Sunday, November 22, 2015

सच्चाई के समरांगण में


सच्चाई के समरांगण में, क्या डरना श्रीमान?
आगे आयें शिव सच बोलें, कहता राष्ट्र विधान||
आपस में अब नहीं किसी को, अलग-थलग करना है|,
संवर्धन के पथ रचने को, पहले पग धरना है||
सर्जनात्मक नहीं रोकना, क्षण भर भी अभियान|
आगे आयें शिव सच सच बोलें, कहता राष्ट्र विधान||
राजा रानी के महलों की, गायें नहीं कहानी|
लोकतान्त्रिक इस दुनिया में, सोच करें विज्ञानी|
नाटकीयता से हो सकता, नहीं रंच उत्थान|
आगे आयें शिव सच बोलें, कहता राष्ट्र विधान||
कहने को जो नेत्र खुले है, उनमें घना अँधेरा|
स्वर्ण सवेरा लाने वाले, रवि ने ही मुँह फेरा||
कर्मवीर तो याचित करते, कभी नहीं अनुदान|
आगे आयें शिव सच बोलें, कहता राष्ट्र विधान||

Wednesday, November 11, 2015

जीवन गीत


जीवन गीत सुनाता चल,
शब्द सुगंध लुटाता चल|
नफ़रत वाली गलियों में,
स्नेहल दीप जलाता चल|
जो सच को धमकाते हैं,
उनको भी अपनाता चल|
कोई भी अरि नहीं यहाँ,
सबसे हाथ मिलाता चल|
सन्त तुका जैसा तू भी,
तारा एक बजाता चल||

Tuesday, November 10, 2015

दूध पी रहे विविध सपोले



सच्चाई की कमी दिख रही, राजनीति की गलियों में|
किस शुचिता की खोज रही, ठगुओं में भुजबलियों में?
भूखे- प्यासे बेवश लाखों, विपदाओं के मारे हैं,
शिक्षा- दीक्षा के नारे तो, आसमान के तारे हैं|
गरल छिड़कने लगे दरिन्दे, वन उपवन की कलियों में|
किस शुचिता की खोज रही, ठगुओं में भुजबलियों में?
काली करतूतों को ढँकते, कितने वस्त्र निराले हैं,
जितने उज्ज्वल तन से दिखते, उतने मन के काले हैं|
अन्तर नहीं परखना चाहें, छलियों में मखमलियों में|
किस शुचिता की खोज रही, ठगुओं में भुजबलियों में?
पाले- पोषे ख़ूब जा रहे, जाति- धर्म के आतंकी,
सम्मानित हो रहे सहस्रों, अर्थ समर्थक ढोलंकी|
दूध पी रहे विविध सपोले, स्वर्ण रजत की डलियों में|
किस शुचिता की खोज रही, ठगुओं में भुजबलियों में

Saturday, October 10, 2015

लगते रुतबेदार


लगते रुतबेदार कि चोरी कर करके,
बनवाते सरकार कि चोरी कर करके|
हँसते-हँसते लोग कह रहे हैं उनकी, 
महिमा अपरम्पार कि चोरी कर करके|
नभ को छूता आँख दिखता वो देखो,
इठलाये घरद्वार कि चोरी कर करके|
इतना पसरा जाल उन्हें कुछ कहते यों,
परमेश्वर अवतार कि चोरी कर करके|
जग तो समझे संत इसलिए दिखलाकर,
बँटवाते उपहार कि चोरी कर करके|
किसमें बूता आज तुका जो कहे रचा,
कविता का संसार कि चोरी कर करके||

