Thursday, May 28, 2015

माना कि

माना कि हम बूढ़े हैं पर हार तो नहीं माने,
घबरा कर दकियानूसी विचार तो नहीं माने|
उसके संरक्षण में ही तस्कर पनपते रहते,
इस सच्चाई को कभी सरकार तो नहीं माने|
मिलावटखोरी जमाखोरी अपराध है लेकिन,
इस कठोर कानून को व्यापार तो नहीं माने|
जाने कब से कहते आये वसुधैव कुटुम्बकम,
पर अभी तक दुनिया को परिवार तो नहीं माने|
उसका धर्म है काटना काटेगी अगर चलेगी,
यह अपना वह पराया तलवार तो नहीं माने|
कोई तुका प्रेमियों से नफरत करता है करे,
पर जाति-धर्म के भेद को प्यार तो नहीं माने|

Wednesday, May 27, 2015

द्वंद्व गीत:


द्वंद्व गीत:-
सुधरो सुधरो वरना, बाहर निकाल देंगे|
वे खींच खाल लेंगे, वे खींच खाल लेंगे||
कुछ आकर्षण के आदी, करते जन धन बर्बादी| 
इनके कारण से भूखी- दिखती आधी आबादी|| 
समझो समझो वरना, जनता को बहका के- 
करवा बवाल देंगे, बाहर निकाल देंगे|
वे खींच खाल लेंगे, वे खींच खाल लेंगे||
कथनी में शहद मिला है, करनी चौबन्द किला है|
बाहर से नहीं शिकायत, घर भीतर बढ़ा गिला है||
परखो परखो वरना, वे अपने बलबूते-
दिखला कमाल देंगे, बाहर निकाल देंगे|
वे खींच खाल लेंगे, वे खींच खाल लेंगे||
यदि पूरा करना सपना, तो करो परीक्षण अपना|
ठग दगाबाज़ रखते हैं, छल छद्मों वाला नपना||
बदलो बदलो वरना, जो तुरत फाँस लेते,
वह डाल जाल देंगे, बाहर निकाल देंगे|
वे खींच खाल लेंगे, वे खींच खाल लेंगे||

Tuesday, May 19, 2015

तानसेन गा रहे

"एक गीत:-
नवगीत मीत नवरीतों से,
कुछ तानसेन गा रहे यहाँ|
शुभ तोरण द्वार लगे सजने,
महिमा के साज लगे बजने,
कुछ भक्त श्रेष्ठ संगत करके-
जय हो जय प्रभो लगे भजने|
इस लोकतन्त्र का उड़ा रहे,
ऐसा मज़ाक, ऐसा मज़ाक-
ज्यों हरिश्चन्द्र आ रहे यहाँ|
कुछ तानसेन गा रहे यहाँ||
अब रिक्त न कोई थाली है,
इतनी अजीब खुशहाली है,
गाँवों-नगरों की गली-गली-
काशी, मथुरा, वैशाली है|
युगदाता को प्रसन्न करने-
गणमान्य कतारें लगा-लगा-
सुमनों को बरसा रहे यहाँ|
कुछ तानसेन गा रहे यहाँ||
दिग्विजय पूर्णता कर डाली,
वह जीत चुके अन्तिम पाली,
ऐसा जनसेवक दिखा नहीं-
जिसने न बजायी हो ताली||
आकर्षण से आकर्षित हो,
दुनिया के कोने- कोने से-
शरणार्थी फिर आ रहे यहाँ|
कुछ तानसेन गा रहे यहाँ||
अति आनंदित हैं व्यापारी,
सब मौज मनायें अधिकारी,
उपलब्ध राजनेताओं को-
सस्ती सुविधायें सरकारी|
यदि ज्ञात आपको बतलाओ,
अब कौन लोग मजलूमों पर-
दारिद्र जुल्म ढा रहे यहाँ?
कुछ तानसेन गा रहे यहाँ||"

Friday, May 15, 2015

नया संसार

सथियो! ऐसा बनाना है नया सन्सार|
घायलों का पीड़तों का जो करे उपचार||

जानता हूँ आधुनिकता हो गई हावी,
कीच से बाहर निकालें ज़िन्दगी भावी|
छीन पाये अब न कोई सर्जना अधिकार|
घायलों का पीड़तों का जो करे उपचार||

आदमी की भूख को भोजन मिले पानी,
राजनैतिक क्षेत्र में हो बन्द शैतानी|
शील सिंचित चाहिये इंसान को व्यवहार|
घायलों का पीड़तों का जो करे उपचार||

आप में मुझमें न उसमें भेद है कोई,
सत्य से वो दूर मानों आँख जो सोई|
मानिये है लाजिमी वो प्यार का आधार|
घायलों का पीड़तों का जो करे उपचार||

क्यों अलौकिक शक्तियों के बाग को सींचे,
हाथ क्यों परमार्थ से पीछे तुका खींचे|
भूमि ऊपर हो सके वो स्वर्ग भी साकार|
घायलों का पीड़तों का जो करे उपचार||

न्याय से परिपूर्ण जो भी साधना होगी,
स्नेह से स्वीकार वह सद्भावना होगी|
एक होनी चाहिये वो विश्व की सरकार|
घायलों का पीड़तों का जो करे उपचार||

Sunday, May 10, 2015

वंचित हैं इन्सान


वंचित हैं इन्सान मूल अधिकारों से,
चलती है सरकार खोखले नारों से|
बजते हैं दिन-रात ढोल इमदादों के,
जनता तो लाचार बज्र अधिभारों से|
विज्ञापन का दौर शीर्ष पर व्यापारी, 
राहत की उम्मीद नहीं सरकारों से |
अस्त्रशस्त्र बेकार लोकशाही कहती,
वोटशक्ति की मार तीव्र हथियारों से|
लाभ-हानि से दूर तुका ने धरती के,
सींचे जीवन खेत बाग रसधारों से|

Wednesday, May 6, 2015

यह कैसी आवाज़..


यह कैसी आवाज़..
निर्वाचन में करें तमाशा,
काले-काले नोट,
विज्ञापन की चकाचौंध में,
लुटें करोड़ों वोट,
लोकतंत्र ने पहना डाला,
एक व्यक्ति को ताज|
यह कैसी आवाज़..
सपनों को ऐसे बेचा ज्यों,
स्वर्गलोक की सैर, 
बातों से यूँ लगता जैसे,
कोई शत्रु न गैर,
अंधभक्ति के आकर्षण को,
रंच न आये लाज| 
यह कैसी आवाज़..
कल तक तो थी उत्तम खेती,
आज बना व्यापार,
गाँव गरीब किसान सहस्रों,
सहें भूख की मार|
छलियों बलियों ऊपर सत्ता,
ख़ूब दिखाये नाज़|
यह कैसी आवाज़..