Saturday, December 22, 2012

शायद नयी नजीर से तकलीफ़ हो रही,
बढ़ती हुई लकीर से तकलीफ़ हो रही |

शोषित गरीब वर्ग को दो रोटियाँ मिलीं,
कितनी यहाँ अमीर को तकलीफ़ हो रही|

जब से समाज में दबी आवाज़ उठ रही,
तब से सुना बजीर को तकलीफ़ हो रही|

पर पीर से जिन्हें नहीं किंचत लगाव है,
उनको अधीर पीर से तकलीफ़ हो रही |

जो लोग चाहते ठगी जड़ता बनी रहे,
उनको तुका कबीर से तकलीफ़ हो रही|  

Wednesday, December 19, 2012


कुछ लोग मुहब्बत के घर में नफ़रत की बातें करते हैं,
कुछ नफ़रत सहते हँसकर के चाहत की बातें करते हैं|

खल नायक तो व्यवहार हीन आदत की बातें करते हैं, 
जिसकी न इबारत पढ़ सकते उस खत की बातें करते हैं|

इस दुनिया का दस्तूर यही थोड़ा-सा अर्थ चढ़ा करके,
हर भाँति अनधिकृत पाने को मिन्नत की बातें करते हैं|

उन लोगो को सम्मान लाभ यूँ ही मिलता रहता है जो,
सत्ता की चौखट छूने को कसरत की बाते करते हैं|

ये दौर न जाने कैसा है किस ओर और अब भाग रहा, 
जो लूट रहे पर इज्जत वे इज्जत की बातें करते हैं|

उनके लेखन को मान ‘तुका’ किस भाँति दिया जा सकता जो,
साहित्यकार बनते हैं पर दौलत की बातें करते हैं|

Wednesday, December 12, 2012

तन की सुंदरता अच्छी है,मन भी सुन्दर कर लें|
अगर हो सके स्नेह-सिंधु में,गहरा और उतर लें||

कभी-कभी नफ़रत की वाणी, अधरों पर आ जाती,
चमक-दमक दौलत की प्रायः,नैनों पर छा जाती|
निष्पृह हो परमार्थ स्वरों से, अपने अंतर भर लें|
अगर हो सके स्नेह-सिंधु में,गहरा और उतर लें||

बनी बनायी राहें जग में,जन अक्सर अपनाते,

कवि गण तो जीवन मंजिल के, मार्ग नवीन बनाते|
जीवन के उलझे प्रश्नों का, स्वतः खोज उत्तर लें|
अगर हो सके स्नेह-सिंधु में,गहरा और उतर लें|| 

बिना प्रयोजन समय बिताना,कवि का धर्म नहीं है,
भलीभाँति यह सत्य समझ लें, सच्चा स्वर्ग यहीं है | 
अपने सुख की करें न चिंता,औरों के दुख हर लें |
अगर हो सके स्नेह-सिंधु में,गहरा और उतर लें||

यहाँ दूसरों के हित जिसने, मर मिटना जाना है,
उसको युग ने मुक्त भाव से, संतों- सा माना है|
उपेक्षितों की गलियों में भी,थोड़ा-बहुत विचर लें|
अगर हो सके स्नेह-सिंधु में,गहरा और उतर लें||

Saturday, November 24, 2012

एक प्यास हेतु प्यासा गीत :-

आँखों की प्यास,कानों की प्यास|
तृप्त हो सकी न अधरों की प्यास||
प्यास तो आखिर प्यास है प्यास ...

जीवन भरा आँगन मिला,पावन भवन सुहावन मिला,
गोदी लिए माँ ने कहा,लोचन लुभावन लालन मिला| 
रोने की प्यास, सोने की प्यास,
होती थी तब न खोने की प्यास|
आँखों की प्यास,..

ज्योंही हुए सीधे खड़े,रह न सके वहीँ गिर पड़े,
ओंओं सुना त्योंही सभी,गुस्से भरे कुछ-कुछ लड़े| 
दादा की प्यास,दादी की प्यास,
नाना जी और नानी की प्यास|
आँखों की प्यास,...

चलने लगे ढलने लगे,सजने लगे नचने लगे,
आने लगे जाने लगे घर बाहर निकलने लगे|
फूलों की प्यास,झूलों की प्यास,
रहते थी खूब झूलों की प्यास|
आँखों की प्यास,...

इसने कहा उसने कहा,इनको सहा उनको सहा,
चलता रहा गलता रहा,नित्य प्रपात समान बहा| 
खेलों की प्यास,मेलों की प्यास ,
फिर विद्द्या हेतु,जेलों की प्यास|
आँखों की प्यास,...

सपने दिखे नपने दिखे,अपनों में न अपने दिखे,
जो भी दिखे खपने दिखे,सच के हेतु ढपने दिखे| 
जीने की प्यास सीने की प्यास,
प्यासी की आज प्यासी है प्यास|
आँखों की प्यास,...

इनके लिए उनके लिए,हम जी रहे उपवन के लिए,
कविता यही कहती सदा,जी भर जिओ जन-मन के लिए|
यादों की प्यास वादों की प्यास,
कैसे हो पूर्ण म्यादों की प्यास |
आँखों की प्यास,कानों की प्यास,
तृप्त हो सकी न अधरों की प्यास||
प्यास तो आखिर प्यास है प्यास...

Friday, November 23, 2012

मंच का साहित्य से अब क्या रहा नाता,
गीत पढ़िए वे जिन्हें सुन खुश रहे दाता|

कवि लिफाफे का बजन पहचानता,
वह नियति आयोजकों की जानता,
इसलिए पक्षी- विपक्षी राजनेता का-
वह सुरक्षित ख़ूब रखना चाहता हाता|

कल यहाँ से वह वहाँ जब जाएगा,
तब वहाँ तारीफ़ उनकी गाएगा ,
श्रेष्ठ कवि की मान्यता का पात्र वह सच्चा-
जो कि उनके वोट का बढ़वा सके खाता|

जन हितैषी संगठन जो तोड़ दे,
सब ठगों को जेल से जो छोड़ दे,
गाँव-नगरों में बहा दे सोम की धारा-
नागरिक उसको कहेंगे क्यों नहीं ज्ञाता?

