Wednesday, October 26, 2011


सिवा तुम्हारे किसे सुनायें, अनुभव अर्जित हाल|
बुरे हैं धनिक लाल के ख्याल||
बुरे हैं धनिक लाल के ख्याल|||
 
मानवता का मान कहाँ है, सज्जन का सम्मान कहाँ है?
जुड़े हुए जो राजनीति से, उन पर व्याप्त विधान कहाँ है?
संत ह्रदय तो झेल रहे हैं, पग- पग पर जन्जाल|
बुरे हैं धनिक लाल के ख्याल||
 
कमजोरों का नहीं गुजारा, क्रूर तस्करों का जयकारा |
मिलकर जाति-वर्ग,वर्णों ने,किया राष्ट्र धन का बंटवारा||
मार कुंडली बैठ गए हैं, भ्रष्टाचारी व्याल |
बुरे हैं धनिक लाल के ख्याल||
 
 
दिखती उज्ज्वल राह नहीं है, सकल प्रगति की चाह नहीं है|
यूँ लगता ज्यों न्यायालय की, पूर्ण स्वतंत्र निगाह नहीं है ||
फल लगते ही झुक जाती है, न्याय वृक्ष की डाल |
बुरे हैं धनिक लाल के ख्याल||
बुरे हैं धनिक लाल के ख्याल|||
 
लोकतंत्र का पथ पहचानो, अपनेपन की जिद्द न ठानो|
वोट शक्ति की शुचि क्षमता को, अणु अस्त्रों से ज्यादा जानो||
मतदाता के आगे  झुकते, बड़े-बड़ों के भाल|
बुरे हैं धनिक लाल के ख्याल||
बुरे हैं धनिक लाल के ख्याल|||

Tuesday, October 25, 2011

जाति- वर्ग का मीत नहीं हूँ, इंसानों का गीत हूँ |
बात विभाजन की जो करता,उस स्वर के विपरीत हूँ ||

यह दुनिया परिवार एक है,जिसमें सब इंसान हैं|
इनमें भेद डालने वाले, स्वार्थ पथी शैतान हैं|| 
चेतनता जो विकसित करता, वह प्रबोध संगीत हूँ|
बात विभाजन की जो करता,उस स्वर के विपरीत हूँ||

रूप-रँग भौगोलिक सीमा, राजनीति का खेल है |
सोच मजहबी समझ लीजिए, एक अँधेरी जेल है ||
धर्म-तंत्र के रक्त-पात का, भूला नहीं अतीत हूँ |
बात विभाजन की जो करता ,उस स्वर के विपरीत हूँ||

लोकतंत्रीय निर्मल वाणी, समता परक स्वाभाव है |
जिन पर करती जुल्म व्यवस्था,उनसे सहज लगाव है|
न्याय नीति मंथन से निकला, संवर्धक नवनीत हूँ |
बात विभाजन की जो करता ,उस स्वर के विपरीत हूँ||

Friday, October 21, 2011

घर- परिवारों के रिश्तों में

घर- परिवारों के रिश्तों में, बड़ी गिरावट आई है|
भौतिकता ने नैतिकता की,खड़ी फस्ल कटवाई है||

जिसने अपना दूध पिलाया, सबसे पहला शब्द सिखाया|
भूख-प्यास को सहकर हरदम,पका-पका जिसे खिलाया||
उसी पुत्र के द्वारा माँ ने, विपदा विपुल उठाई है|
भौतिकता ने नैतिकता की,खड़ी फस्ल कटवाई है||

जिसने अंगुली पकड़ चलाया,अपने कन्धों पर बैठाया|
विविध विषाक्त परिस्थितियों में,जिसका वर्षों साथ निभाया||
उसी पुत्र ने वृद्ध पिता की, प्यास न कभी बुझाई है|
भौतिकता ने नैतिकता की, खड़ी फस्ल कटवाई है||

जिसने बाबुल का घर छोड़ा,पत्नी धर्मं का नाता जोड़ा|
उसी कली के हाथ-पैर को, उसके गृहस्वामी ने तोडा ||
सुमन सुहानी सुन्दर काया, धन के लिए जलाई है |
भौतिकता ने नैतिकता की,खड़ी फस्ल कटवाई है||

जिसने सास श्वसुर ठुकराये,जेठ-जिठानी जिसे न भाये|
ननद देवरों ऊपर तीखे , शब्द- वाण बहुभाँति चलाये||
उस नारी ने मानवता की , शुचि पहचान मिटाई है |
भौतिकता ने नैतिकता की, खड़ी फस्ल कटवाई है||
 बड़ी गिरावट आई है|
भौतिकता ने नैतिकता की,खड़ी फस्ल कटवाई है||

