Friday, March 30, 2012

लोकतंत्र हुडदंग नहीं है , लोकतंत्र बदरंग नहीं|
लोक व्यवस्था के जीवन में,मान्य बंधुओ! जंग नहीं||

अपने आप सभी को रहना अनुशासित होता है,
नागरिकों से चित्र राष्ट्र का परिभाषित होता है|
देश भक्त वे नहीं कि जिनमें,जन सेवार्थ उमंग नहीं|
लोक व्यवस्था के जीवन में,मान्य बंधुओ! जंग नहीं||

लोकतंत्र में मानवता को आगे लाया जाता,
भेद-भाव को त्याग स्नेह समता स्वर गाया जाता|
वैज्ञानिक चिंतन बढ़ता है,रहता अंतर तंग नहीं|
लोक व्यवस्था के जीवन में,मान्य बंधुओ! जंग नहीं||

सबको लोकहितैषी विधि से निर्णय लेने होते,
नागरिकों के सभी स्वत्व भी,उनको देने होते|
अपने कटु विरोधियों का भी, तज सकते है संग नहीं| 
लोक व्यवस्था के जीवन में,मान्य बंधुओ! जंग नहीं||

Thursday, March 29, 2012

समाज में अशांति है, अपार लूटमार है|
विकास ढोल बज रहे, सुधार है सुधार है||

जिन्हें समाजवाद पर, असीम ऐतवार है|
उन्हीं सुबंधु के यहाँ, स्याह धन अपार है ||
किसी गुनाहगार को, न खौफ़ है विधान का,
सुना गया कि न्यायपालिका पनाहगार है|

महान लोकतंत्र के, महान लोकशाह भी,
जुबान खोलते नहीं, धनेश से करार है|

स्वतंत्र आँख खोलिए, निहारिए विचारिये,
कि क्यों गरीब आदमी, अमीर का शिकार है ?

'तुका' गरीब गाँव पर, प्रकोप है उजाड़ का,
मगर सफेदपोश के, यहाँ सदा बहार है|

Monday, March 26, 2012

कौन यहाँ अत्याचारी हैं,कौन यहाँ व्यभिचारी?
कौन लुटेरों के पोषक हैं,जाने जनता प्यारी?

रूप-रंग तो बदल लिया है,केवल खुद को सबल किया है,
भाषण अविरल विमल दिये है,पर न आचरण धवल जिया है|
अर्थ भारी थैली थामी है,बुद्धि गई सब मारी|
कौन यहाँ अत्याचारी हैं,कौन यहाँ व्यभिचारी?
कौन लुटेरों के पोषक हैं,जाने जनता प्यारी?

नफ़रत को फैलाने वाले,दो के बीस बनाने वाले,
खोटे सिक्कों की ताकत पर,रुतबा यहाँ दिखाने वाले|
क्रूर मिलावट खोर हज़ारों,कहलाते व्यापारी|
कौन यहाँ अत्याचारी हैं,कौन यहाँ व्यभिचारी?
कौन लुटेरों के पोषक हैं,जाने जनता प्यारी?

कई संगठित भ्रष्टाचारी,बन बैठे है धर्म पुजारी,
जन गण मन की अभिलाषा को,रौंद रहे हैं बारी-बारी|
विज्ञापित यूँ किये जा रहे, जैसे हों अवतारी|
कौन यहाँ अत्याचारी हैं,कौन यहाँ व्यभिचारी?
कौन लुटेरों के पोषक हैं,जाने जनता प्यारी?