मत जगाओ चित्त वह जो सुप्त है,
यह कथा जन चेतना की गुप्त है,
देश में युग बोध हो जब चेतना वर्षा-
तानिए तब रूढ़ि-जड़ता का तुरत छाता|

Thursday, November 22, 2012



सत-असत्य का ध्यान नहीं है,शब्दों का शिव ज्ञान नहीं है|
वह कैसे सुन्दर लिख सकता,जिसको युग पहचान नहीं है?

कहाँ लगानी होती यति है,कहाँ बढ़ानी होती गति है?
किस प्रकार बढ़ती पद-मैत्री,लय सरसाती सदसम्मति है|
वह इंसानी भाव भरे करे क्या,जिसमें उर इन्सान नहीं है?
वह कैसे सुन्दर लिख सकता,जिसको युग पहचान नहीं है?

जिसने सच को जिया नहीं है,परहित विष को पिया नहीं है|
जिसने अपने कहे हुए को,जीवन भर तक किया नहीं है ||
वह कैसा अन्वेषक होगा, जिसको प्रिय विज्ञान नहीं है| 
वह कैसे सुन्दर लिख सकता,जिसको युग पहचान नहीं है? 

कहने को वह महामना है,उज्ज्वल पहनावा पहना है|
पर उसको अनुकूल धार के,साथ-साथ अविरल बहना है||
ऐसे लेखन से हो सकता,सफल न्याय अभियान नहीं है| 
वह कैसे सुन्दर लिख सकता,जिसको युग पहचान नहीं है?

Friday, November 16, 2012

शिक्षा ने जीवन -उन्नति के,मार्ग किये आसान|
हटाये बड़े-बड़े व्यवधान||
हटाये बड़े-बड़े व्यवधान||| 

मान लिया यह दौर अर्थ का,शासन दिखता है समर्थ का,
लेकिन इन दोनों से उपजा,विज्ञापनी विचार व्यर्थ का ||
विद्द्या बल से हो सकता है,हम सबका का उत्थान|
शिक्षा ने जीवन -उन्नति के,मार्ग किये आसान|

हटाये बड़े-बड़े व्यवधान||

खुलती है जब आँख ज्ञान की,तब दिखती बांछा विधान की,
नियम -उपनियम समझे जाते,दशा न रहती खींच -तान की|
एक साथ परिचर्चा करते,मिल किसान विद्वान|
शिक्षा ने जीवन -उन्नति के,मार्ग किये आसान|
हटाये बड़े-बड़े व्यवधान|| 

लोकतंत्र का शिव विचार है,करना गलती का सुधार है,
वैज्ञानिक विधियों से होता, सड़े -गले का परिष्कार है|
नवशोधों से हरियाली में, बदल गये वीरान|
शिक्षा ने जीवन -उन्नति के,मार्ग किये आसान|
हटाये बड़े-बड़े व्यवधान||

Thursday, November 15, 2012

बंद क्यों संवाद?

बात यह तो सत्य सबको याद है, 
कातिलों की ज़िन्दगी आज़ाद है|

वाद है प्रतिवाद है उन्माद है,
धर्म है तो बंद क्यों संवाद है?

न्याय की सम्भावना किनसे करें,
कौन उजड़े ठौर पर आवाद है?


सृष्टि के प्रारम्भ से होती रही, 
वेदना की अनसुनी फरियाद है|

आज करुणा नीर नैनों में कहाँ,
मौम-सा उर हो चुका फौलाद है| 

लोकतांत्रिक सोच कैसे हो 'तुका',
जातियों की बद रही तादाद है |

Tuesday, November 13, 2012

तिमिर के बीच रहकर रौशनी के हेतु जीने का|
कहा जाता नहीं अब तो किसी से दर्द सीने का|| 

इसे मत भूल जाओ विश्व का इतिहास कहता है, 
सुनहरे दीपकों में तेल है श्रम के पसीने का|

उन्हें सम्मान देकर कौन -सी चाहत संजोये हो,
कि जिनका शौक है इंसानियत का रक्त पीने का||

उसी की नवप्रभा से कुछ प्रकाशित लोग हो सकते,
न होता रंग है बदरंग किंचित जिस नगीने का|

यहाँ जो बौद्ध हिन्दू जैन मुस्लिम सिक्ख ईसाई,
सभी को ख्याल रखना है मनुष्यों के करीने का|

यही तो विश्व की सुख- शान्ति के हित में जरूरी है,
नहीं उपहास करना है किसी के भी सफीने का|

किसी की बात को सुनकर भड़कना छोड़िये अबतो,
'तुका' मतलब समझना चाहिये काशी-मदीने का|


दीपमालिका के स्वागत में,नभ ने मोती वारे हैं|
जग-मग,जग-मग दीपक जलते,लगते शुभ्र सितारे हैं||

समरसता सहकार शील का,वातावरण सुहाना है|
दसों-दिशाओं में सद्भावी,गुंजित मोहक गाना है||
फुलझड़ियों की चमक-दमक से,शोभित सब गलियारे हैं|
जग-मग,जग-मग दीपक जलते, लगते शुभ्र सितारे हैं||

अमा निशा पर विजय पताका,दीपों ने फहरायी है|
युवक युवतियाँ बालक बृद्धों,पर उमड़ी तरुणायी है||
दीपों के अविरल प्रकाश से,ज्योतिर्मय घर-द्वारे हैं|
जग-मग,जग-मग दीपक जलते,लगते शुभ्र सितारे हैं||

हर्षित मन से सभी दे रहे,सबको पर्व बधाई भी|
भेज रहे हैं एक दूसरे,हेतु विशेष मिठाई भी||
खील बताशे सजे खिलौने, दिखते सरस दुलारे हैं |
जग-मग,जग-मग दीपक जलते,लगते शुभ्र सितारे हैं||

Friday, November 9, 2012


ज्योति पर्व का अर्थ यही है,अन्धकार छट जाये|
स्वार्थ सिद्धि दुर्वृत्ति व्यक्ति के,अंतर से हट जाये||

समरसता के दीप सर्वथा,वह प्रकाश फैलायें,
जिनके कारण दसों दिशायें,ज्योतिर्मय हो जायें||
नैतिकता के परिपालन का,प्रेम पाठ रट जाये|
स्वार्थ सिद्धि दुर्वृत्ति व्यक्ति के,अंतर से हट जाये||

आहें व्यथित कराहें सबकी,भलीभाँति पहचानें |
अपने ही समकक्ष सर्वथा,हर मानव को मानें||
भेद -भाव की दूषित खाई,यथाशीघ्र पट जाये|
स्वार्थ सिद्धि दुर्वृत्ति व्यक्ति के,अंतर से हट जाये||

समझ सकें सद्धर्म मर्म को,दर्प न मन में लायें|
सहकारी सहयोग सभ्यता,सदाचार अपनायें||
सर्जन पथ से निष्क्रियता का,दुष्प्रभाव घट जाये|
स्वार्थ सिद्धि दुर्वृत्ति व्यक्ति के,अंतर से हट जाये||


युगीन गीत 
दीप-सा जल के ---

सुन सको तो फिर सुनो,संवेदना कवि की,
कब तक सहोगे मार तुम अन्याय की?