Saturday, October 3, 2015

सम्बन्ध तस्करों



सम्बन्ध तस्करों से तो जोड़ना न सीखे,
सहकार के दिलों को हम तोड़ना न सीखे|


साहित्य के सिपाही उनको कभी न कहिये,
अन्याय के इरादे जो मोड़ना न सीखे|


इन्सान के हितैषी पथ वह न रच सकेंगे,
अणु अस्त्र के घटों को जो फोड़ना न सीखे|


उनके किये न किंचित मानव विकास होगा,
बन्जर पड़ी धरा को जो गोड़ना न सीखे|


लूटा गया तुका को हर दौर में समझिये,
इंसानियत कभी भी हम छोड़ना न सीखे

Friday, September 25, 2015

जाति की बात

जाति की बात से बात बनती नहीं,
काव्य में नात से बात बनती नहीं|
स्नेह सद्गन्ध से जो भरा ही न हो-
उस मृदुल गात से बात बनती नहीं|
राष्ट्र को सैकड़ों किस्म के फूल दो-
मात्र जलजात से बात बनती नहीं|
प्यार को चाहिये एक माहौल भी-
चाँदनी रात से बात बनती नहीं|
शान्ति के हेतु अनिवार्य है एकता -
धर्म उत्पात से बात बनती नहीं|
स्वार्थ की भावना से भरे दौर में-
अर्थ बरसात से बात बनती नहीं|
देश में कृषि उपज को बढ़ाओ तुका-
अन्न आयात से बात बनती नहीं|

Saturday, September 12, 2015

किस शुचिता की खोज रही


सच्चाई की कमी दिख रही, राजनीति की गलियों में|
किस शुचिता की खोज रही, ठगुओं में भुजबलियों में?

भूखे- प्यासे बेवश लाखों, विपदाओं के मारे हैं,
शिक्षा- दीक्षा के नारे तो, आसमान के तारे हैं|
गरल छिड़कने लगे दरिन्दे, वन उपवन की कलियों में|
किस शुचिता की खोज रही, ठगुओं में भुजबलियों में?


काली करतूतों को ढँकते, कितने वस्त्र निराले हैं,
जितने उज्ज्वल तन से दिखते, उतने मन के काले हैं|
अन्तर नहीं परखना चाहें, छलियों में मखमलियों में|
किस शुचिता की खोज रही, ठगुओं में भुजबलियों में?

पाले- पोषे ख़ूब जा रहे, जाति- धर्म के आतंकी,
सम्मानित हो रहे सहस्रों, अर्थ समर्थक ढोलंकी|
दूध पी रहे विविध सपोले, स्वर्ण रजत की डलियों में|
किस शुचिता की खोज रही, ठगुओं में भुजबलियों में?

Friday, September 4, 2015

असत्य दलील|



लोकतंत्र को धर्मतंत्र में, करो नहीं तब्दील,
नहीं दो और असत्य दलील|
नहीं दो और असत्य दलील|| 

बड़े अनैतिक बोझे लादे, करते फिरते झूठे वादे,
सत्ता हथियाने वाले के, लोग समझने लगे इरादे|
मुँह से कौर छिनाने को जो, बने हुये हैं चील,
नहीं दो और असत्य दलील|
नहीं दो और असत्य दलील||

विज्ञापन ने हमला बोला, नागिन जैसा मुँह को खोला,
एक हो गया है ठगने को, काले धन वालों का टोला|
सूरत लगती संतों जैसी, कार्य क्रूर अश्लील,
नहीं दो और असत्य दलील|
नहीं दो और असत्य दलील||

अपने-अपने ढोल बजाते, जन साधारण को बहकाते,
कचरा तो पड़ोस में फेकें, अपने घर-आँगन महकाते|
हत्यारों को लगे बचाने, खोटेराम वकील,
नहीं दो और असत्य दलील|
नहीं दो और असत्य दलील||