गान गरीब किसान हमारे,आश्वासन के महज़ सहारे,
पैंसठ वर्ष बीतने पर भी,भूखे-प्यासे हारे-मारे| 
अधिकारी सत्ताधारी भी ,दिखलाते लाचारी|
कौन यहाँ अत्याचारी हैं,कौन यहाँ व्यभिचारी?
कौन लुटेरों के पोषक हैं,जाने जनता प्यारी?
बहुत हो चुकी आयु,अर्थ से क्या लेना देना?
नाव अपने बाजुओं से है स्वतः खेना||

डालियों के छाँटने से कुछ नहीं होगा,
काटना है तो अनय-तरु मूल को काटो,
है असंभव जिन पथों से मंज़िलें पाना -
गर्त गहरे सब वहाँ के देखकर पाटों|
लेखनी रूपी कुदाली थाम ली है तो-
सर्जना के हेतु बनिये चेतना सेना||

कौन कहता चाहने से कुछ नहीं होता,
क्या तिमिर के कोप से दिनमान है हारा?
वो पहाड़ों के ह्रदय को चीर देता है-
जो प्रपातों-सी बहाता स्नेह-जल धारा|
शब्द में तो शक्ति है अणुअस्त्र से ज्यादा-
काव्य रूपी शस्त्र को कुछ सीखिए टेना||

एक दिन संसार नव आकर पायेगा,
भूमि पर भूखा न कोई आदमी होगा,
आज है एलानिया ये घोषणा कवि की-
न्याय देना शासकों को लाजिमी होगा|
लोकशाही इस जहाँ से अब न जायेगी-
और भूखे से सभी को वोट है लेना ||

Sunday, March 25, 2012


चौसठ वर्षों बाद कौन-सी रीति गई हैं शोधी,
भ्रष्टाचार बढ़ाने वाले भ्रष्टाचार विरोधी|
संत बनकर आये,मेह जैसा छाये||

लूट लिया भरपूर राष्ट्र को, मिलकर कई लुटेरों ने,
बाँट लिया है सब कुछ अबतो, चोर-चोर मौसेरों ने|
पोल खोलने वालों को ठग कहते हैं अवरोधी||
चौसठ वर्षों बाद कौन-सी रीति गई हैं शोधी,
भ्रष्टाचार बढ़ाने वाले भ्रष्टाचार विरोधी|
संत बनकर आये,मेह जैसा छाये||

कई पीढ़ियों हेतु भरा हैं,जिनके घर का हर कोना,
उनको भी आ गया देखिये, घड़ियालों जैसा रोना|
धन सेवी के सेवक कहते, जनसेवी हैं क्रोधी||
चौसठ वर्षों बाद कौन-सी रीति गई हैं शोधी,
भ्रष्टाचार बढ़ाने वाले भ्रष्टाचार विरोधी|
संत बनकर आये,मेह जैसा छाये||  

Saturday, March 24, 2012

अस्सी वर्षों के गालों पर युवकों-सी लाली,
लेकिन कई करोड़ों बच्चों की खाली थाली|
यही है जुम्मेदारी,मलाई बारी-बारी||

शिक्षालय में ताले लटके,अस्पताल में रोगी भटके,
सरकारी दफ्तर में जनता,बिजली जैसे खाती झटके|
काले धन ने कर डाली है, सत्ता भी काली|
यही है जुम्मेदारी,मलाई बारी-बारी||

भाषण जितने प्यारे-प्यारे,प्रतिफल उतने खारे-खारे,
मतदाता मत देकर सिसकें,कहें न कुछ उलझन के मारे,
सूख रही है लोकतंत्र के,तरुवर की डाली| 
यही है जुम्मेदारी,मलाई बारी-बारी||

क्रूर व्यवस्था मानो सोती,गाँव गरीब किसानी रोती, 
जो न उठाने से उठता है,उस बोझे को महिला ढोती,
जनप्रतिनिधि दल प्रतिनिधियों-सी,करते रखवाली|
यही है जुम्मेदारी,मलाई बारी-बारी||

Friday, March 23, 2012

लोग जो भी किये हड़बड़ी चौधरी|
वे अधिकतर किये गड़बड़ी चौधरी||

आपके साथ गद्दार वो आ गया,
काल्पनिक बात जिसने जड़ी चौधरी|

वक्त की रौशनी को समझ लीजिये,
छोड़िये जाति की हेकड़ी चौधरी |

पैर उस मार्ग के बीच में मत धरें,
स्वार्थ की भित्ति जिसमें खड़ी चौधरी|

तोप तलवार बेकार उसके लिए,
प्यार की जो लिए है छड़ी चौधरी|

दर्द अपमान का जानता वो नहीं,
मार जिसके न सिर पर पड़ी चौधरी|

भीड़ तो मंत्रियों की दिखावा'तुका'
राज करती सदा चौकड़ी चौधरी |

Thursday, March 22, 2012

जीवन कविता :- 

करो जो काम जीवन में,अधूरा मत उसे करना|
जहाँ तक हो सके सबकी,व्यथायें प्यार से हारना||