आदमी हो आदमी का अर्थ तो जानो,
ज़िन्दगी के लक्ष्य को स्वयमेव पहचानो,
जो सुगन्धित जग करे,उसको सुमन कहते-
भर पेट चरने की नियत चौपाय की|
कब तक सहोगे मार तुम अन्याय की?

आग जैसी धूल पर जो पैर चलते हैं,
बुद्धिबल से वे सभी अवरोध दलते हैं,
वे सहज ही खोज लेते मार्ग जीवन के-
जिनको रही सुधि स्वत्व की अभिप्राय की|
कब तक सहोगे मार तुम अन्याय की?

जो किसी से दान में उत्थान पाते हैं,
वे उसी की स्वस्ति संयुत गीत गाते हैं,
बुदबुदायें यों लगे ज्यों खोलने से भी-
खुलती न खिड़की ज्ञान के संकाय की|
कब तक सहोगे मार तुम अन्याय की?

एक पल की साधना भी व्यर्थ क्यों जाये,
जो करे सत्कर्म वो नव मंज़िलें पाये,
विश्व उसकी कार्य शैली याद रखता जो-
दीप-सा जल के तज सके अधिनायकी|

Monday, November 5, 2012


एक समसामयिक गीत इसे मिलकर गुनगुनाइये:-

जिन हाथो में सौंप रहे हो, तुम अपनी तकदीर|
उन्होंने किये पाप गंभीर|
उन्होंने किये पाप गंभीर||
उन्होंने किये पाप गंभीर|||

साठ वर्ष तक सुविधाभोगी,भोगे भोग हो गये रोगी,
देश गर्त में डुबो चुके वे, जो बनते उत्थान प्रयोगी|
प्रगति विरोधी जिन पैरों में,जड़ता की जंजीर|
उन्होंने किये पाप गंभीर|
उन्होंने किये पाप गंभीर||
उन्होंने किये पाप गंभीर|||

एक फ़िक्र उनको सत्ता की,मतदाताओं के छत्ता की, 
यदपि आर्त भाव से गूंजे,विकल व्यथा पत्ता-पत्ता की|
ऐसे में भी बना रहे जो,शोषण से जागीर|
उन्होंने किये पाप गंभीर|
उन्होंने किये पाप गंभीर||
उन्होंने किये पाप गंभीर|||

अवसर है इनको पहचानो,इनका बातें सच मत मानो,
इन्हें सुहाती काली पूँजी,इनको मानव दुश्मन जानो|
हर चौराहे पर लटकी है,जिन-जिन की तस्वीर|
उन्होंने किये पाप गंभीर|
उन्होंने किये पाप गंभीर||
उन्होंने किये पाप गंभीर|||

Saturday, November 3, 2012

बिना संकोच दो पल वे चले जाते सताते हैं|
किसी के याद में सपने घने आते सताते है||

सुनाऊ दर्द की ज्वाला बताओ कौन समझेगा,
यहाँ के लोग वैभव की कथा गाते सताते हैं|

हमेशा पास जो रहते जिन्होंने दोस्त माना वे,
व्यवस्था से प्रताड़ित मित्र के नाते सताते
हैं|

गरीबी की महामारी किये है चुप गरीबो को ,

मगर धनवान को भी बैंक के खाते सताते हैं|

जिन्हें सूरत किसी की खींच अपनी ओर लेती हो,
उन्हें सीरत नहीं बस अंग प्रिय भाते सताते हैं|

कभी नजदीक आने के लिए जो यत्न करते थे,
सुना है वे 'तुका' को आँख दिखलाते सताते हैं|

Thursday, November 1, 2012

प्रार्थना करना उसी की,
जो कि दायक हो,
याचना जिस द्वार से टाली नहीं जाये|

आज जो दानी छपे अखबार में,
बेच सकते वे तुम्हें बाजार में|
माँगना वरदान उससे,जो कि लायक हो,
रिक्त जिसके हाथ से थाली नहीं जाये|

याचना जिस द्वार से टाली नहीं जाये||

रार को क्या मान मिलता है कहीं?
प्यार से जग में बड़ा कुछ भी नहीं|
भावना चुनना वही जो,पथ प्रणायक़ हो,
जीभ तक विष से भरी प्याली नहीं जाये|
याचना जिस द्वार से टाली नहीं जाये ||

फूल शूलों से भला डरते कहाँ,
वे महकते हैं वहाँ रहते जहाँ|
कामना वो ही भली जो नय सहायक़ हो,
बाग से बाहर कभी माली नहीं जाये|
याचना जिस द्वार से टाली नहीं जाये|

Tuesday, October 30, 2012


हमारे पास भी जो रोकड़े थोड़े बहुत होते|
बगल में हाथ भी जोड़े खड़े थोड़े बहुत होते||

कहीं कोई अलौकिक बाप उनको भी मिला होता,
तभी तो शान से वो भी अड़े थोड़े बहुत होते|

चलाते वे नहीं डंडा कहीं पर भी बिना समझे,
विवेकी बैंत जो सिर पर पड़े थोड़े बहुत होते|

बिना कुछ शायरी के वाहवाही भी उन्हें मिलती,
नगीने गीत ग़ज़लों में जड़े थोड़े बहुत होते|

उन्हें तो मौन रहने की कला भी सीखनी पड़ती,
बने जो स्वार्थ से चिकने घड़े थोड़े बहुत होते| 

गरीबी ने कभी खट्टी कभी कड़वी सुनी सबकी,
अमीरी में पले होते कड़े थोड़े बहुत होते|

'तुका' उनको शहीदों-सा न मिलता मर्तबा कैसे,
कभी जो न्याय के हित में लड़े थोड़े बहुत होते|