Saturday, August 29, 2015

काव्य प्रेरित मंच



काव्य प्रेरित मंच की रौनक बढ़ाने आ गये|
शब्द सुमनों से व्यवस्था को सजाने आ गये||

आप सब कहते रहे इस दौर का चिन्तक हमें,
गीतिका सुन लीजिये हम गुनगुगाने आ गये|

अर्थ लोलुप आधुनिक इस चमचमाहट ने यहाँ,
चेतना जो सुप्त की उसको जगाने आ गये|

स्वार्थ पोषित सोच से इंसानियत की राह में,
फाँसले जो बढ़ गये उनको घटाने आ गये|

ज्ञात हैं हमको हमारी मंजिलों के शीर्ष भी,
साथ लेकर आपको उन पर चढ़ाने आ गये|

तृप्त करती जो सभी को ज़िन्दगी की शक्ति से,
बंजरों को गोड़कर फसलें उगाने आ गये|

साथ में अब आप सब आ जाइये कहता तुका,
लोकतान्त्रिक बोध के परचम उठाने आ गये|

Friday, August 7, 2015

बुरे वक्त में


इधर भी उधर भी यही तो खबर है|
घिरा दहशतों बीच अब हर बसर है|
बढ़ी लूट हत्या अनय मानसिकता,
नही शांति से चल रहा ये नगर है|
बुरे वक्त में साथ देता न कोई,
वही भाग जाता मिला जो गनर है|
कभी भूलकर मत परेशान होना,
मुसीबत दिखाती प्रबोधन डगर है|
प्रभावित न होना चमकते घरों से,
प्रदूषित रही अर्थ लोलुप नज़र है|
ठगी के इरादे बदल दे 'तुका' जो,
उसे मान लेना शिवं काव्य स्वर है|

Monday, August 3, 2015

नहीं आदत भली होती


नहीं आदत भली होती किसी को अजमाने की,
रही है सोच चिंतन में नये अनुभव बताने की|
किसी के लोभ लालच से प्रभावित हो नहीं पाये, 
जिये हैं ज़िन्दगी खुलके सदा जगने-जगाने की|
लगे तस्वीर गलियों में बड़ी शोहरत मिले ऐसी, 
न फूहड़ गीतिका कहते कभी हँसने-हँसाने की|
बहुत थोड़े दिनों में ही विलग वे हो गये हमसे, 
रही अवधारणा जिनकी शपथ खाने-खिलाने की|
यही तो लोकशाही है सफलता हेतु जीवन में,
हमें अधिकार देती जो सुखद रस्ते बनाने की|
कभी इंसानियत से तो नहीं गिरना तुका अच्छा,
मगर होती बहुत अच्छी नियत उठने-उठाने की|

Friday, July 31, 2015

जिन्हें है सत्ता का अभिमान


गाली देना गरल उगलना, अब उनकी पहचान|
जिन्हें है सत्ता का अभिमान||
जिन्हें है सत्ता का अभिमान|||
तर्क नहीं दिखता बातों में, बेहद जहर भरा आतों में,
पूरी क्षमता लगा रहे हैं, नफरत पोषित उत्पातों में|
फैलाने पर तुले हुये हैं, वे जड़ता अज्ञान| 
जिन्हें है सत्ता का अभिमान||
जिन्हें है सत्ता का अभिमान|||
लेकर पूरा खर्चा- पानी, बदले में करते मनमानी,
शैतानी की दूषित वानी, कही जा रही है विज्ञानी|
खींच-तान के यत्नों से वे, करते निज उत्थान|
जिन्हें है सत्ता का अभिमान||
जिन्हें है सत्ता का अभिमान|||
खपा दिये जो जीवन सारा, उनको बना दिया बेचारा,
गाँव-शहर के चौबारों पर, गूँज रहा जय का जयकारा|
सीधे -साधे इन्सानों का, वे करते अपमान| 
जिन्हें है सत्ता का अभिमान|| 
जिन्हें है सत्ता का अभिमान|||

Thursday, July 30, 2015

शब्द की शक्तियों



दीप बुझते रहे हम जलाते रहे,
रौशनी से भरे गीत गाते रहे|

फूल तो फूल है सैकड़ों शूल भी,
कंठ से मुस्कराकर लगते रहे|

मौसमों की कड़ी मार सहते हुये,
राष्ट्र को गेह जैसा सजाते रहे|

रोज सामर्थ्य से भी अधिक जानिये,
बोझ हारे -थकों के उठाते रहे|

शब्द की शक्तियों से करोड़ों तुका,
सुप्त मानव हमेशा जगाते रहे|

Monday, July 13, 2015

ये नजारा आम है

ये नजारा आम है आजाद हिन्दुस्तान में,
दाम करता काम है आज़ाद हिंदुस्तान में|

धर्म के उपदेश देने का असर इतना हुआ,
संत भी बदनाम है आज़ाद हिन्दुस्तान में|

रौशनी धन शक्तियों के गेह में पसरी कहे,
स्वर्ण जैसी शाम है आज़ाद हिन्दुस्तान में|

 लोग ऐसा कह रहे सुन लीजिए श्रीमान जी,
एक ही गुलफाम है आज़ाद हिन्दुस्तान में|

सोचिये हर क्षेत्र में आई गिरावट क्यों तुका,
स्वार्थ का संग्राम है आज़ाद हिन्दुस्तान में|