किसी के व्यंग-वाणों से,कभी विचलित नहीं होना|
मुसीबत के क्षणों में भी,प्रिये!धीरज नहीं खोना||

यहाँ मिलना बिछुड़ना ही,सही जीवन कहानी है|
नहीं जो लौटकर आती,वही जानो जवानी है ||

अकारण प्यार करता जो,न बेटा है न पापा है|
निभाये साथ जो पूरा, वही प्यारा बुढ़ापा है ||

परस्पर लाभ अर्जन के,बने रिश्ते हज़ारों हैं|
कभी पग-पाणि तक अपने,न देते साथ चारों हैं||

इसी का नाम मानव है,करे जो बागवानी को|
भले फल दूसरे खायें,जिये निज जिंदगानी को||
वे व्यवस्था के पुजारी हो नहीं सकते,
जो कि अपने आप ही अपनी बनाते राह|

इस लोक की उस लोक की बातें नहीं करते,
परमार्थ प्रेमी तो कभी घातें नहीं करते ,
दूसरों की वेदनाओं से व्यथित रहते-
स्वार्थ से पूरित न होती साधकों की चाह|

इन्सान को इन्सान जैसा मान देते हैं,
सत्ताधारी से नहीं अनुदान लेते हैं,
स्वाभिमानी ज़िन्दगी के स्नेह सागर की-
कौन ले सकता कभी दो चार पल में थाह|

पाषण को ज्यों भेदकर पानी निकलता है,
त्यों पीडतों को देखकर अंतर पिघलता है,
संत सुविधा भोगियों-सा जी नहीं सकते-
वे अकवि है संत-सी जिनके न उर में आह|

Tuesday, March 20, 2012

दीन हीनों से जिन्हें रिश्ता निभाना आ गया,
लोकशाही में उन्हें जीवन वितान आ गया |

आज सत्ता के शिखर को प्राप्त कर सकता वही,
सत्य के पथ से जिसे आँखें चुराना आ गया |

लोग जो परमेश की दिनरात करते वंदना,
क्यों उन्हें हँसते हुए बच्चे रुलाना आ गया?

आधुनिक युग में उसे नायक बताया जा रहा,
सज्जनों ऊपर जिसे रुतबा ज़माना आ गया|

ध्यान रखिये वो ह्रदय बेहद विकल होगा जिसे,
शासकों के साथ में हँसना-हँसाना आ गया |

हो सके तो उस भले इंसान को सम्मान दो,
जिस किसी को टूटते अंतर मिलाना आ गया|

वह 'तुका' इस भूमि को माँ की तरह अपनाएगा,
जन्म लेने का जिसे प्रिय! ऋण चुकाना आ गया|
राजनीति के हेतु जो,लें गरीब का नाम|
ऐसे जन आते नहीं,धनहीनों के काम ||
जो गरीब के दर्द को, करना चाहें दूर|
राजनीति उनको नहीं,करती है मजबूर||
रेल किराये में हुई, जो थोड़ी -सी वृद्धि|
उस धन से संभव नहीं,जन सुविधा संमृद्धि||
पता नहीं कल हो न हो,इनका उनका साथ|
जन धन रूपी कोष में, क्यों न लगायें हाथ?

