Monday, March 12, 2012

समझना चाहते शायद नहीं वे लोकशाही को|
चतुर्दिक घूमते फिरते मचाये हैं तबाही को ||

अनैतिक सोच है ऐसी प्रगति देखी नहीं जाती,
भलों की जान लेकर चाहते हैं वाहवाही को |

वहाँ पर किस तरह से शान्ति का माहौल हो सकता,
जहाँ चौबीस घंटे काम करना है सिपाही को |

शिकायत कौन उनकी और किनसे क्यों करे जिनको,
यहाँ छोड़ा गाया छुट्टा महज़ धन की उगाही को |

जहाँ हर ठौर पर बैठे लुटेरे लूटने को हों,
वहाँ संभव नहीं लगता मिलेगा लक्ष्य राही को|

यहाँ कानून कहता है समझ यह लीजिये पहले,
तुम्हें साबित स्वयं करना पड़ेगा बेगुनाही को|

तुम्हारी ज़िन्दगी आसान होगी और भी ज्यादा,
'तुका'अनुभूत करके जानिये अपने इलाही को|

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