Sunday, July 12, 2015

झेलना सीखो कुछ सन्ताप|

अगर आपको सच्चाई से, करना मेल-मिलाप,
झेलना सीखो कुछ सन्ताप|
झेलना सीखो कुछ सन्ताप||
गुणी नहीं थे उनके जैसे, पर सुकरात जिये थे कैसे,
गलीलियों के जीवन हन्ता, अति मूरख थे ऐसे-वैसे|
सत्ता की काली करतूतें, सब तो कहें न पाप,
झेलना सीखो कुछ सन्ताप|
झेलना सीखो कुछ सन्ताप||
शिव ने पिया गरल जब सारा, बही प्रेम की तब शुचि धारा,
प्रकृति प्रदत्त नियम ये समझो, नहीं प्रकाश तिमिर से हारा|
युग प्रबोधकों की होती है, सबसे न्यारी छाप,
झेलना सीखो कुछ सन्ताप|
झेलना सीखो कुछ सन्ताप||
सन्त कबीरा ने सब खोया, मीरा, शैली, फैज न रोया,
चेतनता जाग्रत जो करता, वह जीवन में रंच न सोया|
सच्चाई को सिवा सत्य के, कौन सका है माप?
झेलना सीखो कुछ सन्ताप|
झेलना सीखो कुछ सन्ताप||

Saturday, July 11, 2015

सभी के साथ रहते हैं

सभी के साथ रहते हैं सभी की बात कहते हैं,
मिले अनुभूतियों से जो वही जज़्बात कहते हैं|

सरलता से भरा जीवन सहजता से भरी वाणी,
सरसता बाँटते फिरते नहीं अज्ञात कहते हैं|

हमें इतिहास है मालूम बेहद फिक्र कल की भी,
मगर इस दौर के देखे हुये हालात कहते हैं|

कलम के कर्म को जाना कलम का मर्म पहचाना,
सहे दुख- दर्द पर अपने नहीं आघात कहते हैं|

सतत संघर्ष के कारण सजी सँवरी दिखे दुनिया,
जिन्हें आता महज रोना उन्हें नवजात कहते हैं|

तुका ने तो किसी को भी कभी बैरी नहीं माना,
ह्रदय से जो उमड़ती वो सरस बरसात कहते हैं|

Saturday, July 4, 2015

परमार्थ जी रहे

परमार्थ जी रहे जो इन्सान ज़िन्दगी को,
वो दूर भी किये है अपनी सदा कमी को|
आसान तो बहुत है उपदेश नित्य देना,
स्वीकारना कठिन है सद्धर्म आदमी को|
व्यापार ने बनाये दो नम्बरी करोड़ों,
कोई नहीं दिखाता काली लिखी वही को|
ये अर्थ का जमाना यूँ सत्य को न समझे,
ज्यों भूलने लगे अब नेकी तथा बदी को|
साहित्य साधना में निज दर्द को भुला के,
हर दौर में 'तुका' तो देता रहा खुशी को|

Tuesday, June 30, 2015

लोकशाही ज़िन्दगी


जी रहा हूँ लोकशाही ज़िन्दगी श्रीमान जी,
हो चुकी आनन्दवाही ज़िन्दगी श्रीमान जी|
नीतियों को जो सराहे अनुसरण करते हुये,
है वही सच्ची गवाही ज़िन्दगी श्रीमान जी|
बीस घंटे कार्य करके सोचिये इस दौर में,
जी रहे कैसे सिपाही ज़िन्दगी श्रीमान जी?
मौन धारी हो गयी वो चाहती क्या देश की, 
देख ले पूरी तबाही ज़िन्दगी श्रीमान जी|
मान क्यों उसको मिले संसार में जो सर्वथा,
कर्म से करती कुताही ज़िन्दगी श्रीमान जी|
कौन मानेगा भला वो शील साधक सोच है,
जो करे धन की उगाही ज़िन्दगी श्रीमान जी|
ये  जरूरी है नहीं वो श्रेष्ठता की मूर्ति हो,
लूटती  जो वाहवाही ज़िन्दगी श्रीमान जी|  
प्रश्न है जो राष्ट्र सेवा में लगे उनकी 'तुका',
क्या रही विज्ञान राही ज़िन्दगी श्रीमान जी?

