Friday, May 25, 2012

कहने को बहुत है सोचते रहिये|
कुछ संभावनायें खोजते रहिये||
मुमकिन है आपको मंच मिल जाये,
जो समुचित लगे वो बोलते रहिये|
सच्चाई कभी तो ज्ञात हो सकती,
बस साधक की तरह शोधते रहिये|
यह धरती हरी-भरी रखनी है तो,
प्रिय! कुछ नये पौधे रोपते रहिये|
नायक बन सकते हो शर्त यही है,
सबके सम्मुख हाथ जोड़ते रहिये|
कविता का उद्देश्य यही है दोस्तो!,
मानवता के मूल्य पोषते रहिये|
'तुकाराम' शब्द शक्ति के संबल से,
अनैतिकता को झकझोरते रहिये|

Wednesday, May 23, 2012

देखा-परखा समझा दुख-सुख,कवि ने बहुत करीब से|
जीवन जिया नहीं जा सकता,बहुत अधिक तरतीब से ||
चौथेपन तक आते-आते, विदित हुआ यह तथ्य भी,
जटिल कार्य हल हो सकते हैं,चिंतन की तरकीब से|
जो आँधी -सा चले हमेशा,गरजे -बरसे मेघ -सा 
वह भी बदले-बदले अब तो,दिखते बहुत अजीब से|
बचपन में माँ ने सिखलाया,तदुपरांत गुरुदेव ने,
लेकिन अब तक सीख रहा हूँ,मन को खोल हबीब से|
कुछ ऐसे भी बड़े लोग हैं,जो हम सबको लूटते,
पर कहते फिरते दुनिया में,सब कुछ मिला नसीब से| 
इनको पता नहीं क्या करते,करना इन्हें मुआफ़ भी,
निज बधिकों के हेतु दुआ यह,करते यीशु सलीब से|
जिसे जरूरत हो वह माँगे,उसकी अपनी सोच है,
मगर 'तुका'को नहीं माँगना,कुछ भी कभी हसीब से|

Sunday, May 20, 2012

सच को सच कहने की जिसमें,क्षमता नहीं रही| उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही|| प्रिय है जिसको शब्द साधना,वह परमार्थ करे, तृषा बुझाये सकल सृष्टि की,निर्झर भाँति झरे| जिसने जन्मभूमि -सी समझी,नहीं समग्र मही| उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही|| धरती के कण-कण को जिसने,माना वसुंधरा , वही विवेकी भाव- सिंधु में,उतर सका गहरा| जिये कूप के मेढक-सा जो,बात करे सतही| उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही|| कवि के एक-एक अक्षर से,चेतन शक्ति जगे, जन जीवन के लिए ह्रदय में,शुचि अनुरक्ति पगे| निष्पृह हो अभिव्यक्ति न जिसकी,तो फिर कहो यही| उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही|| सब के दुख को,निज दुख जैसा,जो कि नहीं समझा, वह कितना महान हो फिरभी,रहा भ्रमित उलझा | पर सुख देख न जिसको सुख हो,तो यह उक्ति सही| उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही||

सच को सच कहने की जिसमें,क्षमता नहीं रही|
उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही||

प्रिय है जिसको शब्द साधना,वह परमार्थ करे,
तृषा बुझाये सकल सृष्टि की,निर्झर भाँति झरे|
जिसने जन्मभूमि -सी समझी,नहीं समग्र मही|
उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही||

धरती के कण-कण को जिसने,माना वसुंधरा ,
वही विवेकी भाव- सिंधु में,उतर सका गहरा| 
जिये कूप के मेढक-सा जो,बात करे सतही|
उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही||

कवि के एक-एक अक्षर से,चेतन शक्ति जगे,
जन जीवन के लिए ह्रदय में,शुचि अनुरक्ति पगे|
निष्पृह हो अभिव्यक्ति न जिसकी,तो फिर कहो यही|
उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही||

सब के दुख को,निज दुख जैसा,जो कि नहीं समझा,
वह कितना महान हो फिरभी,रहा भ्रमित उलझा | 
पर सुख देख न जिसको सुख हो,तो यह उक्ति सही|
उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही||

Saturday, May 19, 2012

चेतना जो सुप्त कर दे गीत वह कैसा ?
स्नेह स्वर से जो विलग संगीत वह कैसा?