Saturday, March 17, 2012

टूटे हुए बान को कसकर, रख न सके अदवान|
उसी चरपैया के अरमान|
निरक्षर लगे बड़े विद्वान||

लालच किंचित रहा न धन का, बहे पसीना श्रम से तन का,
... घास-फूस के उस छप्पर में,अति अमीर जन निकला मन का|
कवि को देख लगा मुस्काने, वह विनम्र इंसान|
उसी चरपैया के अरमान|
निरक्षर लगे बड़े विद्वान||

वातावरण बन गाया न्यारा,आगंतुक हर लगता प्यारा,
पलक झपकते इंसानों से,छप्पर भरा ठसाठस सारा|
सब ग्रामीणों से हँस-हँसकर, हुई सुखद पहचान|
उसी चरपैया के अरमान|
निरक्षर लगे बड़े विद्वान||

निज अभ्यंतर करके खाली,कविता सुनें बजायें ताली,
कवि को यों अनुभूति ज्यों,यही करें भारत रखवाली |
इनके दम से प्रगति इन्हीं से ,हरियाली अभियान|
उसी चरपैया के अरमान|
निरक्षर लगे बड़े विद्वान||
पाँच दोहे :-
मानव त्यों सहता रहा,स्वर्ण शक्ति के घात|
ज्यों सूरज के ताप से,हिम गलता दिनरात||

विश्व हितैषी हो सके,उसी ह्रदय की सोच|
हानि-लाभ के गणित से,पड़े न जिसमें लोच||

किसे सुनायें गीतिका,न्याय-नीति के छंद|
अनाचार से आधुनिक,बुद्धि हो गई भ्रष्ट||

विद्द्या रूपी शक्ति का,परहित में उपयोग|
जो करते हैं वे 'तुका',नहीं भोगप्रिय लोग||

कैसी भौतिक बुद्धि है,कैसी उसकी सोच?
नोच-नोच के खा रही,नैतिकता की चोच||

Monday, March 12, 2012

सुविधा शिक्षा स्वस्थ्य की, पाए हर परिवार।
रोजगार के सुलभ हों,युवकों को उपहार ।
युवकों को उपहार ,प्रभा चुनिए विज्ञानी,
चलें प्रगति के चक्र,न हो किंचित मनमानी;
मतदाता के बीच, न पनपे संकट दुविधा।
बढे स्नेह सहकार,उपेक्षित पायें सुविधा ।।
समझना चाहते शायद नहीं वे लोकशाही को|
चतुर्दिक घूमते फिरते मचाये हैं तबाही को ||

अनैतिक सोच है ऐसी प्रगति देखी नहीं जाती,
भलों की जान लेकर चाहते हैं वाहवाही को |

वहाँ पर किस तरह से शान्ति का माहौल हो सकता,
जहाँ चौबीस घंटे काम करना है सिपाही को |

शिकायत कौन उनकी और किनसे क्यों करे जिनको,
यहाँ छोड़ा गाया छुट्टा महज़ धन की उगाही को |

जहाँ हर ठौर पर बैठे लुटेरे लूटने को हों,
वहाँ संभव नहीं लगता मिलेगा लक्ष्य राही को|

यहाँ कानून कहता है समझ यह लीजिये पहले,
तुम्हें साबित स्वयं करना पड़ेगा बेगुनाही को|

तुम्हारी ज़िन्दगी आसान होगी और भी ज्यादा,
'तुका'अनुभूत करके जानिये अपने इलाही को|

Sunday, March 11, 2012

दिलों में बसाओ ईमानदारी|
हमेशा निभाओ ईमानदारी||

सदा साथ देती है आदमी को,
नहीं भूल जाओ ईमानदारी|
...
झुकेंगीं नहीं ये आँखें तुम्हारी,
सिरों पर बिठाओ ईमानदारी|

पराजित इसे कर पाया न कोई,
नहीं आजमाओ ईमानदारी|

जिन्हें लोग कहते हैं ज्ञानदाता,
उन्हें भी पढ़ाओ ईमानदारी|

बड़ों की बड़ाई खोई कहाँ है,
उन्हें भी सिखाओ ईमानदारी|

'तुका'खोल दो दृग आलोचकों के,
न किंचित छुपाओ ईमानदारी|

Saturday, March 10, 2012

कौन आज भी साथ खड़ा है,कौन हो गया दूर?
बताओ किसका रहा कसूर?
बताओ किसका रहा कसूर?