Wednesday, June 24, 2015

न्याय की बातें


आग फिर घर में लगाता कौन है,
और आखिर में बुझाता कौन है?
धर्म यदि सद्कर्म की है रौशनी,
तो सदा नफ़रत सिखाता कौन है?
शक्ति का उद्देश्य है उपकार तो,
लूट की राहें बनाता कौन है?
सिर्फ कविता के अलावा विश्व में,
आदमीयत को बढ़ाता कौन है|
संसार में हारे-थकों को छोड़ के,
बोझ दुनियावी उठाता कौन है?
न्याय की बातें तुका सुनता यहाँ,
न्याय पीड़ित को दिलाता कौन है?

Thursday, June 18, 2015

दिल दुखी हो गया

दर्द इतना उठा दिल दुखी हो गया,
आपका साथ तो लाजिमी हो गया|
ये बड़ी बात है आज के दौर की,
मुस्कराना बड़ा आलसी हो गया|
लोग कहते जिसे थे लफंगा कभी,
वो सुना है बड़ा चौधरी हो गया|
मैं परेशान हूँ, सोचकर, देखकर,
हाजिरे दौर क्यों अजनबी हो गया?
लोग कहते रहे तंज कसते रहे,
क्या तुका प्यार का पारखी हो गया?

Wednesday, June 17, 2015

सत्य भी है नहीं


एक पल दूर दिल से गया भी नहीं,
पास प्रतिपल रहा वो मिला भी नहीं|
सत्य भी है नहीं कल्पना भी नहीं,
सिर्फ विश्वास है ये सजा भी नहीं|
ये मुहब्बत नहीं तो कहो क्या सखे!
दर्द हरदम जिया पर सहा भी नहीं|
वो मुझे देखता नित्य ही प्यार से, 
वो भला भी नहीं वो बुरा भी नहीं|
क्यों उसे शायरों- सा मिले मर्तबा, 
जो करे शब्द की साधना भी नहीं|
ये नहीं भूलना ज़िन्दगी मे 'तुका',
काव्य करता कभी याचना भी नहीं|

Tuesday, June 9, 2015

उदयास्त की काल्पनिक गाथा



हम सभी के साथ हँसते हैं नहीं लेकिन,
हर किसी के दर्द में शामिल सदा रहते|
बहती नदी के नीर-जैसा हर जगह जाते,
बरसात जाड़ा ग्रीष्म से किंचित न घबराते|
पोषक प्रकृति की गोद में पलते हुये हम तो,
ज़िन्दगी की शुचि कहानी सर्वदा कहते|
हर किसी के दर्द में शामिल सदा रहते|
इनके लिए उनके लिए जग में नहीं जीते,
विषपान गर अनिवार्य तो सबके लिए पीते|
अपने बराबर मानते जो सभी को मानते आये- 
मोह तृष्णा त्यागकर दुख-सुख रहे सहते| 
हर किसी के दर्द में शामिल सदा रहते|
व्यापी यहाँ उदयास्त की ज्यों काल्पनिक गाथा,
मानव झुकाता आ रहा त्यों हर जगह माथा|
जिनकी कभी भी सत्य से अनुभूति हो जाती,
वे लहर के साथ तिनकों-सा नहीं बहते|
हर किसी के दर्द में शामिल सदा रहते|

Friday, June 5, 2015

सच कहोगे

सच कहोगे तो बड़े डंडे पड़ेंगे,
हर तरफ से सैकड़ों अंडे पड़ेंगे|
अर्थवादी दौर मे विद्वान को भी,
सेठ के घर पाथने कंडे पड़ेंगे|
राजनेता बन सकोगे शर्त है ये,
कुछ दिनों तक लादने झंडे पड़ेंगे|
आज उनके जोर का है शोर सुनिये,
देखना कल स्वर बहुत ठंडे पड़ेंगे|
मौत भी होती नहीं आसान प्यारे,
आखिरी मे लाश पर पंडे पड़ेंगे|
नामधारी ज्यों तुका होगे समझ लो,
आप के पीछे कई फंडे पड़ेंगे|