जिसने अपना दूध पिलाया, सबसे पहला शब्द सिखाया|
भूख-प्यास को सहकर हरदम,पका-पका जिसे खिलाया||
उसी पुत्र के द्वारा माँ ने, विपदा विपुल उठाई है|
भौतिकता ने नैतिकता की,खड़ी फस्ल कटवाई है||

जिसने अंगुली पकड़ चलाया,अपने कन्धों पर बैठाया|
विविध विषाक्त परिस्थितियों में,जिसका वर्षों साथ निभाया||
उसी पुत्र ने वृद्ध पिता की, प्यास न कभी बुझाई है|
भौतिकता ने नैतिकता की, खड़ी फस्ल कटवाई है||

जिसने बाबुल का घर छोड़ा,पत्नी धर्मं का नाता जोड़ा|
उसी कली के हाथ-पैर को, उसके गृहस्वामी ने तोडा ||
सुमन सुहानी सुन्दर काया, धन के लिए जलाई है |
भौतिकता ने नैतिकता की,खड़ी फस्ल कटवाई है||

जिसने सास श्वसुर ठुकराये,जेठ-जिठानी जिसे न भाये|
ननद देवरों ऊपर तीखे , शब्द- वाण बहुभाँति चलाये||
उस नारी ने मानवता की , शुचि पहचान मिटाई है |
भौतिकता ने नैतिकता की, खड़ी फस्ल कटवाई है||

Sunday, October 16, 2011

                गीत समय का
कुछ कहते हैं, कुछ करते हैं , किन्तु नहीं शर्माते लोग |
किसे  सुनायें गीत समय का, सत्य कहाँ सुन पाते लोग?

सकरी राहों पर चल कर के , जिनको मंजिल पानी है|
उनके लिए यहाँ पग-पग पर , उलझन है हैरानी है|| 
कमजोरों के विविध विरोधी , मुँह के कौर छिनाते लोग|
किसे सुनायें गीत समय का,सत्य कहाँ सुन पाते लोग?

शासक और प्रशासक दोनों, भुजबलियों से डरते हैं |
लूट-पाट, छीना-झपटी को, बेबस देखा करते हैं ||
धनहीनों को ठुकराते हैं , धनिकों से घबराते लोग |
किसे सुनायें गीत समय का,सत्य कहाँ सुन पाते लोग?

जाति-वर्ग मजहब भाषा ने, बाँट दिया इंसानों को |
क्षेत्रवाद की स्वार्थ वृत्ति ने, अपनाया शैतानों को ||
कुछ को उच्च यहाँ पर , कुछ को नीच बताते लोग|
किसे सुनायें गीत समय का सत्य कहाँ सुन पाते लोग?

भौतिकता की चकाचौध में, बुद्धि-विवेक को गया है|
मानव को अपने से ज्यादा, धन से प्यार हो गया है||
बिटियों का तो भ्रूण गिराते, बहुंयें यहाँ जलाते लोग |
किसे सुनायें गीत समय का,सत्य कहाँ सुन पाते लोग?

Friday, October 14, 2011

सहस्रों साल तक जिसने, यहाँ पर मार खायी है|
उसी के राज करने की, व्यवस्था आज आई है ||

बिछाओं लाख शूलों को, उन्हें भी झेल वे लेंगे ,
जिन्होंने शीलवर्धन की, स्वतः सौगंध खाई है|
किसी की गंदगी ढोते, रहे जो सैकड़ों वर्षों ,
वही सब साफ कर लेंगे,जमीं जिस ठौर काई है|

तुम्हारी स्वार्थ सत्ता के,लिए निज रक्त पानी-सा,
बहाते ही रहे फिर भी, न पाई एक पाई है ||

सभी को ज्ञात है किस्सा,सुनायें और क्या किसको,
अभावों में मरी ताई , विलखती नित्य माई है |

उपेक्षित जो रहे अब तो , उन्होंने सीख ली भाषा,
'तुका' की ज़िन्दगी में ही, पढाई रंग लाई है ||

