Wednesday, February 29, 2012

स्वानुभूति कहने से पहले सत्यासत पहचानिये|
वक्त चाहता है कवियों से युग-आहत पहचानिये||

सोच-समझ की तर्क शक्ति से सर्जनात्मक बोध बढ़े,
काव्य-शिखर से बहती रसमय शिव ताकत पहचानिये|
क्या बटोरना यूरो -डालर स्वर्ण-रजत जग सम्पदा ,
चोर न जिसको चुरा सकें वो गुण-दौलत पहचानिये|

आदिकाल से पैर जकड़कर कैद किये जंजाल में,
मुक्त कर सके जो जीवन को वो हिकमत पहचानिये|

कौन जोड़-तोडों से मिलती कौन ईश वरदान से,
दान प्राप्त करने से पहले हर बरकत पहचानिये|

मान मर्तबा इंसानों -सा विश्व बीच मिल जायेगा,
उग्रवाद का शमन करे जो वो आदत पहचानिये |

एक वृक्ष के पत्तों जैसा जग मानव का वंश है,
नम्रभाव से तुका कह रहा नव भारत पहचानिये|

Monday, February 27, 2012

वह भी मरघट भाँति है ,जिसमें मिले न स्नेह ।
तिनका-तिनका जोड़कर ,भले बना हो गेह ।।
थपकी दे झपकी उन्हें,कौन दिलाये आज ।
दादी -नानी की भली , लगे नहीं आवाज़ ।।
सुधियों की निधियां मिलीं,फिर भी मिले न चैन।
तड़प-तड़प कर दिन कटे,विलख-विलख कर रैन।।
मान लिया दूषित हुआ, शासन सहित समाज ।
क्या इसका यह अर्थ हैं,करें न जनहित काज ।।
वह भी मरघट भाँती है ,जिसमें मिले न स्नेह ।
तिनका-तिनका जोड़कर ,भले बना हो गेह ।।
थपकी दे झपकी उन्हें,कौन दिलाये आज ।
दादी -नानी की भली , लगे नहीं आवाज़ ।।
सुधियों की निधियां मिलीं,फिर भी मिले न चैन।
तड़प-तड़प कर दिन कटे,विलख-विलख कर रैन।।
मान लिया दूषित हुआ, शासन सहित समाज ।
क्या इसका यह अर्थ हैं,करें न जनहित काज ।।

Saturday, February 25, 2012

लक्ष्य पाने के लिए , करना सतत संघर्ष है |
सत्य पथ का पथिक तो ,अपना स्वतः आदर्श है||

जो हरे पर पीर को, माना गया वह ज्येष्ठ हैं|
भौतिकी उपलब्धियों से ,ज्ञान का पथ श्रेष्ठ है||
स्नेह के व्यवहार से , मिलता अपरिमित हर्ष है|
सत्य पथ का पथिक तो ,अपना स्वतः आदर्श है||

साधना की ज़िन्दगी, निर्दोष करती दृष्टि है|
उन्नति-पतन गमनागमन,परहितैषी सृष्टि है|
शोध से मिलता उचित , हर प्रश्न का निष्कर्ष है|
सत्य पथ का पथिक तो ,अपना स्वतः आदर्श है||

फूल शूलों संग में , रहते रहे हैं सर्वथा |
किन्तु वे कहते नहीं , किंचित कभी अपनी व्यथा||
इसलिए उनमें समाया , अत्यधिक आकर्ष है |
सत्य पथ का पथिक तो ,अपना स्वतः आदर्श है||

Friday, February 17, 2012

सर्ज़न का स्वर शब्द सुनाई देता है|
दृश्य क्षितिज के पार दिखाई देता है||

आम आदमी क्या देखो कप्तान यहाँ,
मुंशी को कुछ रपट लिखाई देता है| 

लोग न मानें सत्य भले पर यदाकदा,
मानव को धन बहुत बुराई देता है |

न्यायालय के उच्चासन का स्वामी भी,
न्याय नीति को नहीं तिपाई देता है|

देख रहे सब लोग राज्य की करनी को,
मुक्त प्रशासन किसे सफाई देता है?

दौलत के सब रिश्तों का अंदाज़ यही,
कौन आजकल किसे कमाई देता है?

आँखें तब भर आती अपने आप तुका,
बेटी को जब बाप विदाई देता है|

Thursday, February 16, 2012

बुझते हुए हजारों ज्योतित दिये किए हैं|
स्वर शब्द मोतियों-से संसार को दिए हैं||

किस भांति बात कोई उनसे कभी करेगा,
कर में लहूँ पिपासी पिस्तौल जो लिए हैं|
क्या आज तक किसी ने इतना पता लगाया,
आतंकवादियों के कितने कहाँ ठिए हैं ?

इतिहास तो उन्हें हीं अपनी पनाह देगा,
विष के विभिन्न प्याले परमार्थ जो पिए हैं|

ग़ज़लें उन्हें कहें तो कैसे कहें बताओ,
जिनके अशार में भी न रदीफ काफिए हैं?