जो प्रकृति की भावना को छोड़ दे,
जो ह्रदय को वासना से जोड़ दे ,
कौन उसके कथ्य को स्वीकार ले-
जो प्रगति की धार का रुख मोड़ दे|
स्वार्थ की दुर्गन्ध जिसमें दूर से आये,
प्यार का अभिनय करे जो मीत वह कैसा?
स्नेह स्वर से जो विलग संगीत वह कैसा?

जो अपरिचित जी रहा हो अक्ष्य से,
और भटका सर्वथा हो लक्ष्य से,
वह किसी को क्या शरण देगा भला-
माँगता आवास जो हो रक्ष्य से|
शक्ति के आगे स्वयं जो हाथ फैलाये-
शोषकों की नीति के विपरीत वह कैसा? 
स्नेह स्वर से जो विलग संगीत वह कैसा?

जो खड़ा हो साधकों के साथ में,
मोह का खंजर छिपा के हाथ में,
बात है यह सत्य उसको सर्वदा-
शूल ही अगणित मिलेंगे पाठ में|
जो कि सन्यासी अवस्था में पहुँच कर भी-
लालसा छोड़े न जो जगजीत वह कैसा? 
स्नेह स्वर से जो विलग संगीत वह कैसा?

Friday, May 18, 2012

आत्मतोष के हेतु परिश्रम, करते हैं भरपूर,
हमेशा कर्मवीर मजदूर|
हमेशा कर्मवीर मजदूर||

श्रमिक-शक्ति शाश्वत कल्याणी,श्रमिकों को प्रिय है जग प्राणी,
श्रम ने समझी सदा सुनायी, मानवीय गरिमा की वाणी|
फिर भी विविध अभाव झेलते,श्रमसेवी मजबूर,
हमेशा कर्मवीर मजदूर|
हमेशा कर्मवीर मजदूर||

श्रम की त्यों सम्प्रभा निराली,सुख देती है ज्यों हरियाली,
श्रमिक वर्ग ने सकल सृष्टि की,युग प्रबोध तस्वीर सँभाली|
आदिकाल से सर्जनात्मक,श्रमिकों के दस्तूर,
हमेशा कर्मवीर मजदूर|
हमेशा कर्मवीर मजदूर||

प्रगति मूल हैं श्रमिक हमारे,यों उज्ज्वल ज्यों नभ के तारे,
प्रकृति गवाही स्वतः दे रही,श्रम से स्वर्णिम साँझ-सकारे|
श्रमिक दूर यों करें दर्प ज्यों,पाल में उड़े कपूर|
हमेशा कर्मवीर मजदूर|
हमेशा कर्मवीर मजदूर||

Thursday, May 17, 2012

मानवता से विरत शब्द तू, नहीं किसी से बोल,
ह्रदय के बंद विलोचन खोल| 
ह्रदय के बंद विलोचन खोल||

परख ले वर्तमान के गीत,
समझ ले नैसर्गिक संगीत|
सत्य-तथ्य अनुभूति हेतु,निज मन की नब्ज टटोल,
ह्रदय के बंद विलोचन खोल| 
ह्रदय के बंद विलोचन खोल||

लक्ष्य के पथ को भी पहचान,
फिर उन्हें जन उपयोगी मान|
शब्द-शक्ति से सिक्त शिवम शुचि,स्नेह सुधारस घोल,
ह्रदय के बंद विलोचन खोल| 
ह्रदय के बंद विलोचन खोल|| 

पाल मत भेदभाव के रोग,
जन्म है मात्र एक संयोग|
हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई का,बजा रहा क्यों ढोल?
ह्रदय के बंद विलोचन खोल| 
ह्रदय के बंद विलोचन खोल|| 

नाम लो उसके भले अनेक,
किन्तु जग परमेश्वर है एक|
सबने जबरन ओढ़ लिए हैं,सांप्रदायिक चोल,
ह्रदय के बंद विलोचन खोल| 
ह्रदय के बंद विलोचन खोल||

Tuesday, May 15, 2012

सुना दो गीत कवि ऐसा,क्षितिज तक शोर हो जाये|
ज़माना त्याग दे तन्द्रा,सुनहरा भोर हो जाये||

जहाँ इन्सान भूखा है,ह्रदय का खेत सूखा है|
जहाँ अनुरक्ति का अक्षर,मिला हरवक्त रूखा है||
वहाँ सहयोग घन बनकर, बरसिये रात-दिन इतना-
अनैतिक शक्तियों का स्वर,स्वतः कमजोर हो जाये| 
ज़माना त्याग दे तन्द्रा,सुनहरा भोर हो जाये||

