Tuesday, May 15, 2012

सुना दो गीत कवि ऐसा,क्षितिज तक शोर हो जाये|
ज़माना त्याग दे तन्द्रा,सुनहरा भोर हो जाये||

जहाँ इन्सान भूखा है,ह्रदय का खेत सूखा है|
जहाँ अनुरक्ति का अक्षर,मिला हरवक्त रूखा है||
वहाँ सहयोग घन बनकर, बरसिये रात-दिन इतना-
अनैतिक शक्तियों का स्वर,स्वतः कमजोर हो जाये| 
ज़माना त्याग दे तन्द्रा,सुनहरा भोर हो जाये||

जहाँ पर लूट घोटाले, जहाँ धंधे चलें काले|
जहाँ पर स्वार्थी मन ने,लगाये नीति पर ताले||
वहाँ साहित्य संबल से,प्रबोधन कीजिये इतना-
घृणा की ओर जो है वो,प्रणय की ओर हो जाये|
ज़माना त्याग दे तन्द्रा,सुनहरा भोर हो जाये||

सहा करते अनय को जो,नहीं समझे समय को जो|
मृगों की भाँति जीवन भर,भुला पाये न भय को जो||
फजायें चाहती उनकी, रगों का रक्त खौला दो-
सर्प क दर्प दलने को,कबूतर मोर हो जाये |
ज़माना त्याग दे तन्द्रा,सुनहरा भोर हो जाये||

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