Sunday, October 9, 2011

अभी तक यह निश्चित नहीं हो सका है कि यह आन्दोलन भ्रस्टाचार के मूल को उन्मूल करने के लिये खड़ा किया गया है अथवा सरकार के विरोध के लिये,और लोकतान्त्रिक संवैधानिक व्यवस्था को कमजोर करने के लिये, कांग्रेस को वोट मत दो, यह मुहिम क्या साबित करती है और किसे वोट दो, इस पर मौन रहना किस चतुराई को प्रदर्शित कर रही है, संघ प्रमुख का वक्तव्य और सिविल सोशायटी के विचार में क्या कोई तालमेल दिख रहा है, क्या संघ प्रमुख से अधिक विश्वसनीय सिविल सोशायटी के सदस्य, आर.एस.एस. के कार्यकर्ताओं की दृष्टि में हो सकते है?  सिविल सोशायटी के सदस्य स्वघोषित दूध के धुले हैं और पूरी कांग्रेस पार्टी उनकी दृष्टि में साफसुथरी नहीं है ऐसी भावना से अनुप्रेरित क्या कोई गैरराजनैतिक संगठन हो सकता है? और क्या यह संगठन किसी राजनैतिक पार्टी को ईमानदार भावना से अनुप्रेरित मानता है, जब की एन.जी.ओ. का समर्थन कर रहा, पूंजीपतियों के हितवर्धक के रूप में सामने आया है , जिस संगठन ने अपने जन्म के समय ही भारतीय सामजिक और संवैधानिक व्यवस्था का किंचित मात्र भी ध्यान नहीं रखा उसे  
सम्पूर्ण नागरिकों का प्रतिनिधि कैसे माना सकता है?

किसी लोकपाल बिल की तुलना में भारतीय संविधान को रखना किंचित मात्र भी न्यायिक नहीं है, तुलना दो समान प्रकृतियों धर्म और गुणों  के साथ की जाती है  और जो लोग ऐसा कर रहे हैं उन्हें स्वयमेव एक बार मुक्त मन से यह सोचना चाहिए क्या वह भारत में दो समानांतर सत्तायें और व्यवस्थायें चाहते हैं ?
भारतीय संविधान के दायरे में संचालित संस्थायें हर प्रकार के भ्रस्टाचार को उन्मूलित करने हेतु सक्षम हैं किसी भी प्रकार के लोकपाल की आवश्यकता नहीं है , वर्तमान में एक से बढ़कर एक शक्तिशालियों को प्रभावशालियों को राजनीतिज्ञों को और अधिकरियों को इसी व्यवस्था के अंतर्गत सजा दी जा रही अथवा प्रक्रिया प्रारम्भ की गई है| आवश्यकता है केवल सदाचरण की जो किसी कानून से नहीं अपितु पारिवारिक सामाजिक सोच से विकसित हो सकती है| कानून की जटिलता से भय उत्पन्न होता है, जो अंततः भ्रस्टाचार को बढ़ाता है| वर्तमान में भी भ्रस्टाचार के बढ़ने में कानूनी जकड़ने ही अधिक जुम्मेदार हैं| भय लोकतंत्र विरोधी हैं, निर्भयता लोकतंत्र पोषक| 

कानून सामान्यतः आने वाली पीढ़ियों को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं और में एक अध्यापक के रूप में, एक विचारक के रूप में एक कवि के रूप में अपने ६४ वर्षीय अर्जित अनुभव के आधार पर यह कह सकता हूँ कि जो कोई भी अपने आप को ईमानदार घोषित कर रहा है वह इस देश के छोटे-छोटे बच्चों कि तुलना में  कम ईमानदार है| हम इन बच्चों को ईमानदार बना रहने दें यही बहुत बड़ा उपकार होगा इन्हें जितने क़ानूनी फेर में डालेंगे यह उतने ही पराधीनता  की और जायेंगे|    

Friday, October 7, 2011

लोकतंत्रीय राज़
हारे-थके बोझ के मारें ,लोगों की आवाज़ |
उठाता लोकतंत्रीय राज़||
उठाता लोकतंत्रीय राज़ |||
 लोकतंत्र का मूलभाव है, कमजोरों की सेवा |
लाचारों को भी मिल पाये,सुविधाओं का मेवा||
स्नेह शक्ति से बढ़ती जाये,प्रगतिशील परवाज़|
हारे-थके, बोझ के मारें ,लोगों की आवाज़ |
उठाता लोकतंत्रीय राज़ ||

नागरिकों को हो स्वतंत्रता,निज अनुभव कहने की|
पढ़ने,लिखने, खाने-पीने, घर- बाहर रहने की ||
मेल-भाव की सरस धुनों पर, सदा बजायें साज़ |
हारे-थके, बोझ के मारें ,लोगों की आवाज़ |
उठाता लोकतंत्रीय राज़||

जीवन शैली राष्ट्र हितैषी, मानवता पोषक हो |
कथनी-करनी न्याय नीति से,परिपूरित रोचक हो||
विश्व एक परिवार हमारा, यही रहे अंदाज़ |
हारे-थके बोझ के मारें , लोगों की आवाज़ |
उठाता लोकतंत्रीय राज़ ||
उठाता लोकतंत्रीय राज़ |||

Wednesday, October 5, 2011


 