जहाँ पर लूट घोटाले, जहाँ धंधे चलें काले|
जहाँ पर स्वार्थी मन ने,लगाये नीति पर ताले||
वहाँ साहित्य संबल से,प्रबोधन कीजिये इतना-
घृणा की ओर जो है वो,प्रणय की ओर हो जाये|
ज़माना त्याग दे तन्द्रा,सुनहरा भोर हो जाये||

सहा करते अनय को जो,नहीं समझे समय को जो|
मृगों की भाँति जीवन भर,भुला पाये न भय को जो||
फजायें चाहती उनकी, रगों का रक्त खौला दो-
सर्प क दर्प दलने को,कबूतर मोर हो जाये |
ज़माना त्याग दे तन्द्रा,सुनहरा भोर हो जाये||
सुख भी भोगा दुख भी भोगा,भोग लिए हैं भोग|
अब तो चौथेपन के होंगे,कई झेलने रोग|

चलना-फिरना, जाना-आना, बहुत सताता है|
पता नहीं क्यों अभ्यंतर दिन-रात जगाता है||
करता रहता हूँ जीवन में, अल्प योग सहयोग|
अब तो चौथेपन के होंगे,कई झेलने रोग||

घर परिवार शहर यह अपना, बंधन लगता है|
कवि को दुनिया का हर कोना,पावन लगता है||
बहन भाइयों से लगते हैं, गोरे-काले लोग| 
अब तो चौथेपन के होंगे,कई झेलने रोग||

चाहत है जीवन अनुभव के, गीत सुनाने की|
जिसका भाग करे जग ऐसी,फ़स्ल उगाने की||
शब्द प्रयोगों से करता हूँ,प्रिय! पर्राथ उद्द्योग|
अब तो चौथेपन के होंगे, कई झेलने रोग||

Monday, May 14, 2012

कौन जानता नहीं यहाँ ये,चर्चे चर्चित हैं|
गाँव गरीब किसान न्याय से,अबतक वंचित हैं||

लोकतंत्र को बासठ वर्षों, तक देखा-परखा,
धीरे-धीरे लुप्त हो गया, बापू का चरखा |
सत्य अहिंसा शील दया ताप त्याग उपेक्षित हैं|
गाँव गरीब किसान न्याय से,अबतक वंचित हैं||

लागत से भी कम कीमत में,सकल उपज बिकती,
कभी-कभी तो बिना मोल ही,इधर-उधर फिकती|
सबलों के बाड़ों में कितने,निर्बल बंधित हैं|
गाँव गरीब किसान न्याय से,अबतक वंचित हैं||

शिक्षा स्वास्थ्य न्याय नारों का,केवल गर्जन है|
प्राणों की आहुति देने को, बेबश निर्धन है||
पर सत्तासीनों के खर्चे,बढ़े असीमित हैं|
गाँव गरीब किसान न्याय से,अबतक वंचित हैं||

बड़े-बड़ों की बातों में कुछ, दिखे न प्रभुतायी|
जन सेवा से जुड़े जनों को,ठग विद्द्या भायी||
उन्हें न मिलता मान राष्ट्रहित,जो कि समर्पित हैं|
गाँव गरीब किसान न्याय से,अबतक वंचित हैं||

चिड़ियाँ चें-चें,बत्तक कें-कें,तोता टें-टेंकरता है|
हंस कूजता,मोर केंकता, भेंड़ा भें -भें करता है||
भैंस चुकरती,गाय रँभाती,बकरा बों-बों करता है|
कूक भौंकता,गधा रेंकता,भालू भों-भों करता है||
उल्लू घुघुआता रहता है,बकरी बहुधा मिमियाती|
बन्दर बार बार किकियाता,बंदरिया भी किकियाती||
चूहा चूं -चूं, बिल्ली म्याऊँ,साँड़ डकारा करता है|
साँप फुफकता शेर गर्जता,सिंह दहाड़ा करता है||
मुर्गा सुबह बाँग देता है,कौआ काँव -काँव करता|
करे कबूतर गुटुर गुटुरगूं,सूकर किकियारी भरता||
पीउ -पीउ स्वर करे पपीहा, मेढक तो टर्राता है|
रखना ध्यान सलोने बच्चो!,वाघ छली गुर्राता है||
हाथी तो मारे चिंघाड़ा, हँसता ऊंट बलबलाता|
गीदड़ हुआ-हुआ hai  करता,घोड़ा बहुत हिनहिनाता||
झींगुर झनकारें भरता हैं,मक्खी खूब भिनभिनाती|
भँवरों का गुंजार मनोरम,कोयल कूक-कूक गाती|| 
बिना दाम के अधिवक्ता से, मिले न समुचित राय|
बिना दाम के अधिवक्ता से, मिले न समुचित राय|
मुफ़्त में सुलभ कहाँ फिर न्याय?
मुफ़्त में सुलभ कहाँ फिर न्याय?

