े,
काव्य-शिखर से बहती रसमय शिव ताकत पहचानिये|

क्या बटोरना यूरो -डालर स्वर्ण-रजत जग सम्पदा ,
चोर न जिसको चुरा सकें वो गुण-दौलत पहचानिये|

आदिकाल से पैर जकड़कर कैद किये जंजाल में,
मुक्त कर सके जो जीवन को वो हिकमत पहचानिये|

कौन जोड़-तोडों से मिलती कौन ईश वरदान से,
दान प्राप्त करने से पहले हर बरकत पहचानिये|

मान मर्तबा इंसानों -सा विश्व बीच मिल जायेगा,
उग्रवाद का शमन करे जो वो आदत पहचानिये |

एक वृक्ष के पत्तों जैसा जग मानव का वंश है,
नम्रभाव से 'तुका' कह रहा नव भारत पहचानिये|

Wednesday, July 11, 2012

हमने देखी बड़े-बड़ों के,उर की वह तस्वीर|
न जिसमें परहित किंचित पीर|| 
न जिसमें परहित किंचित पीर|||

कई मील से जिन भवनों की, सूरत दिखे चमकती|
उनके अंदर मानवता की, चाह न अल्प झलकती||
अपने और परायेपन की, वे तो बने नजीर| 
न जिसमें परहित किंचित पीर|| 
न जिसमें परहित किंचित पीर|||

जितना भारत का आँगन है, प्रिय उदार मधुमासी|
उतना इसके निवासियों का, जीवन भोग विलासी||
अनाचार ने अर्जित की है,वह कुत्सित जागीर| 
न जिसमें परहित किंचित पीर|| 
न जिसमें परहित किंचित पीर||| 

लोकतंत्रीय जीवन पद्धिति, इनको नहीं सुहाती|
संविधान के परिपालन में, इनकी फटती छाती||
कदाचार ने पहनाया है, ऐसा ठगुआ चीर|
न जिसमें परहित किंचित पीर||
न जिसमें परहित किंचित पीर|||

Monday, July 9, 2012

हमसे बात करो पर प्यारे!, इन्सानों की बात करो|
जिन यत्नों से प्यार बढ़े,उन अभियानों की बात करो||

धन पशुओं के साथ कभी हम खड़े नहीं हो सकते हैं|
जाग्रत रहते हैं कबीर-सा, कभी नहीं सो सकते हैं||
श्रमिक गंध से भरे हुए शुचि, परिधानों की बात करो|
जिन यत्नों से प्यार बढ़े,उन अभियानों की बात करो||

मानवता का जहाँ वास है, जहाँ सभी अपने लगते|
जहाँ परार्थ प्रेम पसरा है, जहाँ न जन जन को ठगते||
रक्त दान देने वाले प्रिय, दीवानों की बात करो|
जिन यत्नों से प्यार बढ़े,उन अभियानों की बात करो||

जिन्हें राष्ट्र के कण-कण में बस अपना घर दिखता है|
जिनका निष्पृह चिंतन सुन्दर शिवम सत्य लिखता है||
भेद भाव से विलग न्यायप्रिय गुणवानों की बात करो|
जिन यत्नों से प्यार बढ़े,उन अभियानों की बात करो||

Tuesday, July 3, 2012

कल थे गुरवार सकल विश्व के, आज गई मति मारी|
आओ! करें विचार बन गये, क्यों हम लोग भिखारी?

नागरिकों की आँख सदा,क्यों,सत्ता ओर निहारे?
खड़े हुये है लिए कटोरा, क्यों विदेश के द्वारे?
किस कारण कर फैलाने की,आयी विपदा भारी|
आओ! करें विचार बन गये, क्यों हम लोग भिखारी?

किस कारण से सीखी चोरी,कैसे सीना जोरी?
क्यों कहते कुछ रही आज से,अच्छी सत्ता गोरी?
भयाक्रांत रहती किस भय से,अपनी जनता प्यारी?
आओ! करें विचार बन गये, क्यों हम लोग भिखारी?

क्यों दिखते हैं दोष न उनमें,जाति-धर्म के आगे?
क्यों फिरते कवि छलियों-बालियों पीछे भागे-भागे?
सच को सच कहने की अब क्यों,कवि ने हिम्मत हारी?
आओ! करें विचार बन गये, क्यों हम लोग भिखारी?

किस कारण से काव्य कर्म का,अनुशासन अपनाया?
मूल्य विहीन चरित्र किसी को, क्या कुछ भी दे पाया?
हर हालत में हमें जीतनी, होगी फिर से पारी |
आओ! करें विचार बन गये, क्यों हम लोग भिखारी?

Monday, July 2, 2012


निज अनुभव के गीत सुनाओ, जन जीवन की बात कहो| 
जीवन की शुचिता के हित में,जन गण मन की बात कहो||

वक्त आपके स्वागतार्थ अब,खड़ा हुआ है राहों में |
मित्रो ! आगे बढ़ो शान से, बाह डालकर बाहों में||
सुख-सुविधायें स्वतः मिलेंगी,कभी न धन की बात करो|
जीवन की शुचिता के हित में,जन गण मन की बात कहो||

यह भी अपने वह भी अपने, सबके पूरे हों सपने|
हम सब भारत के वासी हैं,अलग-अलग क्यों हों नपने? 
अपने घर की चिंता छोड़ो ,हर आँगन की बात करो|
जीवन की शुचिता के हित में,जन गण मन की बात कहो||

कार्य तुम्हारे देख सलौने, कुछ साथी मिल जायेंगे|
थोड़ी-सी सेवा करने से ,वन-उपवन खिल जायेंगे||
जो सबको सन्मार्ग दिखाये,उस चिंतान की बात कहो |
जीवन की शुचिता के हित में,जन गण मन की बात कहो||
 ·  ·  · 8 hours ago near Bangalo
कुछ लोगों ने कुछ लोगों के लिए विकास किया|
जिनकी सर्वोदयी सोच है , उन्हें निराश किया||

जाति वर्ग मजहबी ख्याल का,भाषण गूंज रहा|
इनको अपना कहा उन्होंने, उनको गैर कहा||
राष्ट्र प्रगति के उद्द्योगों का सतत विनाश किया|
जिनकी सर्वोदयी सोच है , उन्हें निराश किया||

सामाजिक सदभाव बिगाड़ा,जन -धन लूट लिया|
छलियों बलियों के दल-दल ने,धोखा नित्य दिया||
झोपड़ियों में तिमिर महल में,नवल प्रकाश किया|
जिनकी सर्वोदयी सोच है , उन्हें निराश किया||

राजनीति में अफसरशाही,आँख तरेर रही|
चाट रही नवनीत अकेले मथकर न्याय दही||
भोग बिलासी महानगर ने,गाँव उदास किया|
जिनकी सर्वोदयी सोच है , उन्हें निराश किया||