Thursday, March 1, 2012

अंधकार है अभी अभी निघात घात है।
ज्ञान के प्रकाश का कहाँ हुआ प्रभात है?
स्नेह सभ्यता वहां प्रभाव क्या दिखा सके,
स्वार्थ सिद्धि के लिए जहाँ अशेष रात है।
चेतना प्रबोध का अभाव क्यों न हो वहां,
अर्थ तंत्र का जहाँ बलात बज्रपात है ।
कौन जानता नहीं अभद्र राजनीति के,
सामने अकल्क की कहाँ बची बिसात है ?
मान्यता सदा उसे कबीर भाँती दीजिये,
काव्य-धर्म की जिसे पुनीत प्रीत ज्ञात है।
पंचशील के हरे-भरे विशाल बाग़ में,
साठ साल बाद भी खिला न पारिजात है।
लोकराज्य जानता परन्तु मौन हैं सभी,
ध्वंस के कगार पर खड़ा मनुष्य स्यात है।
लोग तो स्वतंत्र हैं परन्तु मुक्त रूप से,
हो रही कहीं नहीं तुका स्वतंत्र बात है ।


 

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