Saturday, October 1, 2011

एक मुक्त छंद रचना :

देखकर ये जहाँ आज रोता ह्रदय,
जिसमें बसते हैं शैतान हर मोड़ पर|
ये ज़मीं तो बनी आदमी के लिये,
किन्तु रहने लगे हिन्दू,मुस्लिम यहाँ-
कोई कहता है-
ईशा के चेले हैं हम,
कोई कहता है नानक की तस्वीर हैं;
कुछ बने बुद्ध ज्ञानी के अनुयायी खुद ,
कुछ ने माना महाबीर के भक्त हैं |
किन्तु लड़ते हैं आपस में,
हर वक्त वे,
काटते हैं उन्हें-
जो कि इन्सान हैं|
जब 'तुका' घूमता है शहर गाँव में,
ऊँची-नीची गली, धूप में छाँव में ;
देखता लोग रहते हैं जिस हाल में,
काटते ज़िन्दगी भूख -जंजाल में ;
तब मिला न वहाँ कोई हिन्दू कभी,
न गया था वहाँ नेक मुस्लिम कभी,
बुद्ध नानक महाबीर के शिष्य भी,
यीशु करुणामयी के परमधीर भी,
न मिले थे वहाँ लेके पानी कभी,
उस विलख कि झलक से-
व्यथित उर कहे,
आज बन जा अरे! बंधु इंसा सही|

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