Thursday, May 28, 2015

माना कि

माना कि हम बूढ़े हैं पर हार तो नहीं माने,
घबरा कर दकियानूसी विचार तो नहीं माने|
उसके संरक्षण में ही तस्कर पनपते रहते,
इस सच्चाई को कभी सरकार तो नहीं माने|
मिलावटखोरी जमाखोरी अपराध है लेकिन,
इस कठोर कानून को व्यापार तो नहीं माने|
जाने कब से कहते आये वसुधैव कुटुम्बकम,
पर अभी तक दुनिया को परिवार तो नहीं माने|
उसका धर्म है काटना काटेगी अगर चलेगी,
यह अपना वह पराया तलवार तो नहीं माने|
कोई तुका प्रेमियों से नफरत करता है करे,
पर जाति-धर्म के भेद को प्यार तो नहीं माने|

Wednesday, May 27, 2015

द्वंद्व गीत:


द्वंद्व गीत:-
सुधरो सुधरो वरना, बाहर निकाल देंगे|
वे खींच खाल लेंगे, वे खींच खाल लेंगे||
कुछ आकर्षण के आदी, करते जन धन बर्बादी| 
इनके कारण से भूखी- दिखती आधी आबादी|| 
समझो समझो वरना, जनता को बहका के- 
करवा बवाल देंगे, बाहर निकाल देंगे|
वे खींच खाल लेंगे, वे खींच खाल लेंगे||
कथनी में शहद मिला है, करनी चौबन्द किला है|
बाहर से नहीं शिकायत, घर भीतर बढ़ा गिला है||
परखो परखो वरना, वे अपने बलबूते-
दिखला कमाल देंगे, बाहर निकाल देंगे|
वे खींच खाल लेंगे, वे खींच खाल लेंगे||
यदि पूरा करना सपना, तो करो परीक्षण अपना|
ठग दगाबाज़ रखते हैं, छल छद्मों वाला नपना||
बदलो बदलो वरना, जो तुरत फाँस लेते,
वह डाल जाल देंगे, बाहर निकाल देंगे|
वे खींच खाल लेंगे, वे खींच खाल लेंगे||

Tuesday, May 19, 2015

तानसेन गा रहे

"एक गीत:-
नवगीत मीत नवरीतों से,
कुछ तानसेन गा रहे यहाँ|
शुभ तोरण द्वार लगे सजने,
महिमा के साज लगे बजने,
कुछ भक्त श्रेष्ठ संगत करके-
जय हो जय प्रभो लगे भजने|
इस लोकतन्त्र का उड़ा रहे,
ऐसा मज़ाक, ऐसा मज़ाक-
ज्यों हरिश्चन्द्र आ रहे यहाँ|
कुछ तानसेन गा रहे यहाँ||
अब रिक्त न कोई थाली है,
इतनी अजीब खुशहाली है,
गाँवों-नगरों की गली-गली-
काशी, मथुरा, वैशाली है|
युगदाता को प्रसन्न करने-
गणमान्य कतारें लगा-लगा-
सुमनों को बरसा रहे यहाँ|
कुछ तानसेन गा रहे यहाँ||
दिग्विजय पूर्णता कर डाली,
वह जीत चुके अन्तिम पाली,
ऐसा जनसेवक दिखा नहीं-
जिसने न बजायी हो ताली||
आकर्षण से आकर्षित हो,
दुनिया के कोने- कोने से-
शरणार्थी फिर आ रहे यहाँ|
कुछ तानसेन गा रहे यहाँ||
अति आनंदित हैं व्यापारी,
सब मौज मनायें अधिकारी,
उपलब्ध राजनेताओं को-
सस्ती सुविधायें सरकारी|
यदि ज्ञात आपको बतलाओ,
अब कौन लोग मजलूमों पर-
दारिद्र जुल्म ढा रहे यहाँ?
कुछ तानसेन गा रहे यहाँ||"