सुबह -शाम क्या तुम्हें हमेशा,देवी-सा जपते थे|
नग्न वदन जाड़े में भीगे,गर्मी में तपते थे ||
बहता रहा पसीना अविरल,रक्त बहा भरपूर |
बताओ किसका रहा कसूर?
बताओ किसका रहा कसूर?

अपना कभी न दर्द सुनाया,कभी न तुमने जाना|
सुविधाओं की बात नहीं है,मिला न ठौर ठिकाना||
फिर भी रहे निभाते खुल के ,बुनियादी दस्तूर|
बताओ किसका रहा कसूर?
बताओ किसका रहा कसूर?

इधर-उधर से जो आ टपके ,वे सिर ऊपर बैठे|
खूब किया बरदाश्त मगर वे,रहे बराबर ऐठे||
मौका पाकर किया उन्होंने, कैसा चकनाचूर?
बताओ किसका रहा कसूर?
बताओ किसका रहा कसूर?
किसी को कुछ दिया मैंने|
किसी से कुछ लिया मैंने ||

मिला जो विष गिलाओं का,
उसे हँसकर पिया मैंने|
कही है वो गज़ल जिसको,
जिया पूरा किया मैंने |

पसारे कर न जीवन में,
न गाया नातिया मैंने |

खुले हाथों अभावों में,
अमीरी को जिया मैंने|

'तुका'कैसे कहें तन को,
बनाया ताजिया मैंने |

Friday, March 9, 2012

राजनेता शासक, सरकार चलाने के लिए प्रशासकों को आदेशित करता है। प्रशासक सरकार के आदेशानुसार संवैधानिक दायरे में अपने अधीन विभागीय कर्मचारियों से आदेशों का क्रियान्वयन कराते हैं।जनता कभी -कभी इन आदेशों के क्रियान्वयन की प्रणाली से व्यथित होती है। इस व्यथा से बचने  में भ्रष्टाचार आ जाता है। भ्रष्टाचार विरोधी संघ जो सामान्यतः सामान्य नागरिक हैं उनकी मान्यता है कि अधिकांश अधिकारी और राजनेता भ्रष्ट हैं। वे संगठित होकर जनता को लूट रहे हैं और इस लूट से बचने के लिए स्वतंत्र लोकपाल की मांग कर रहे हैं।जनता का पक्ष है कि राष्ट्र के मालिक हम हैं।सरकार को  हमने बनाया है प्रशासक सरकार के नौकरशाह हैं इस प्रकार हम दोनों के स्वामी हैं।
सरकार और प्रशासक संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार राष्ट्रीय संपत्ति और नागरिकों की सुरक्षा उनके अधिकारों  के रक्षार्थ उत्तरदायी है वही व्यवस्था करती है।
सम्प्रति मूल प्रश्न भ्रष्टाचारियों का है  सरकार और जनता का नहीं। भ्रष्ट सरकार में भी हैं और जनता में भी हैं। जनता  सरकार के भ्रष्टाचारियों को इंगित करती हैं और प्रशासक जनता के भ्रष्टाचारियों को पकड़ते हैं।
राजनेता जो सत्ता पक्ष के हैं वह प्रशासक और जनता दोनों में सामंजस्य बैठाने की कोशिश करते हैं जो विपक्ष में हैं वे सरकार पर आरोप लगाते हैं और जब विपक्षी सत्ता पक्ष में पहुँच जाते हैं तो वे भी यही करने लगते हैं और समस्या ज्यों कि त्यों बनी रहती है।
चूकि मूल समस्या है सुधार कैसे हो और सुप्रशासन कैसे चले इसके लिए केवल और केवल एक ही मार्ग है वह है सदाचरण और सदाचरण परिवार से  ही प्रारम्भ  होगा सदाचरण शिक्षा संस्थानों से ही विकसित हो सकेगा और नवीन पीढ़ी ही यह कर सकेगी इसलिए अब आवश्यकता है कि जितनी जल्दी नव पीढ़ी को आगे बढ़ाया जाय उतनी ही तेजी से हम सफल लोकतंत्र की और बढ़ सकेंगे और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपेक्षित प्रगति कर सकेंगे।     

