Monday, February 6, 2012

जाति सूचक नाम का ठप्पा लगाये हैं,
और कहते घूमते अब जातियां तोड़ो|

इन छली बहुरूपियों से बात क्या करना?
इनकी बनायी राह ऊपर पैर क्या धरना?
वे अँधेरी खोलियों का दर्द क्या जानें-
लक्ष्य जिनका स्वार्थ की बस झोलियाँ भरना|
नफरतों की आग बरसाते सदा रहते,
और कहते हैं ह्रदय से अब ह्रदय जोड़ो|

ये हमारे वे तुम्हारे मानते आये,
श्रम समर्पित आदमी उनको कहाँ भाये?
चैन की दो रोटियों के जब बने रस्ते -
तब ठगों ने मजहबी संघर्ष करवाये|
रात-दिन पर स्वत्व ऊपर डालते डांका,
और कहते लूट की अब धार को मोड़ो|

सोच में संकीर्णता व्यवहार अन्यायी,
आचरण को शील शुचिता छू नहीं पायी,
वेशभूषा साधुओं-सी स्वच्छ पर उर में,
जो हटाने से न हटती कालिमा छायी|
गाँव-नगरों की गली में रूढ़ि के नारे-
और कहते भूत की बातें सभी छोड़ो|

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