Friday, May 15, 2015

नया संसार

सथियो! ऐसा बनाना है नया सन्सार|
घायलों का पीड़तों का जो करे उपचार||

जानता हूँ आधुनिकता हो गई हावी,
कीच से बाहर निकालें ज़िन्दगी भावी|
छीन पाये अब न कोई सर्जना अधिकार|
घायलों का पीड़तों का जो करे उपचार||

आदमी की भूख को भोजन मिले पानी,
राजनैतिक क्षेत्र में हो बन्द शैतानी|
शील सिंचित चाहिये इंसान को व्यवहार|
घायलों का पीड़तों का जो करे उपचार||

आप में मुझमें न उसमें भेद है कोई,
सत्य से वो दूर मानों आँख जो सोई|
मानिये है लाजिमी वो प्यार का आधार|
घायलों का पीड़तों का जो करे उपचार||

क्यों अलौकिक शक्तियों के बाग को सींचे,
हाथ क्यों परमार्थ से पीछे तुका खींचे|
भूमि ऊपर हो सके वो स्वर्ग भी साकार|
घायलों का पीड़तों का जो करे उपचार||

न्याय से परिपूर्ण जो भी साधना होगी,
स्नेह से स्वीकार वह सद्भावना होगी|
एक होनी चाहिये वो विश्व की सरकार|
घायलों का पीड़तों का जो करे उपचार||

Sunday, May 10, 2015

वंचित हैं इन्सान


वंचित हैं इन्सान मूल अधिकारों से,
चलती है सरकार खोखले नारों से|
बजते हैं दिन-रात ढोल इमदादों के,
जनता तो लाचार बज्र अधिभारों से|
विज्ञापन का दौर शीर्ष पर व्यापारी, 
राहत की उम्मीद नहीं सरकारों से |
अस्त्रशस्त्र बेकार लोकशाही कहती,
वोटशक्ति की मार तीव्र हथियारों से|
लाभ-हानि से दूर तुका ने धरती के,
सींचे जीवन खेत बाग रसधारों से|

Wednesday, May 6, 2015

यह कैसी आवाज़..


यह कैसी आवाज़..
निर्वाचन में करें तमाशा,
काले-काले नोट,
विज्ञापन की चकाचौंध में,
लुटें करोड़ों वोट,
लोकतंत्र ने पहना डाला,
एक व्यक्ति को ताज|
यह कैसी आवाज़..
सपनों को ऐसे बेचा ज्यों,
स्वर्गलोक की सैर, 
बातों से यूँ लगता जैसे,
कोई शत्रु न गैर,
अंधभक्ति के आकर्षण को,
रंच न आये लाज| 
यह कैसी आवाज़..
कल तक तो थी उत्तम खेती,
आज बना व्यापार,
गाँव गरीब किसान सहस्रों,
सहें भूख की मार|
छलियों बलियों ऊपर सत्ता,
ख़ूब दिखाये नाज़|
यह कैसी आवाज़..

Sunday, March 15, 2015

ठग राष्ट्रद्रोहियों


ठग राष्ट्रद्रोहियों के उतने हबीब होते,
दौलत पसंद जितने सत्ता करीब होते|
ये सत्य कथ्य पूरा माने भले न कोई,
उपदेश जो सुनाते वे कुछ अजीब होते|
इंकार ख़ूब करिये ये भी कभी न भूलें,
ईमानदार जग में सचमुच गरीब होते|
ये सोच लोकशाही कैसे दफा करेगी, 
सत्ता वही सँवारे जिनके नसीब होते|
कोई न मित्र रिपु है ऐसा उन्हें न मानें, 
जो राजनीति करते वे तो रकीब होते|
ये दौर लोकशाही सम्वाद के लिए है-
वरना 'तुका' करोड़ों ढोते सलीब होते|