ग्राम देवता --
गाँवों से पहचान जुड़ी है, अपनी बड़ी पुरानी |
है स्वदेश कि शान हमारी, खेती और किसानी||
भोर-भोर से अपने-अपने, कामों पर जाते हैं |
एक साथ मिल पुनः शाम को, प्रेम गीत गाते हैं||
... पाने को समृद्धि सुनायी, जाती कर्म-कहानी |
है स्वदेश कि शान हमारी, खेती और किसानी||
शक्ति पुंज हैं बैल हमारे, हल लेकर कलते हैं|
गाय-भैस के दूध-पूत से, बाल-वृद्ध पलते हैं||
दूध दही घी के प्रभाव से, महके सरस जवानी |
है स्वदेश कि शान हमारी, खेती कला किसानी||
तिलहन गेहूँ धान चने की,फ़सल उगाते आये|
उपज बढ़ाने को दलहन की,नवल बीज अपनाये||
अगहन पौष माघ रातों में, देते रहते पानी |
है स्वदेश की शान हमारी, खेती और किसानी||
ग्राम देवता की पदवी को, बहा पसीना पाये |
श्रम सीकर ही तो नगरों में, चमक दमक पहुँचाये||
श्रमिक-कृषक हैं इस धरती के शुच सपूत दानी |
है स्वदेश की शान हमारी, खेती और किसानी||
संस्कृति समझ सभ्यता अपनी,गाँवों की बस्ती है|
वहीँ सुरक्षित भारत माँ की, सदियों की हस्ती है ||
गाँव स्रोत हैं श्री वैभव के, जिनकी झलक सुहानी|
है स्वदेश कि शान हमारी, खेती और किसानी||
 
 
 
 

Sunday, October 2, 2011

धार्मिक विश्वास किंचित मात्र भी व्यक्तिवादी मान्यता से नहीं समझा जा सकता है, उसे समझने के लिये जीवन मूल्यों को ही आधार बनाया जा सकता है , जब जिज्ञासु व्यक्तिवादी हो जाता है तब वह भक्त हो जाता है और भक्त अपने ईष्ट में कोई कमी नहीं देख पाता जिसके कारण उसकी सत्य और ज्ञान की खोज दूषित हो जाती है और दूषित हो जाने के कारण व आपने लक्ष्य से ही भटक जाता जब कि मूल्य आधारित साधक निरंतर सत्य की खोज में साधनारत रहकर लक्ष्य के समीप पहुँचने में सफल हो जाता इसे ही मुक्ति कहा जाता है|
धार्मिक मान्यता के मूल तत्त्व हैं, सत्य, प्रेम ,करुणा, दया ,क्षमा ,चोरी न करना, व्यभिचार न करना,अधिक संचय न करना, हिंसा न करना, नशा न करना ,नित्य आत्म निरीक्षण करना, परार्थ भाव से जीवन व्यतीत करना , त्याग की भावना से प्रेरित रहकर दूसरों के हितार्थ समर्पित रहना,असत्य गवाही न देना और एक ऐसी शक्ति में विश्वास रखना जो सदैव सत्य ज्ञान की खोज में लगे रहने के लिये उत्प्रेरित करती हो, जिसका लक्ष्य अंततः जीवन को अंतिम यात्रा के लिये भय रहित तैयार रखना है |

Saturday, October 1, 2011

एक मुक्त छंद रचना :

देखकर ये जहाँ आज रोता ह्रदय,
जिसमें बसते हैं शैतान हर मोड़ पर|
ये ज़मीं तो बनी आदमी के लिये,
किन्तु रहने लगे हिन्दू,मुस्लिम यहाँ-
कोई कहता है-
ईशा के चेले हैं हम,
कोई कहता है नानक की तस्वीर हैं;
कुछ बने बुद्ध ज्ञानी के अनुयायी खुद ,
कुछ ने माना महाबीर के भक्त हैं |
किन्तु लड़ते हैं आपस में,
हर वक्त वे,
काटते हैं उन्हें-
जो कि इन्सान हैं|
जब 'तुका' घूमता है शहर गाँव में,
ऊँची-नीची गली, धूप में छाँव में ;
देखता लोग रहते हैं जिस हाल में,
काटते ज़िन्दगी भूख -जंजाल में ;
तब मिला न वहाँ कोई हिन्दू कभी,
न गया था वहाँ नेक मुस्लिम कभी,
बुद्ध नानक महाबीर के शिष्य भी,
यीशु करुणामयी के परमधीर भी,
न मिले थे वहाँ लेके पानी कभी,
उस विलख कि झलक से-
व्यथित उर कहे,
आज बन जा अरे! बंधु इंसा सही|