Monday, October 29, 2012


लिख-पढ़कर भी गाली देना, सीख लिया कुछ लोगों ने|
छीन झपट कर घर भर लेना, सीख लिया कुछ लोगो ने||

कमजोरों का शोषण करके, ठगुओं-सी पहचान बनी, 
पर वीरों-सी मूछें टेना, सीख लिया कुछ लोगों ने|

हड्डी तोड़ परिश्रम करके, थोड़ी भूख मिटाने को,
बस दो मुठ्ठी मिले चबेना, सीख लिया कुछ लोगो ने|

जीवन के चौथेपन में भी, अपने ही हाथों के बल से ,
अपनी नाँव आप ही खेना, सीख लिया कुछ लोगों ने|

यदि होती है तो होने दो, बर्बादी की क्या चिंता, 
प्रगतिशील व्यवहार बढ़े ना,सीख लिया कुछ लोगों ने|

राजनीति करनी है जिनको, वे क्यों सच को देखेंगे,
मरती है मरने दो सेना, सीख लिया कुछ लोगों ने|

जो कुछ करना है कर डालो,रखना ध्यान 'तुका' इतना,
धर्म विरोधी शोर मचे ना, सीख लिया कुछ लोगों ने |

Saturday, October 27, 2012

भैया:-

सुनो! हमारे भैया ,
क्या कहती गौरैया?

उजड़ रहा है चमन हमारा,
कहीं न दिखता सहज सहारा,
पता नहीं क्यों सभी-सभी से-
अब तो करने लगे किनारा|
बहुत दुखी है हाल देखकर-

अपनी भारत मैया|
सुनो हमारे भैया--

आओ बैठो पास हमारे,
दूर न जाओ ह्रदय दुलारे,
रूठे रहना ठीक नहीं है -
आर्त भाव से वक्त पुकारे|
जो न समझते सच्चाई को-
उनका कौन बचैया|
सुनो! हमारे भैया,
कहती है गौरैया|

अगर पूर्ण करना है सपना,
आँख कान मुँह खोलें अपना,
लोकतंत्र के लिए न्याय का,
स्नेह सिक्त अपनायें नपना|
जो न चलते साथ समय के-
करते ताता-थैया|
सुनो! हमारे भैया,
कहती है गौरैया---

Sunday, October 7, 2012


पहचान बदल डाली तहरीर बदल डाली,
सच है कि जमाने की तस्वीर बदल डाली|

कुछ नेत्र यहाँ हैं जो सच देख रहे सबका,
सरकार छिन गई तो तकरीर बदल डाली|

जिनको न यहाँ मिलती थी प्याज नमक रोटी,
उनकी नये ख्याल ने तकदीर बदल डाली|

नफ़रत जिन्हें हमेशा उपहार में मिली है,
उन शील साधकों ने शमसीर बदल डाली|

यह बात जरा सी है पर है नजीर युग की,
श्रम ने अनीतियों की जंजीर बदल डाली|

हर भांति 'तुका' उनके संपर्क बनाये है ,
जलवायु की जिन्होंने तासीर बदल डाली|

ठग साठ साल बाद बेहतरीन हो गया|
परतंत्रता बिसार के स्वाधीन हो गया|| 

यह गूंजता सबाल हैं हर गाँव शहर में,
विद्वान क्यों समाज से दो तीन हो गया?

बम दाग कर चला गया वो ईश नाम से,
उसका किया कुकर्म भी आमीन हो गया|

अफसोस के सिवाय कोई है उपाय क्या,
गुरु का चरित्र देखिये गुणहीन हो गया|

अब राजनीति में यहाँ विद्रोह-सा मचा,
सदभाव शिखर पर छली आसीन हो गया|

सच है तुका कि आदमी की बात हो रही,
पर जो गरीब है वही तो दीन हो गया|

Tuesday, October 2, 2012

प्रशासन मुँह ढके रहता कुम्भ की नींद सोता है,
ठगों का बोलवाला है तपस्वी नित्य रोता है|

पता कुछ कीजिये स्वयमेव अपने गुप्त स्रोतों से-
तुम्हारी राजधानी में बड़ा अन्याय होता है|

न घर में प्यार मिलता है न शिक्षा पाठशाला में,
यहाँ कन्या विलखती है बालपन बोझ ढोता है|

चमन में गुल खिलाने का जिसे दायित्व सौपा था,

वही तो काटता तरूवर निरन्तर शूल बोता है|

सदा निस्वार्थ चिंतन से सजग अभ्यास करने से,
उसे मिलती सफलता भी नहीं जो धैर्य खोता है|

उसे पत्थर नहीं केवल कभी मोती मिला करते,
'तुका'साहित्य सागर में लगाता जो कि गोता है|

Monday, September 24, 2012


वह तो रगड़-रगड़ कड़-कड़ -सा,हो तत्क्षण जाता है|
ह्रदय- परिंदा नीलगगन में,जब प्रिय! उड़ जाता है||

उचित यही है इस तन-मन को,नहीं बैठने देना,
जबतक साँस चले अंतर की,तबतक नौका खेना|
बिना किये व्यायाम वदन तो,स्वतः अकड़ जाता है|
ह्रदय- परिंदा नीलगगन में,जब प्रिय! उड़ जाता है||

यह कोई उपलब्धि नहीं है, सौ वर्षों तक जीना,
विस्तर ऊपर पड़े- पड़े ही, नीर माँगकर पीना|
बहुत व्यथित रहता वह जिसका,बाग उजड़ जाता है|
ह्रदय- परिंदा नीलगगन में,जब प्रिय! उड़ जाता है||

कहने करने में जब कोई, एक्य नहीं रहता है,
तब अभ्यंतर नित्य ग्लानि की,अग्नि बीच दहता है|
बिना उचित जलवायु बीज तो,बहुधा सड़ जाता है|
ह्रदय- परिंदा नीलगगन में,जब प्रिय! उड़ जाता है||

जग में दौड़ हो रही जतना,इसमें तुम दौड़ोगे,
उतने उच्च शिखर पर अपने-आप वहाँ पहुँचोगे|
वह प्रतिभागी सफल न होता,जो कि पिछड़ जाता है|
ह्रदय- परिंदा नीलगगन में, जब प्रिय! उड़ जाता है||

