Friday, September 25, 2015

जाति की बात

जाति की बात से बात बनती नहीं,
काव्य में नात से बात बनती नहीं|
स्नेह सद्गन्ध से जो भरा ही न हो-
उस मृदुल गात से बात बनती नहीं|
राष्ट्र को सैकड़ों किस्म के फूल दो-
मात्र जलजात से बात बनती नहीं|
प्यार को चाहिये एक माहौल भी-
चाँदनी रात से बात बनती नहीं|
शान्ति के हेतु अनिवार्य है एकता -
धर्म उत्पात से बात बनती नहीं|
स्वार्थ की भावना से भरे दौर में-
अर्थ बरसात से बात बनती नहीं|
देश में कृषि उपज को बढ़ाओ तुका-
अन्न आयात से बात बनती नहीं|

Saturday, September 12, 2015

किस शुचिता की खोज रही


सच्चाई की कमी दिख रही, राजनीति की गलियों में|
किस शुचिता की खोज रही, ठगुओं में भुजबलियों में?

भूखे- प्यासे बेवश लाखों, विपदाओं के मारे हैं,
शिक्षा- दीक्षा के नारे तो, आसमान के तारे हैं|
गरल छिड़कने लगे दरिन्दे, वन उपवन की कलियों में|
किस शुचिता की खोज रही, ठगुओं में भुजबलियों में?


काली करतूतों को ढँकते, कितने वस्त्र निराले हैं,
जितने उज्ज्वल तन से दिखते, उतने मन के काले हैं|
अन्तर नहीं परखना चाहें, छलियों में मखमलियों में|
किस शुचिता की खोज रही, ठगुओं में भुजबलियों में?

पाले- पोषे ख़ूब जा रहे, जाति- धर्म के आतंकी,
सम्मानित हो रहे सहस्रों, अर्थ समर्थक ढोलंकी|
दूध पी रहे विविध सपोले, स्वर्ण रजत की डलियों में|
किस शुचिता की खोज रही, ठगुओं में भुजबलियों में?

Friday, September 4, 2015

असत्य दलील|



लोकतंत्र को धर्मतंत्र में, करो नहीं तब्दील,
नहीं दो और असत्य दलील|
नहीं दो और असत्य दलील|| 

बड़े अनैतिक बोझे लादे, करते फिरते झूठे वादे,
सत्ता हथियाने वाले के, लोग समझने लगे इरादे|
मुँह से कौर छिनाने को जो, बने हुये हैं चील,
नहीं दो और असत्य दलील|
नहीं दो और असत्य दलील||

विज्ञापन ने हमला बोला, नागिन जैसा मुँह को खोला,
एक हो गया है ठगने को, काले धन वालों का टोला|
सूरत लगती संतों जैसी, कार्य क्रूर अश्लील,
नहीं दो और असत्य दलील|
नहीं दो और असत्य दलील||

अपने-अपने ढोल बजाते, जन साधारण को बहकाते,
कचरा तो पड़ोस में फेकें, अपने घर-आँगन महकाते|
हत्यारों को लगे बचाने, खोटेराम वकील,
नहीं दो और असत्य दलील|
नहीं दो और असत्य दलील||