वे लोग काव्य रस का रसपान क्या करेंगे,
पर पीर हेतु जिनके पिघले नहीं हिए हैं?

चौसठ वसंत बीते फिर भी न जान पाया,
निज हेतु क्यों तुका ने दो-चार पल जिए हैं?

Wednesday, February 15, 2012

स्वतः बंधु मन से झगड़ना पड़ेगा,
हमें न्याय के साथ चलना पड़ेगा|

अगर ज्ञान- विज्ञान से दूरियाँ की,
प्रगति शीलता से बिछुड़ना पड़ेगा|

जहाँ छीनते शांति आतंकवादी,
उन्हें तट वहीँ पर मसलना पड़ेगा|

सदाचार के हेतु अश्लीलता के-
परों को महाशय कतरना पड़ेगा|

सदा तर्क-विज्ञान की युक्तियों से,
जहाँ के चलन को समझना पड़ेगा|

जिन्हें चाहिये कुर्सियाँ राजनैतिक,
उन्हें आचरण से संवारना पड़ेगा|

अगर प्यार है कुछ तुका,आदमी से,
भ्रमों के भंवर से उबरना पड़ेगा

Tuesday, February 14, 2012

अर्थ के संसार में त्यों, सभ्यता होती नहीं|
धर्म के व्यवहार में ज्यों, नव्यता होती नहीं||

पीढ़ियां दर पीढ़ियां, अज्ञानता की कोख में,
कैदियों-सी बीत जाती, रम्यता होती नहीं|

राजनैतिक सोच में, बदलाव होता लाजिमी,
सिर्फ सत्ता फेर से कुछ, भव्यता होती नहीं|

जाति-धर्मों से विरत, यदि एक पंगत है न तो,
एक रंगत से प्रमाणिक, साम्यता होती नहीं|

लाख शोधन कीजिये, परिणाम निकलेगा यही,
तस्करों की ज़िन्दगी में, सत्यता होती नहीं |
असरदार इतनी इबादत तुम्हारी|
तुम्हें मिल गई है विरासत तुम्हारी||

परख ली समझ ली शराफ़त तुम्हारी,
जहाँ को विदित है करामत तुम्हारी|
...
किया जाएगा नाम बदनाम वो भी,
अजी जो करेगा रफ़ाक़त तुम्हारी|

बताना नहीं चाहता हूँ किसी को,
हुई किसलिए हैं हिफ़ाज़त तुम्हारी|

दबे बोझ से जो यहाँ लोग उनको,
नहीं न्याय देती अदालत तुम्हारी|

बदल जाएगा रंग माहौल पल में,
अगर मैं सुना दूँ हमाक़त तुम्हारी|

सरस लोकशाही यहाँ आ चुकी है,
रही यह नहीं अब रियासत तुम्हारी|

नहीं डींग मारो कभी इस तरह से,
तुका से छिपी क्या हकीकत तुम्हारी?

Saturday, February 11, 2012


विदित नहीं  जिनको जीवन की,संवर्धक तस्वीर|
उन्हीं को  जकड़े  धन जंजीर||
उन्हीं को जकड़े  धन जंजीर|||
 
 
अर्थ व्यर्थ है नहीं बंधुओं,मगर न वह मानव का स्वामी|
सर्जनात्मक शक्ति उसी में,जो है सदाचरण अनुगामी ||
खींच रहे जो भेदभाव की ,कलुषित कपट लकीर |
उन्हीं को जकड़े  धन जंजीर||
उन्हीं को जकड़े  धन जंजीर|||
 
जिनकी दुनिया रंग रँगीली,वे क्या जाने प्रेम फकीरी|
सुविधाभोगी समुदायों को, बहुत सुहाती दादागीरी||
मज़लूमों को रहे समझते, जो अपनी जागीर|
उन्हीं को जकड़े  धन जंजीर||
उन्हीं को जकड़े  धन जंजीर|||
 
जिनकी राहें लंबी-चौड़ी, वे सकरी गलियाँ क्या जानें?
खुद को सभ्य समझने वाले,समझदार को क्यों पहचानें?
लूट-पाट करके जो खाते, मुर्ग-मुसल्लम खीर|
उन्हीं को जकड़े  धन जंजीर||
उन्हीं को जकड़े धन जंजीर|||
 

Friday, February 10, 2012


किसके साथ खड़े हो जायें,
अब तक नहीं समझ में आया|
 
यहाँ जातियाँ बोल रहीं हैं,
नफ़रत के दर खोल रहीं हैं,
जनता को बस वोट समझ के-
अब तो लगवा मोल रहीं हैं|
बजा रहे वे किसका उनको,
ढोलक नहीं समझ में आया|
 