Tuesday, September 18, 2012


आदमी की किस तरह पीड़ा कहें अब आप से|
जल रहे इन्सान प्यारे! वेदना के ताप से ||

विश्वास बोझिल हो गये,अरमान उन के सो गये,
देख निबलों की व्यथा को,दुख-दर्द भंजक रो गये|
सुख-चैन के साधन सभी,उड़ गये हैं भाप से |
जल रहे इन्सान प्यारे! वेदना के ताप से ||

करुणा-दया के गेह में,आनंद -मूलक देह में,
अपयश समाता ही गया,अभिनय-प्रदर्शित-स्नेह में|
बहता हुआ जल नेत्र का,मापा गया कब नाप से |
जल रहे इन्सान प्यारे! वेदना के ताप से ||

प्रतिकूल धारा में बहा,शिव सत्य का साथी रहा,
सत को जिया,सत ही किया,भोगा हुआ अनुभव कहा|
स्वर दिया उनको सदा जो हैं व्यथित अभिशाप से|
जल रहे इन्सान प्यारे! वेदना के ताप से |

पूजा घरों से दूर हैं,पर,प्यार से भरपूर हैं,
नित ज्ञान के सहयोग से,सब दर्प करते चूर हैं|
हम जन्म से ही संत हैं,क्या अर्थ हमको जाप से|
जल रहे इन्सान प्यारे! वेदना के ताप से ||
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उर में भरी हुई है,शुचि गंध प्रिय! तुम्हारी|
सच है बिना तुम्हारे,पहचान क्या हमारी?

जो कुछ लिया दिया है,चुकता उसे किया है|
वितरित किया सुधारस,पर खुद गरल पिया है||
यह ज़िन्दगी प्रकृति के, सहयोग से सँवारी| 
सच है बिना तुम्हारे, पहचान क्या हमारी?

सहयोग की कहानी,यद्दपि बहुत पुरानी|
फिरभी युगीन स्वर में,फिर से पड़ी सुनानी||
हम प्यार के पुजारी,परमार्थ के प्रभारी|
सच है बिना तुम्हारे,पहचान क्या हमारी?

चाहे समीप आओ, चाहे सुदूर जाओ|
पर प्रार्थना यही है,मत प्यार आजमाओ||
हर साँस सर्जना के,अधिकार में गुजारी|
सच है बिना तुम्हारे,पहचान क्या हमारी?

Monday, September 3, 2012

तन का सदुपयोग भी करिये,धन के हेतु न मन को न मारो|
किस विधि कुछ सुधार हो सकता,इस पर अपने आप विचारो||

सुन्दरता की ओर निहारो,
पर अपने मन आप सँवारों,
यदि इंसा कहते हो खुद को-
तो न किसी की लाज उघारो|
जिनके सिर पर बोझ लदा है,उनके सिर से बोझ  उतारो|
किस विधि कुछ सुधार हो सकता,इस पर अपने आप विचारो||
इस धरती की रौनक सारी,
बेहद प्यारी बेहद न्यारी ,
इसके ऊपर जन्म लिया है-
इस हित इसके हैं आभारी|
प्रिय!इसके अधिकारी भी हो,यह सच जानो इसे उचारो |
किस विधि कुछ सुधार हो सकता,इस पर अपने आप विचारो||

सबको अपने जैसा मानो,
सबकी सुनो जिद्द मत ठानो ,
लोकतंत्र के अनुयायी हो-
लोकतंत्र का उर पहचानो|
मानव महिमा के विचार से, संविधान को और निखारो |
किस विधि कुछ सुधार हो सकता,इस पर अपने आप विचारो||

Sunday, September 2, 2012

दूरियाँ बढ़ गई पास आये नहीं|
वे हमें हम उन्हें जान पाये नहीं||

हाथ आखिर बढ़े के बढ़े रह गये,
साथ में बैठकर भोज खाये नहीं|

छंद अनुभूतियों के सुनाये सदा,
गीत परजीवियों हेतु गाये नहीं|

शील व्यवहार की ज़िन्दगी जी रहे,

जुल्म के अस्त्र किंचित उठाये नहीं|

काव्य लिखते पढ़ाते रहे ध्यान से,
शिष्य प्यारे लगे हैं पराये नहीं |

मित्रता के लिए मित्रता की सखे!
मित्र हमने कभी आजमाये नहीं |

सर्जना शक्ति के रक्त से सिक्त है,
शोषकों के 'तुकाराम' जाये नहीं|

Friday, August 31, 2012



Wednesday, August 29, 2012



Friday, August 24, 2012

कहने को मजबूर किया है,सतरंगी तस्वीर ने|
जकड़-जकड़ जनता को बाँधा,जड़ता की ज़ंजीर ने||

नहीं किसी को आज़ादी का, वातावरण मिला|
सदा सत्य कहने वाले से, शासन करे गिला||
मर-मर करके यहाँ जिया है,उमर दराज़ फकीर ने| 
जकड़-जकड़ जनता को बाँधा,जड़ता की ज़ंजीर ने||

किया परिश्रम नहीं जिन्होंने,उनका बाग खिला| 
जिन फूलों ने शूल न झेले, उनको मान मिला||

निबल जनों की नग्न पीठ ही,भेदी धार्मिक तीर ने|
जकड़-जकड़ जनता को बाँधा,जड़ता की ज़जीर ने||

लोकतंत्र भी राजतंत्र सी, चालें छली चले|
पैंसठ वर्षों बाद न्याय के,कुम्भ न कहीं ढले||
सींचे अभी न सूखे उपवन, समरसता के नीर ने |
जकड़-जकड़ जनता को बाँधा,जड़ता की ज़ंजीर ने||
कहने को मजबूर किया है,सतरंगी तस्वीर ने|
जकड़-जकड़ जनता को बाँधा,जड़ता की ज़ंजीर ने||

नहीं किसी को आज़ादी का, वातावरण मिला|
सदा सत्य कहने वाले से, शासन करे गिला||
मर-मर करके यहाँ जिया है,उमर दराज़ फकीर ने| 
जकड़-जकड़ जनता को बाँधा,जड़ता की ज़ंजीर ने||

किया परिश्रम नहीं जिन्होंने,उनका बाग खिला| 
जिन फूलों ने शूल न झेले, उनको मान मिला||

निबल जनों की नग्न पीठ ही,भेदी धार्मिक तीर ने|
जकड़-जकड़ जनता को बाँधा,जड़ता की ज़जीर ने||