उचित यही करिये मत झगड़ा,कभी न पालो कोई लफड़ा,
हाथ-पैर से अधिक बनाओ,अपने मन चिन्तन को तगड़ा|
न्याय हेतु पर्याप्त न मानो,कुल जीवन की आय|
मुफ़्त में सुलभ कहाँ फिर न्याय?
मुफ़्त में सुलभ कहाँ फिर न्याय?

विपथ पेट के पैर न मुड़ता,बैर-भाव से बैर न मिटता,
अक्सर अपनों की तुलना में,प्यार अपार गैर से मिलता|
वाद-विवादों में बिक जाते, घर-आँगन चौपाय|
मुफ़्त में सुलभ कहाँ फिर न्याय?
मुफ़्त में सुलभ कहाँ फिर न्याय?

जीवन हर्ष न केवल सुख में,कभी-कभी सुख मिलता दुख में,
उस मानव से बचिये जिसके,नफ़रत रुख में,ईश्वर मुख में |
हाय-हाय करने से लगती,नहीं किसी को हाय|
मुफ़्त में सुलभ कहाँ फिर न्याय?
मुफ़्त में सुलभ कहाँ फिर न्याय?

Sunday, May 13, 2012

धर्म-कर्म को सखे!,आधुनिक विचार दो|
प्रेम के प्रकाश को, विश्व में पसार दो ||

मीत उसी गीत से,जानिये कि त्राण है|
जो सुप्रीति से करे,नीति पूर्ण प्राण है ||
भूख-प्यास त्रास की,कश्तियाँ उबार दो|
प्रेम के प्रकाश को, विश्व में पसार दो||

आह ने कराह ने, नव्य भव्य राह दी|
चाह के प्रवाह ने,स्नेह की निगाह दी||
जीव-जंतु को सदा,प्यार दो दुलार |
प्रेम के प्रकाश को, विश्व में पसार दो||

साधना बिना कभी, सर्जना हुई नहीं|
भावना बिना कभी,अर्चना हुई नहीं ||
शब्द के प्रयोग से, अर्थ को निखार दो|
प्रेम के प्रकाश को, विश्व में पसार दो||

Friday, May 11, 2012

मन की शुचिता हेतु साथियो!,अधिक बोलना ठीक नहीं|
वह कैसा स्वर जिसके उर की,दृष्टि प्रखर बारीक नहीं||

तिल भर आसान हिले न डोले,जो रक्तिम संहार से,
उनके उखड़ गये पग पल में,शब्द शक्ति की मार से|
नैतिकता का पथ बन सकता,सत्ता के नजदीक नहीं|
वह कैसा स्वर जिसके उर की,दृष्टि प्रखर बारीक नहीं||

समय नष्ट करने वालों को,किया समय ने नष्ट है,
अपने ऊपर जिसे भरोसा, वही उठाता कष्ट है |
स्वार्थी मानव का हो सकता,अभ्यंतर निर्भीक नहीं|
वह कैसा स्वर जिसके उर की,दृष्टि प्रखर बारीक नहीं||

पर दुख को जो निज दुख समझे,वह जीवन अति धन्य हैं,
जिसमें सब सबके बन जायें, वही विधा अनुमन्य है |
जिसमें बैर भावना रहती,वह पथ लगता नीक नहीं|
वह कैसा स्वर जिसके उर की,दृष्टि प्रखर बारीक नहीं||

धन के लिए वदन का सौदा,ज्यों अनीति व्यापार है,
त्योंही अर्थ प्रशस्ति काव्य के,साथ अनय व्यवहार है|
कविता चेतन शक्ति जगाती,लालच मोह प्रतीक नहीं
वह कैसा स्वर जिसके उर की,दृष्टि प्रखर बारीक नहीं||