अभी-अभी सूचना आई है कि युवा राजनीतिज्ञ श्री अखिलेश यादव को समाजवादी विधायक दल ने अपने नेता के रूप में चयनित कर लिया और अब वह उत्तर प्रदेश के मुख-मंत्री होने जा रहे हैं|।उत्तर प्रदेश के लिए यह अत्यंत हर्ष का विषय है । युवा राजनीति का दौर प्रारम्भ  हो चुका है|ऐसा होने से कुछ न कुछ अनेक समस्यायें स्वतः कम होने जा रही  हैं जाति -धर्म आधारित भेद-भाव ,चरणचापी व्यवहार,रूढ़ीवादी आचरण,मिनी मुख्यमत्रियों का चलन,और सबसे परिवर्तन कानून-व्यवस्था का सुचारू पालन।युवा मानसिकता की एक और बहुत अच्छी सोच होती है कि वह किसी को भूखा नहीं देख सकता शायद प्रदेश से इस बीमारी का अंत हो सकेगा और चुनावी घोषणापत्र के अनेक वायदे पूर्ण हो सकें इसी कामना के साथ प्रदेश की नई गठित होने वाली सरकार को अनेकानेक बधाई ।
 
क्यों बढ़ता सम्मान है,क्यों घटता है मान|
विदित जिसे यह हो गया,वह इंसान महान?

किये गये अपराध का, सदा भोगिये दंड |
मिले दया से जो क्षमा,वह है सजा प्रचंड ||
भय विहीन कर लीजिये,पहले अपने प्राण|
फिर सोचो किस योग से,होगा जन कल्याण||

कविता का उद्देश्य हो,जन-मन का उत्थान|
मंगलकारी बन सके,भू पर हर इंसान ||

धरती पर्वत घाटियाँ,वन पठार मैदान |
अति दोहन से खो रहे,नैसर्गिक पहचान||

Wednesday, March 7, 2012


 सत्ता है श्रीमान तुम्हारे कब्जे मैं|
किन्तु नहीं अभिमान तुम्हारे कब्जे मैं ||
सामाजिक माहौल प्रदूषित इसीलिये,
रही नहीं संतान तुम्हारे कब्जे मैं ||
धन-दौलत बलवान तुम्हारे कब्जे में|
हो न सका शैतान तुम्हारे कब्जे में ||
सुविधाओं की खान तुम्हारे कब्जे में|
ज्ञान दान सम्मान तुम्हारे कब्जे में||

लोकतंत्र का दौर मगर दिखता अब भी,
सीधा- सा इंसान तुम्हारे कब्जे में |

कहने को तो सब कुछ है परमेश्वर का,
लेकिन है भगवान तुम्हारे कब्जे में |

कविवृन्द करें गुणगान हमेशा प्यारे!,
संविधान ईमान तुम्हारे कब्जे में |

तुम हो विश्व महान ज्ञात है जन मन को,
'तुकाराम' की जान तुम्हारे कब्जे में ||

Monday, March 5, 2012

आधुनिक माहौल में कैसे सुनाये गीत।
राजनेता जा रहे हैं न्याय के विपरीत ।।

लोक ऋषियों की शुमारी आज पगलो में,
श्वेत वस्त्रों से ढके वक राज महलों में।
माफियाओं के सगे वे इसलिए भयभीत।
राजनेता जा रहे हैं न्याय के विपरीत ।।

वे न जानें क्यों चला था देश में चरखा,
लू न झेली जेठ की न पौष की बरखा ।
क्या पता उनको कि कटता किस तरह से शीत?
राजनेता जा रहे हैं न्याय के विपरीत ।।

जो बटोरे जा रहे हैं शक्तियां सारीं,
हैं उन्हीं के शीश जुम्मेदारियां भारीं।
पर अकेले चाटते हैं वे प्रगति नवनीत।
राजनेता जा रहे हैं न्याय के विपरीत ।।

झेलते बनता न उनके शब्द वाणों को,
दीजिये संजीवनी कुछ त्यक्त प्राणों को।
आप ही हारे-थकों के  बंधु हैं मनमीत| 
राजनेता जा रहे हैं न्याय के विपरीत ।।