लोकतंत्र भी राजतंत्र सी, चालें छली चले|
पैंसठ वर्षों बाद न्याय के,कुम्भ न कहीं ढले||
सींचे अभी न सूखे उपवन, समरसता के नीर ने |
जकड़-जकड़ जनता को बाँधा,जड़ता की ज़ंजीर ने||

Tuesday, August 21, 2012


      
बहुत से लोग हैं जो आज भी, पीछे खड़े रहते|
किसी से कुछ नहीं कहते,किसी से कुछ नहीं कहते||

उन्हें मालूम है उनको, सताया क्यों यहाँ जाता?
छिना भी वो लिया जाता,कि उनके हाथ जो आता|
हमेशा मौन रहते हैं,अकारण गालियाँ सहते|
किसी से कुछ नहीं कहते,किसी से कुछ नहीं कहते||

जिन्हें ये वोट देते हैं,उन्हीं के हाथ पिटते हैं|
उन्हें सुख धाम मिल जाते,मगर ये लोग मिटते हैं|
इशारों पर उन्हीं के तो,पवन जैसा सदा बहते|
किसी से कुछ नहीं कहते,किसी से कुछ नहीं कहते||

इन्हें जीवन मिला फिरभी, उसे ये जी नहीं सकते|
न भोजन पेट भर पाते,मधुर जल पी नहीं सकते||
उन्हीं के हेतु जीते हैं, उन्हीं के हेतु ये दहते |
किसी से कुछ नहीं कहते,किसी से कुछ नहीं कहते||

Sunday, August 19, 2012

एक ओर है हर्ष ईद ....

एक ओर है हर्ष ईद का,एक ओर विध्वसं|
सहेगी जनता कितने दंश?
सहेगी जनता कितने दंश?

सावन के अंधे को दिखती, दुनिया धानी-धानी |
कुछ घर सिवईं सरस बिरयानी,कुछ को मिले न पानी|
पलक झपकते हुए दर बदर,यहाँ सहस्रों वंश|
सहेगी जनता कितने दंश?

सहेगी जनता कितने दंश?

अफवाहों की आग लगी है,बंधु भरोसा टूटा|
अपनों ने अपनों को कैसा,लूटा पीटा कूटा||
राजनीति के कारण रिपु-सा,दिखे अंश को अंश|
सहेगी जनता कितने दंश?
सहेगी जनता कितने दंश?

लोकतंत्र में राजतन्त्र -सा,छली आचरण दिखता|
जिसने थामी न्याय लेखनी,वह भी सत्य न लिखता||
किसको समझें बाज़ जंगली,किसको समझें हंस?
सहेगी जनता कितने दंश?
सहेगी जनता कितने दंश?

Sunday, August 12, 2012

जिन्हें सताया गया हमेशा, उन सबकी पहचान हैं|
जुटे रहे प्रिय! पर सेवा में, सरल सहज इन्सान हैं||

मजहब के जो नहीं खिलाड़ी,ठग विद्या के नहीं जुगाड़ी,
पढ़े-लिखों ने जिनको समझा,अविवेकी अत्यंत अनाड़ी|
सदा धूल में गये मिलाये, निबलों के अरमान हैं | 
जुटे रहे प्रिय! हैं पर सेवा में, सरल सहज इन्सान हैं||

नहीं मिली सदियों तक शिक्षा,बात-बात पर दिये परीक्षा,
पुरखों के जीवन यापन की, हुई नहीं निष्पक्ष समीक्षा||

कुछ छलिया विपरीत इन्हीं के,चला रहे अभियान हैं|
जुटे रहे प्रिय! पर सेवा में, सरल सहज इन्सान हैं||

लोकतंत्र में भी मनमानी,कुछ करते हैं खींचा-तानी,
अपने आप विचार कीजिये,कब तक होगी यह नादानी?
अब तो शोषित पढ़े-लिखे हैं,शीलवान विद्वान हैं| 
जुटे रहे प्रिय! पर सेवा में, सरल सहज इन्सान हैं||

समता परक विधान हमारा,इसने जन-जन को स्वीकारा,
सब स्वतंत्र अभिव्यक्ति हेतु हैं,अब न सत्य से कसो किनारा|
हम सब भारत के वासी हैं,भारत की संतान हैं | 
जुटे रहे प्रिय! पर सेवा में, सरल सहज इन्सान हैं||

Friday, August 10, 2012

एक गीत "शब्द -शक्ति "

अपने आप ह्रदय पीड़ा को, आँखों ने बतलाया है|
अनुभव कहता अर्थतंत्र ने, सबको सदा सताया है||

बहुत क्रूर होती है सत्ता,उसे तर्क से क्या लेना|
जो विरोध करता शासन का,उसे मसलती है सेना||
न्याय पालिका आभूषण है,किसने न्याय निभाया है? 
अनुभव कहता अर्थतंत्र ने, सबको सदा सताया है||

स्वर्ग-नर्क लालच भय वाले,सत्ता हेतु खिलौने हैं|
ये शासक की जय-जय करते,होते बहुत घिनौने हैं||
पुरोहितों ने कुछ जाने-अनजाने सत्य छिपाया है |
अनुभव कहता अर्थतंत्र ने, सबको सदा सताया है||

सत्यपथी सद्धर्म विवेकी, जुड़ न व्यवस्था से पाते|
प्राणदान के बाद यही तो, ईश्वर कहलाये जाते ||
भोले-भालों ने इन सबको, निज आदर्श बनाया है|
अनुभव कहता अर्थतंत्र ने, सबको सदा सताया है||

कवि तो शब्द-शक्ति के बल से,नवयुग बोध कराते हैं|
जन गण मन की विपदाओं का,निराकरण समझाते हैं||
विविध चारणों ने अनादि से,नृप का ढोल बजाया है|
अनुभव कहता अर्थतंत्र ने, सबको सदा सताया है||

Tuesday, August 7, 2012

मीठी बातें जो करते वे, करें न मीठे काम|
भले लगते उनको संग्राम ||
भले लगते उनको संग्राम|||

कभी जाति के कभी वर्ग के,कभी क्षेत्र के झगड़े,
कभी अचानक उठवा देते, विषद मजहबी लफड़े|
नहीं सोचते हैं क्या होगा,इन सबका अंजाम|
भले लगते उनको संग्राम ||
भले लगते उनको संग्राम|||