Saturday, March 7, 2015

भक्ति पोषक कैद


भक्ति-पोषक कैद के बाहर निकलिए तो,
सत्य से होगा मिलन प्रिय और चलिए तो|
अर्थ के पसरे तिमिर को नष्ट यदि करना-
कुछ पलों को ही सही बन दीप जलिए तो|
प्यास सबकी शान्त करने की अगर इच्छा-
बर्फ -सा सरि के लिए दिनरात गलिए तो|
छाँव देकर तृप्त करना है अगर जग को-
भूमि पर नित वृक्ष -सा परमार्थ फलिए तो|
चाहते यदि ज़िन्दगी प्रिय हो 'तुका' जैसी-
पीड़तों पर प्यार पूरित लेप मलिए तो|

Friday, February 6, 2015

गरीबों का करना उत्थान-


धन्नासेठों के प्रतिनिधि का, यह अजीब ऐलान,
गरीबों का करना उत्थान|
गरीबों का करना उत्थान||
उजले वस्त्र ह्रदय के काले, शक्तिशालियों के रखवाले,
क्यों परमार्थ करें वे जिनके, लगे हुये विवेक पर ताले/ 
जिन्हें चलाना सदा सुहाये, अन्धभक्ति अभियान, 
आज ये उनका कैसा ज्ञान?
गरीबों का करना उत्थान|
गरीबों का करना उत्थान||
जमाखोरियों के रक्षक जो, शोषित दलितों के भक्षक जो,
डसने को हर जगह घूमते, फिरते गलियों में तक्षक जो|
बात- बात में जो ले लेते, कमजोरों के प्राण,
आज ये उनका कैसा दान?
गरीबों का करना उत्थान|
गरीबों का करना उत्थान||
जिनको प्रिय जीवन में सत्ता, जिनको मिले मुफ़्त में भत्ता,
जिनक काले कार्य समझता, न्याय- वृक्ष का पत्ता- पत्ता|
बनी हुयी जिनकी सदियों से, परजीवी पहचान|
आज यह उनका कैसा गान? 
गरीबों का करना उत्थान|
गरीबों का करना उत्थान||

Monday, January 26, 2015

ये लोकतंत्र है


ये लोकतंत्र है लोकतंत्र, दुनिया में छायेगा|
जो पीछे आज खड़ा है, कल आगे आयेगा||
सहजोरी अत्याचारी, ये नफ़रत की बीमारी,
छू उनको कभी न सकती, जो सच्चे प्रेम प्रभारी|
जो गया सताया जितना, वह उतना मुस्कायेगा|
जो पीछे आज खड़ा है, कल आगे आयेगा||
आन्यायी पर्वत जैसा, धनपशु हो चाहे कैसा,
सब होंगे मानव जैसे, आयेगा दिन भी ऐसा|
सच को सच कहने वाला, जन-मन हो जायेगा| 
जो पीछे आज खड़ा है, कल आगे आयेगा||
ये अपने और पराये, ये सत्ता सुख के साये,
निश्चय वे निष्क्रिय होंगे, जो भी विभेद उपजाये|
जीवन प्रकाश को कोई, तम निगल न पायेगा|
जो पीछे आज खड़ा है, कल आगे आयेगा||

Tuesday, January 20, 2015


एक गीत:-
पुलिस कमिश्नर सी.एम, होंगे, मंत्री थानेदार|
मुसीबत में अब ठेकेदार|
मुसीबत में अब ठेकेदार||
जो चलवाते रहे लाठियाँ, जो दिलवाते रहे गालियाँ,
मजमेबाजी करके जिसने, बजबायीं हैं खूब तालियाँ|
लोकतंत्र पर फिर चलने को, डन्डे हैं तैयार|
मुसीबत में अब ठेकेदार|
मुसीबत में अब ठेकेदार||
छीना-झपटी खींचा-तानी, जिनकी आदत में मनमानी,
सम्विधान के अनुपालन में, जो करते बस आनाकानी|
जय-जयकार कराते अपनी, करके असत प्रचार|
मुसीबत में अब ठेकेदार|
मुसीबत में अब ठेकेदार||
सुविधाभोगी अवसरवादी, परसेवा लेने के आदी,
अपने जीवन के बोझे की, गठरी कमजोरों पर लादी|
धनवानों के पैर दबायें, निर्धन को दुत्कार|
मुसीबत में अब ठेकेदार|
मुसीबत में अब ठेकेदार||