Thursday, May 10, 2012

उसका योगदान किस हित का,जो करता निज कर्म नहीं है|

पड़ा बुद्धि पर जिसके ताला, उसको लगे अमृत-सी हाला,
अपनी सदा सभी से क़हता,सुनता कभी नहीं मतवाला|
वही फूल-फल रहा आजकल,जिसमें किंचित शर्म नहीं है,
उसका योगदान किस हित का,जो करता निज कर्म नहीं है|

उसे किसी ने कभी न जांचा,जिसने नित्य नग्न हो नांचा,
वही गया दुतकारा जिसने,योजित किया न आंचा-पांचा |
जितने चाहे तन पर लादो,रक्षा करता वर्म नहीं है,
उसका योगदान किस हित का,जो करता निज कर्म नहीं है|

जिसने परसेवा अपनायी,निश्चय उसे मिले प्रभुतायी,
अन्यायों की रोक-थाम के,हेतु सदा आवाज़ उठायी |
वह यौवन भी कैसा जिसका,शोणित रहता गर्म नहीं है,
उसका योगदान किस हित का,जो करता निज कर्म नहीं है|

अध्यापक युग का निर्माता,छात्र नव्य चिंतन अपनाता,
नागरिकों की जगे चेतना,कवि संवर्धन छंद विधाता|
वर्तमान अनदेखा करना,इन्सानों का धर्म नहीं है,
उसका योगदान किस हित का,जो करता निज कर्म नहीं है|
दिन को दिन कहना जीवन में,जिसे रहा स्वीकार,
उसी ने जिया उचित व्यवहार|
उसी ने किया उचित व्यवहार||

मरुस्थलों को मैदानों को,शिखर वादियों तूफ़ानों को,
साम्य दृष्टि से रहा देखता,जो धरती के सब प्राणों को|
मौन पत्थरों के अंतर की, सुनता रहा पुकार|
उसी ने जिया उचित व्यवहार||
उसी ने जिया उचित व्यवहार||

रात-रात भर जगा न सोया,चकाचौंध में कभी न खोया,
शोध हेतु जो शाधक जैसा, बना विवेकी ज्ञान संजोया|
पतझर को वासंती -सी दी, समरस सुखद बहार|
उसी ने जिया उचित व्यवहार|
उसी ने जिया उचित व्यवहार||

पर दुख में कर कभी न खींचे,शिवम पारखी नेत्र न मींचे,
वृक्ष लतायें उर बागीचे,जीवन जल से अविरल सींचे |
बिका मुफ्त में जो कि लुटाता, रहा सभी को प्यार |
उसी ने जिया उचित व्यवहार||
उसी ने जिया उचित व्यवहार||

हरे चनों की हरियाली-सा,खिलती सरसों की डाली-सा,
फूली-फली फस्ल जब देखी,तब हँस पड़ा कृषक माली-सा|
उसी ने जिया उचित व्यवहार||
उसी ने जिया उचित व्यवहार||

Tuesday, May 8, 2012

बचपन चला गया दे करके,कोमल रँग हज़ार|
हमारा गीत आपका प्यार|
हमारा गीत आपका प्यार||

सुमनों जैसा रहा महकता,गगन परिन्दों भाँति चहकता|
चाहा जहाँ वहाँ पर घूमा, अंगारों -सा रहा दहकता||
युवा अवस्था ने सर्जन की,दे दी शक्ति अपार |
हमारा गीत आपका प्यार|
हमारा गीत आपका प्यार||

सदा सराहा लिखना -पढ़ना,स्वप्नों के शिखरों पर चढ़ना|
बहुत भला लगता था हमको,किस्से छंद कहानी गढ़ना||
जीवन की दोपहर दे ग़यी, अनुभव भरे विचार|
हमारा गीत आपका प्यार|
हमारा गीत आपका प्यार||

ढलती आयु पड़ी विस्मय में,क्यों है पत्ता-पत्ता भय में?
कैसे मुक्ति मिले मानव को,सकल व्यवस्था फँसी अनय में?
जीवन संध्या इन रोगों का ,खोज रही उपचार|
हमारा गीत आपका प्यार|
हमारा गीत आपका प्यार||

अच्छा है कहने से सुनना,मुक्त अर्थ कथनों के गुनना|
जिनसे युग का हित हो उनके,शिवम तत्व को सीखें चुनना|
संभव है सहकार स्नेह से,कुछ हो सके सुधार|
हमारा गीत आपका प्यार|
हमारा गीत आपका प्यार||