कुछ के जलते घाष घरोंदे,कुछ की जलें दुकानें,
इनके चेले मौज उड़ायें, अनुचित उचित न जानें|
अपनी सिद्ध श्रेष्ठता करते, बतलाकर उपनाम|
भले लगते उनको संग्राम ||
भले लगते उनको संग्राम|||

शासन और प्रशासन इनके,आगे चुप रहता है,
कभी कभी तो इनके हित की,परिभाषा कहता है|
इनकी अर्थ शक्ति के आगे,सत्ता करे प्रणाम|
भले लगते उनको संग्राम ||
भले लगते उनको संग्राम|||

Monday, August 6, 2012

दुनिया भर पर हँसने वालों,अपने को भी देखो|
अपनी आँखों से दुखियो के,सपने को भी देखो||

अपने लिए जुटा लेते हैं, सुख सुविधायें जो भी,
जन सेवा के दायित्वों से, बंधे हुए हैं वो भी |
क्वार धूप में नग्न वदन के,तपने को भी देखो|
अपनी आँखों से दुखियो के,सपने को भी देखो||

ढांक नहीं सकते मत ढांको,किन्तु न लाज उघारो,
ये अमीर क्यों,वे गरीब क्यों,इस पर स्वतः विचारो|
जिसके द्वारा नाप रहे उस,नपने को भी देखो|
अपनी आँखों से औरों के, सपने को भी देखो||

कितनी भी हो शक्ति वदन में,फिर भी तो वह थकता,
शिक्षा बिना समाज कभी भी,प्रगति नहीं कर सकता|
सीढ़ी चढ़ते लघु पैरों के, कपने को भी देखो|
अपनी आँखों से औरों के, सपने को भी देखो||

Friday, August 3, 2012

क्या कहने चतुराई ?
अरे बधाई अरे बधाई अरे बधाई भाई,
क्या कहने चतुराई ......

गाँव-शहर में लोकपाल की डुग्गी थी पिटवाई,
एक मदारी ने दिल्ली में कुछ दिन भीड़ लगाई,
खेल तमाशा दिखा-दिखा के शोहरत रूपी धन को-
राजनीति में निवेश करने की क्या जुगत बनाई|
क्या कहने चतुराई ....
अरे बधाई अरे बधाई अरे बधाई भाई,
क्या कहने चतुराई .......

अब तो जनता देख तमाशा वापिस घर को आई,
अनुभव जब पूछा औरों ने तो बस आँख चुराई,
अंध भक्ति की आशाओं ने जब स्वयमेव विचारा=
तब अपनी अविवेक वृत्ति पर, जीभ नहीं खुल पाई|
क्या कहने चतुराई ?
अरे बधाई अरे बधाई अरे बधाई भाई,
क्या कहने चतुराई .......

राजनीति का खुला अखाड़ा,जिसके कई खिलाड़ी,
इंतजार की लगी  पंक्ति में ,खड़े अनेक जुगाड़ी,
अवसर अच्छा है घुस बैठो ,नहीं गंवाओं इसको- -
कुछ दिन के उपरान्त सही है, बनते दक्ष अनाड़ी|
आज समय है कल मत कहना,क्यों न राह दिखाई ?
क्या कहने चतुराई ?
अरे बधाई अरे बधाई अरे बधाई भाई,
क्या कहने चतुराई .......

Thursday, July 26, 2012

परेशान करते सबालात कर लें |
चलो ज्ञानियों से मुलाक़ात कर लें||

सदाचार के वे बड़े है पुरोधा,
भलाई बुराई जरा ज्ञात कर लें|

वही हाजिरे दौर के हैं मसीहा,
उन्हें देख खुद को विख्यात कर लें|

दिया तो उन्हें संत-सा मर्तबा है,
भले राष्ट्र के संग वे घात कर लें|

बड़ी तेज गर्मी यहाँ हो रही है,
परस्पर मिले नेत्र बरसात कर लें|

कभी रंग काला न गोरा बनेगा,
किसी भी तरह से सफ़ा गात कर लें|

मुहब्बत सिखाती 'तुका' को यही तो,
तजें शत्रुता प्यार से बात कर लें|

Wednesday, July 25, 2012

एक नहीं हो सकता प्यारे धर्मों का छाता|
क्योंकि इनका इंसानों से नहीं रहा नाता||

इनका जो वितान है उसके नीचे हिन्दू मुस्लिम हैं,
बौद्ध बहाई सिक्ख जैन ईसाई मुजरिम हैं |
सबका खुला हुआ सदियों से अलग-अलग खाता|
क्योंकि इनका इंसानों से, नहीं रहा नाता||

इनको दौलत ठगी बदौलत छलिया सत्ता प्यारी है,
अपने और परायेपन की इन्हें लगी बीमारी है |
इनको भाग्य भरोसे सब कुछ देता है दाता|
क्योंकि इनका इंसानों से, नहीं रहा नाता||

तर्क बुद्धि की बात कभी भी,इनको नहीं सुहाती हैं,
पकी पकाई फस्ल कृषक की,इनके घर आ जाती है|
फूटी आँख न इन्हें सुहाता,साखी का ज्ञाता|
क्योंकि इनका इंसानों से, नहीं रहा नाता||

Tuesday, July 24, 2012

भारतवर्ष खिलौना नहीं जो कोई यह सोचे कि:-

मेरा मुन्ना रूठ जाएगा उसे खिलौना देना है|
चुप करने के लिए उसे तो अद्धा-पौना देना है||

इस सोच का प्रतिफल इस रचना में देखें :-

खा पीकर बच्चों को केवल सोना होता है,
मन चाही चीजों के खातिर रोना होता है|

बूढ़े भी तो कभी बालकों भाँति जिद्द करते,
क्योंकि उन्हें इस वक्त नहीं कुछ खोना होता है|

बालक बूढों की करतूतों के परिणाम सभी,
युवक-युवतियों को जीवन भर ढोना होता है|

जिन कन्धों पर जुआ राष्ट्र रचना का रक्खा हो,
उन्हें देखना एक आँख से हर कोना होता है|

सर्जन हेतु परिश्रम साहस बुद्धि साथ देती,
जादू होता है ना  कुछ भी टोना होता है |

सामाजिक जीवन में जाने के पहले समझो,
सबको अपने हाथों अपना मुँह धोना होता है|

भेद-भाव से 'तुकाराम' कुछ बात नहीं बनती,
कृषकों को फसलें सब के हित बोना होता है|

Monday, July 23, 2012

मित्रो! जीवन के अनुभव को,लिख-लिख कर गाया|
पुरस्कार में आप सभी का, सरस प्यार पाया ||