डम डम डम डुग्गी पिटवायी,
इधर- उधर से भीड़ जुटायी,
क्या करना है नहीं बताया-
विरिधियों की करी बुरायी|
राजनीत का दाँव-पेंच तो,
बेशक नहीं समझ में आया|
 
दिन में दिखा रहे हैं तारे,
लगवा  रहे विषैले  नारे,
वातावरण प्रदूषित सारा-
हुआ समझिये इनके मारे|
असमंजस से भरे शोर में,
वंचक नहीं समझ में आया|
 
किसको लोकतंत्र को मारा?
किसने किया सघन अंधियारा?  
किसने जन गण मन के मुँह का-
धन से स्वाद कर दिया खारा?
बहुत किया विश्लेषण फिरभी-
सर्ज़क नहीं समझ में आया|
 
सोचता हूँ एक दिन संसार में,
ज़िन्दगी के सत्य को सब जान ही लेंगे|

आज हावी अर्थ की है कामना,
स्वार्थ ने सीखी सिखायी याचना,
हाथ में व्यापारियों के शक्ति है-
इसलिए ओझिल हुई सद्भावना|
शब्द सरि से न्याय की धारा बहे-
तो अनय के शमन हित रण ठान ही लेंगे|

साधना के मार्ग को जिसने चुना,
क्या उचित अनुचित सदा उसने गुना,
द्वेष की धारा रुकी रोके नहीं--
स्नेह सिंचित श्लोक तो सबने सुना|
मानवीयत को परखने के लिए-
है कसौटी आचरण सब मान ही लेंगे|

कौन-सी सर्वोदयी है सभ्यता,
भव्यता क्यों चाहती है नव्यता,
आप जो अपने बने आदर्श हैं-
लोग कहते उस चलन को सत्यता|
ज्ञान का दिनमान जो होगा उसे-
विश्व के इंसान खुद पहचान ही लेंगे|

Monday, February 6, 2012

जाति सूचक नाम का ठप्पा लगाये हैं,
और कहते घूमते अब जातियां तोड़ो|

इन छली बहुरूपियों से बात क्या करना?
इनकी बनायी राह ऊपर पैर क्या धरना?
वे अँधेरी खोलियों का दर्द क्या जानें-
लक्ष्य जिनका स्वार्थ की बस झोलियाँ भरना|
नफरतों की आग बरसाते सदा रहते,
और कहते हैं ह्रदय से अब ह्रदय जोड़ो|

ये हमारे वे तुम्हारे मानते आये,
श्रम समर्पित आदमी उनको कहाँ भाये?
चैन की दो रोटियों के जब बने रस्ते -
तब ठगों ने मजहबी संघर्ष करवाये|
रात-दिन पर स्वत्व ऊपर डालते डांका,
और कहते लूट की अब धार को मोड़ो|

सोच में संकीर्णता व्यवहार अन्यायी,
आचरण को शील शुचिता छू नहीं पायी,
वेशभूषा साधुओं-सी स्वच्छ पर उर में,
जो हटाने से न हटती कालिमा छायी|
गाँव-नगरों की गली में रूढ़ि के नारे-
और कहते भूत की बातें सभी छोड़ो|

Saturday, February 4, 2012

मुस्कराने से हमेशा रक्त बढ़ता मानिये|
अस्थियाँ मजबूत होती मांस चढ़ता मानिये||

आदमी अभ्यास करता जो सजग रहकर सदा,
वह सफलता के शिखर की ओर बढ़ता मानिये|
स्वार्थ विरहित जो रहे परमार्थ में तल्लीन वो,
विश्व के उत्थान के नव मूल्य गढ़ता मानिये|

आत्मबल पर जो भरोसा रख सके हर हाल में,
वो समय के सिंधु के उस पार कढ़ता मानिये|

राज्य से चाहत रखे भयग्रस्त जीवन जो जिये,
दोष अपने वो पराये शीश मढ़ता मानिये |

जिस ह्रदय को हो नहीं इच्छा अनैतिक लाभ की,
वो 'तुका ' इंसान प्रेमी गीत पढ़ता मानिये |

Friday, February 3, 2012

नफरत भरे अधर को, हर बार प्यार दूँगा|
कवि कर्म के सहारे, जग को सँवार दूँगा||
मन में यहीं इरादा, कवि ने संजों लिया हैं,
मझधार फँस गये जो, उनको उबार दूँगा|
दिन-रात साधना में, इस ख्याल से लगा हूँ,
जो क़र्ज़ भूमि का है, कुछ तो उतार दूँगा|
यह घोषणा नहीं प्रिय!,तहरीर ज़िन्दगी की,
अनुभूति से मिले जो, वे ही विचार दूँगा|
चुपचाप ज़िन्दगी भर दुख झेलते रहे जो,
उनकी समग्र पीड़ा निश्चय उभार दूँगा||
कविता ‘तुका’ किसी की करती न चापलूसी,
इस ख्याल से स्वदेशी छवि को निखार दूँगा|