Sunday, May 20, 2012

सच को सच कहने की जिसमें,क्षमता नहीं रही| उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही|| प्रिय है जिसको शब्द साधना,वह परमार्थ करे, तृषा बुझाये सकल सृष्टि की,निर्झर भाँति झरे| जिसने जन्मभूमि -सी समझी,नहीं समग्र मही| उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही|| धरती के कण-कण को जिसने,माना वसुंधरा , वही विवेकी भाव- सिंधु में,उतर सका गहरा| जिये कूप के मेढक-सा जो,बात करे सतही| उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही|| कवि के एक-एक अक्षर से,चेतन शक्ति जगे, जन जीवन के लिए ह्रदय में,शुचि अनुरक्ति पगे| निष्पृह हो अभिव्यक्ति न जिसकी,तो फिर कहो यही| उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही|| सब के दुख को,निज दुख जैसा,जो कि नहीं समझा, वह कितना महान हो फिरभी,रहा भ्रमित उलझा | पर सुख देख न जिसको सुख हो,तो यह उक्ति सही| उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही||

सच को सच कहने की जिसमें,क्षमता नहीं रही|
उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही||

प्रिय है जिसको शब्द साधना,वह परमार्थ करे,
तृषा बुझाये सकल सृष्टि की,निर्झर भाँति झरे|
जिसने जन्मभूमि -सी समझी,नहीं समग्र मही|
उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही||

धरती के कण-कण को जिसने,माना वसुंधरा ,
वही विवेकी भाव- सिंधु में,उतर सका गहरा| 
जिये कूप के मेढक-सा जो,बात करे सतही|
उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही||

कवि के एक-एक अक्षर से,चेतन शक्ति जगे,
जन जीवन के लिए ह्रदय में,शुचि अनुरक्ति पगे|
निष्पृह हो अभिव्यक्ति न जिसकी,तो फिर कहो यही|
उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही||

सब के दुख को,निज दुख जैसा,जो कि नहीं समझा,
वह कितना महान हो फिरभी,रहा भ्रमित उलझा | 
पर सुख देख न जिसको सुख हो,तो यह उक्ति सही|
उसने कुछ भी कहा जानिये,कविता नहीं कही||

No comments:

Post a Comment