लिखते-लिखते वर्ष छियालिस,बीत गये अबतो,
कवि हूँ कविता हेतु जी रहा, जान गये सब तो|
शब्द साधना करते-करते,सुख-दुख अपनाया|
पुरस्कार में आप सभी का, सरस प्यार पाया ||

पैंसठ वर्ष गुजार दिये हैं,बिना किसी भय के,
व्यक्त किये हैं भाव चेतना, संयुत निर्णय के |
मंथन का नवनीत जगत के,सम्मुख पहुँचाया|
पुरस्कार में आप सभी का, सरस प्यार पाया ||

चौथेपन की दुआ यही है, तरुवर -सा फलना,
सरि-सा अविरल बहते रहना,पवन भाँति चलना|
शिव सुन्दर सच के पथ पर ही,नित चलता आया|
पुरस्कार में आप सभी का, सरस प्यार पाया ||

Sunday, July 22, 2012


समा गई उर बीच करोडों,युवकों की तस्वीर|
हरेंगे जो जन मन की पीर||
हरेंगे जो जन मन की पीर|||

हुए जो जाति प्रथा से दूर,जिन्हें है समरसता मंजूर,
चुने हैं वैज्ञानिक दस्तूर,बन गये जो धरती के नूर|
अर्जित किये विवेक -शक्ति से,ज्ञानोदय जागीर|
हरेंगे जो जन मन की पीर||
हरेंगे जो जन मन की पीर|||

जिन्हें है भली भांति युगबोध,जिन्होंने किया सत्य हित शोध,
जगा सकते वे प्रगति प्रबोध,कि जिनकी वाणी सरस सुबोध|
वही बहाने को निकले हैं,सौरभ शील समीर |
हरेंगे जो जन मन की पीर||
हरेंगे जो जन मन की पीर|||

चल पड़े हिलमिलकर हमराज.बजायें परिवर्धन के साज, 
अनोखा इनका है अंदाज,उठाते सर्जन की आवाज़ |
इनके गीत सजीले यूँ ज्यों, गाते संत कबीर| 
हरेंगे जो जन मन की पीर||
हरेंगे जो जन मन की पीर|||

Saturday, July 21, 2012

अब तो उनकी पीर समझनी होगी|
भारत की तस्वीर समझनी होगी||
क्यों गर्मी के बाद बरसते घन हैं,
पानी की तासीर समझनी होगी |
भोजन नीर अभाव वहाँ क्यों पसरा,
यहाँ फिक रही खीर समझनी होगी|
पहनाई जो गई पगों में वो तो ,
दस्तूरी जंजीर समझनी होगी ||
लोकतंत्र की खुली हवा में भी वो,
धारे क्यों है  धीर समझनी होगी|
विज्ञापन से जो सत्ता चलवाती,
वो शातिर तदवीर समझनी होगी|
जिस पर सबको गर्व 'तुका'सदियों से,
वो किसकी तहरीर समझनी होगी?

Thursday, July 19, 2012

अगर इन्सान का जीवन प्रिये! घनश्याम हो जाये|
भला फिर यह ज़माना क्यों नहीं अभिराम हो जाये?
सलोनी बात करने से सलोनापन नहीं आता,
सलोनापन मिले तब जब कि मन गुलफाम हो जाये|
चलन इस दौर का ऐसा दिखाई दे रहा अबतो,
मसीहा भी ठगों के काम से बदनाम हो जाये |
हकीकत सामने आती छिपाने से नहीं छिपती,
भले अभिव्यक्ति का परिणाम कत्लेआम हो जाये |
यही ख्वाहिश हमेशा से रही इस चित्त को घेरे,
तुम्हें सुख-चैन पाने को हमारा धाम हो जाये|
निराशा छोड़कर जीवन जिया परमार्थ ही सोचा,
नहीं कुछ दुख कहीं भी ज़िन्दगी की शाम हो जाये|
इबादत तो युगों से बस यही करता चला आया, 
'तुका' को हो भले पीड़ा उसे आराम हो जाये|
क्या होता है काव्य कर्म कवि कैसे बनते हैं|
जिनको हैं यह बोध कभी वे नहीं बहकते हैं||

जिसको जितनी सुवुधाओं के बीच गया पाला,
वे अभाव में उतना निज छाया डरते हैं| 

शीतल जल का दान मेघ नव जीवनार्थ देते,
लेकिन कभी-कभी उनसे भी उपल बरसते हैं|

जिनसे एक बूंद भी जल की कभी नहीं मिलती,
से बादल सिर पर आकर के बहुत गरजते हैं|

उन्हें भला इन्सान कहें तो कहो मित्र कैसे,
पर पीड़ा को देख न जिनके अश्रु निकलते हैं|

जिनकी सत्ता से नजदीकी होती है जितनी,
जनता से वे अक्सर उतनी दूरी रखते हैं|

शूलों में रह जो फूलों जैसा पलते खिलते,
'तुकाराम' वे दुनिया भर में नित्य महकते हैं|

Tuesday, July 17, 2012


कलम जो हाथ थामे हैं नहीं वे सिर झुकाते हैं|
मुसीबत झेलते हैं पर नहीं आँसू गिराते हैं ||

कभी यह पूछिये तो प्रिय,बिना संकोच अपने से,
किसी की बात का विद्वान क्या ढोलक बजाते हैं?

जिन्होंने काव्य को अपना समर्पित कर दिया जीवन,
किसी भी हाल में भोगे हुए अनुभव सुनाते हैं |

नदी का नीर दो तट बीच ज्यों परमार्थ में बहता,
उसी संकल्प से माधुर्य रस कविवर बहाते हैं |

समस्यायें हमेशा ज़िन्दगी को शक्ति ही देतीं,
इन्हीं के साथ इनका हल विचारक खोज लाते हैं|

सभी इन्सान प्यारे हैं सभी अपने हमें लगते,
चले जाते वहाँ भी हम जहाँ कुछ मुँह बनाते हैं|

'तुका' को कंठ कोयल-सा नहीं हासिल हुआ फिरभी,
ग़ज़ल हो गीत मुक्तक छंद खुलकर खूब गाते है|
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