Monday, March 5, 2012

आधुनिक माहौल में कैसे सुनाये गीत।
राजनेता जा रहे हैं न्याय के विपरीत ।।

लोक ऋषियों की शुमारी आज पगलो में,
श्वेत वस्त्रों से ढके वक राज महलों में।
माफियाओं के सगे वे इसलिए भयभीत।
राजनेता जा रहे हैं न्याय के विपरीत ।।

वे न जानें क्यों चला था देश में चरखा,
लू न झेली जेठ की न पौष की बरखा ।
क्या पता उनको कि कटता किस तरह से शीत?
राजनेता जा रहे हैं न्याय के विपरीत ।।

जो बटोरे जा रहे हैं शक्तियां सारीं,
हैं उन्हीं के शीश जुम्मेदारियां भारीं।
पर अकेले चाटते हैं वे प्रगति नवनीत।
राजनेता जा रहे हैं न्याय के विपरीत ।।

झेलते बनता न उनके शब्द वाणों को,
दीजिये संजीवनी कुछ त्यक्त प्राणों को।
आप ही हारे-थकों के  बंधु हैं मनमीत| 
राजनेता जा रहे हैं न्याय के विपरीत ।।

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