सच को सच कहने की जिसमें,क्षमता नहीं रही|
उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही||
प्रिय है जिसको शब्द साधना,वह परमार्थ करे,
तृषा बुझाये सकल सृष्टि की,निर्झर भाँति झरे|
जिसने जन्मभूमि -सी समझी,नहीं समग्र मही|
उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही||
धरती के कण-कण को जिसने,माना वसुंधरा ,
वही विवेकी भाव- सिंधु में,उतर सका गहरा|
जिये कूप के मेढक-सा जो,बात करे सतही|
उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही||
कवि के एक-एक अक्षर से,चेतन शक्ति जगे,
जन जीवन के लिए ह्रदय में,शुचि अनुरक्ति पगे|
निष्पृह हो अभिव्यक्ति न जिसकी,तो फिर कहो यही|
उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही||
सब के दुख को,निज दुख जैसा,जो कि नहीं समझा,
वह कितना महान हो फिरभी,रहा भ्रमित उलझा |
पर सुख देख न जिसको सुख हो,तो यह उक्ति सही|
उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही||
उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही||
प्रिय है जिसको शब्द साधना,वह परमार्थ करे,
तृषा बुझाये सकल सृष्टि की,निर्झर भाँति झरे|
जिसने जन्मभूमि -सी समझी,नहीं समग्र मही|
उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही||
धरती के कण-कण को जिसने,माना वसुंधरा ,
वही विवेकी भाव- सिंधु में,उतर सका गहरा|
जिये कूप के मेढक-सा जो,बात करे सतही|
उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही||
कवि के एक-एक अक्षर से,चेतन शक्ति जगे,
जन जीवन के लिए ह्रदय में,शुचि अनुरक्ति पगे|
निष्पृह हो अभिव्यक्ति न जिसकी,तो फिर कहो यही|
उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही||
सब के दुख को,निज दुख जैसा,जो कि नहीं समझा,
वह कितना महान हो फिरभी,रहा भ्रमित उलझा |
पर सुख देख न जिसको सुख हो,तो यह उक्ति सही|
उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही||
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