Sunday, March 4, 2012

इतने उदास क्यों हो जरा मुस्कराइए जनाब?
दृग देख जो रहे हैं उसे गुनगुनाइए जनाब।।
तुझ में परेश में क्या कहीं मानते विभेद लोग,
यदि तू यहाँ न होता वहां वो बताइए जनाब ?
जग में मनुष्य भूखे अभी हैं प्रिये! कई करोड़,
उनकी महानता को कदापि न छिपाइए जनाब।
कितनी ख़राब होगी दशा खूब कीजिये विचार,
फिर एक और रैली विशाल बुलवाइए जनाब।
इतने बड़े बने थे खड़े पारसा समाज बीच,
फिर क्यों न पारसाई जरा-सी दिखाइये जनाब?
हिन्दू मुसलमान बौद्ध ईसाई बहाई सिंख,
पहले स्वतः शरीफ इंसान बन जाइए जनाब।
हँसते हुए 'तुका' के सिवा नफरती विषाक्त घूट,
जिसने पिए उसे तो कंठ से लगाइए जनाब। 
   
 

Saturday, March 3, 2012

जहाँ देखिये हैं वहीँ पर तमाशे ।
करें राजनेता पसर कर तमाशे।।
पता है सभी को किसे क्या बताएं,
बड़ों ने किये हैं उमर भर तमाशे।
जरा सोचिये राजसत्ता किसी ने,
किसी से छिना ली दिखाकर तमाशे।
नसीहत नहीं बात है चेतना की,
बने आजकल ईश के घर तमाशे।
बड़ीं कुर्सियों के लिए हैं कराते,
बड़े आदमीं तो मनोहर तमाशे।
'तुका' कुछ नए दौर से सीखिए भी,
दिखाने लगे आज शायर तमाशे।
  

Friday, March 2, 2012

भूखे-प्यासे चाहते, चावल रोटी दाल।
सत्ताधारी को 'तुका',भये खोटी चाल।।
जहाँ भूख से आदमी,त्याग रहे हों प्राण।
वहां जानिये हैं नहीं,शीलवान इंसान ।।
वर्तमान में हो गए,असफल धर्म प्रयोग।
नहीं भगाये भग रहा,स्वार्थ सिद्धि का रोग।।
एक ओर तन शक्ति है,एक ओर धन शक्ति।
'तुका' धर्म की शक्ति से, श्रेष्ठ शिवं अनुरक्ति।।    

Thursday, March 1, 2012

कवि तथ्य खोजता है|
नित सत्य बोलता है ||
झूठे  फरेबियों को ,
हर वक्त टोकता है |
सहकार के बिना तो,
संभव न एकता है |
टूटे हुए दिलों को ,
साहित्य जोड़ता है|
जिसको सलीब दे दी,
उसकी न कुछ खता है|
हालात की हवा से ,
मुरझा गई लाता है |
वह काव्य  'तुका' जो ,
परमार्थ सोचता है |



अंधकार है अभी अभी निघात घात है।
ज्ञान के प्रकाश का कहाँ हुआ प्रभात है?
स्नेह सभ्यता वहां प्रभाव क्या दिखा सके,
स्वार्थ सिद्धि के लिए जहाँ अशेष रात है।
चेतना प्रबोध का अभाव क्यों न हो वहां,
अर्थ तंत्र का जहाँ बलात बज्रपात है ।
कौन जानता नहीं अभद्र राजनीति के,
सामने अकल्क की कहाँ बची बिसात है ?
मान्यता सदा उसे कबीर भाँती दीजिये,
काव्य-धर्म की जिसे पुनीत प्रीत ज्ञात है।
पंचशील के हरे-भरे विशाल बाग़ में,
साठ साल बाद भी खिला न पारिजात है।
लोकराज्य जानता परन्तु मौन हैं सभी,
ध्वंस के कगार पर खड़ा मनुष्य स्यात है।
लोग तो स्वतंत्र हैं परन्तु मुक्त रूप से,
हो रही कहीं नहीं तुका स्वतंत्र बात है ।