Sunday, May 6, 2012

युगों से देश भारत ये हमारा है तुम्हारा है|
इसे सबने परिश्रम के पसीने से सँवारा है||
इसे बर्बाद मत करिये इसी से ज़िन्दगी अपनी,
महकती यों हमेशा ज्यों महकता गुल हजारा है|
उसे अति धन्य कहते है सदा सम्मान भी देते,
किसी के शीश का बोझा स्वतः जिसने उतारा है|
किसी की काल्पनिक गाथा सखे! अच्छी नहीं लगती,
यहाँ की भूमि ऊपर स्वर्ग से सुन्दर नज़ारा है |
अनोखी बात है यह तो इसे भी ध्यान में रखिये,
यहाँ जो लूटने आया मिला उसको सहारा है |
उसे गुणवान कह पाना बहुत मुश्किल हुआ करता,
गरीबों की व्यथाओं से किया जिसने किनारा है|
किसी के देखने भर से उभरता और जो गहरा,
'तुका' ने शब्द चित्रों में उसी रँग को उभारा है|

Saturday, May 5, 2012

आप अपने आप को पहचानिये प्यारे!,
श्रेष्ठ हो इस जिद्द को मत ठानिये प्यारे!

जाति- मजहब, क्षेत्र की पहचान है झूठी,
आदमी को आदमी भर जानिये प्यारे!

लक्ष्य तक जाती नहीं अन्याय की राहें,
न्यायवर्धक केतुओं को तानिये प्यारे!

स्वप्न रूपी सत्य की जो सैर करवाये,
भाँग ऐसी भूलकर मत छानिये प्यारे!

सत्य के पहचान की केवल कसौटी ये,
तर्क पर जो हो खरी वो मानिये प्यारे!

ये' तुका' है शर्त पहली काव्य जीवन की,
मोह कीचड़ में ह्रदय मत सानिये प्यारे!
वतन की शान में दो शब्द कहना चाहते हम भी|
फ़कीरों के समूहों साथ रहना चाहते हम भी  ||

कहेंगे छंद में हर बात जीवन से भरी-पूरी,
र्प्रिये! आलोचकों के वाण सहना चाहते हम भी|

भले ही डूब जायें या कि सागर पार कर जायें ,
मगर मझधार के प्रतिकूल बहना चाहते हम भी|

नहीं चाहत कि कुंदन-सा चमकता हो वदन लेकिन,
दहकती भट्टियों के बीच दहना चाहते हम भी |

शिकायत तो किसी से भी न जीवन में रही प्यारे!, 
मगर श्रम के सलोने हाथ गहना चाहते हम भी|

हमेशा खर्च करने से बढ़े दिन-रात जो दुगना,
'तुका' शिव शब्द का वह अर्थ तहना चाहते हम भी|
बहुत दिनों से गीत पोस्ट नहीं किया एक गीत प्रस्तुत है,जो स्वतंत्रता की ५०वीं वर्ष गाँठ पर लिखा था| पुनः विचार कीजिये कि इन १५ वर्षों बाद भी सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन के व्यवहार में क्या अंतर आया है :-

किसको रोना यहाँ पड़ रहा,किसमें है उल्लास?
अब स्वदेश की आज़ादी के,बीते वर्ष पचास ||

झूठी निकली घोषित बातें,झूठे निकले नारे|
कहाँ दूध सरितायें,लाखों,फिरें भूख से मारे?
नहीं अभी तक हो पाया है,घर-घर बीच प्रकाश|
अब स्वदेश की आज़ादी के,बीते वर्ष पचास ||

शासन की सम्पूर्ण व्यवस्था,फँसी हुई छलियों में|
समता ममता न्याय बन्धुता,विलख रही गलियों में||
सुमन लताओं का होता है,नित्य भविष्य विनाश|
अब स्वदेश की आज़ादी के,बीते वर्ष पचास ||

श्रमिकों को श्रम की मजदूरी,अभी न मिलती पूरी|
ढाबों में जूठन खाती है, बच्चों की मजबूरी||
न्याय नीतियों का करते हैं,पूँजीपति परिहास |
अब स्वदेश की आज़ादी के,बीते वर्ष पचास ||

भौतिकता की चकाचौंध में,सच वे देख न पाते|
जो मानव से अधिक मित्रता,धन के साथ निभाते||
अन्तर को दे रहा वेदना , विष जैसा विश्वास |
अब स्वदेश की आज़ादी के,बीते वर्ष पचास ||