Sunday, April 28, 2013

आसुओं के सिवा जो दिया आपने,
आज वापस उसे ले लिया आपने |

संत चुपचाप विषपान करता रहा,
और अमरत्व सागर पिया आपने|

नालियों में पड़े लोग सड़ते रहे,
क्या यही देखने को जिया आपने?

लाश की भाँति ढोनी पड़ी ज़िन्दगी,
जुल्म क्यों ये भयानक किया आपने?

खोजते- खोजते बंद आँखे हुई,
पर बताया न अपना ठिया आपने|

बात कैसे 'तुका' यह सही मान ले,
कुछ बनाये छली माफिया आपने?

Friday, April 26, 2013

कवि जीवन मार्ग प्रेणता, होता पावन व्रतधारी|
अगुवाई कर कविता ने, मानव तस्वीर संवारी||

जब कविता की क्षमता को,इन्सान समझने लगते,
सिंहासन हिल जाते हैं, सम्राट विलाखने लगते|
स्वर-वर्णों की ज्वाला में, जल जाते अत्याचारी|
अगुवाई कर कविता ने, मानव तस्वीर संवारी||

अनुबंध किया कविता से, तो सविता बनकर चमको,
घर-आँगन गाँव-शहर क्या, अब दुनिया भर में गमको|
शुचि नैसर्गिक नियमों के, सर्जक सच्चे अधिकारी|
अगुवाई कर कविता ने, मानव तस्वीर संवारी||

अवनति उन्नति का क्रम तो, परिवर्तन का हिस्सा है,
रवि उगे न डूबे ज्यों, त्यों, कवि स्वर शाश्वत किस्सा है| 
सामाजिक मूल्य विधाता, अनुशासन धर्म प्रभारी|
अगुवाई कर कविता ने, मानव तस्वीर संवारी||

Thursday, April 11, 2013

कुबेरों की गरीबी का जिसे अहसास हो जाता|
फकीरी ज़िन्दगी क्या है उसे आभास हो जाता||

सहस्रों वेदनाओं से, कभी विचलित न वो होता,
अभावों बीच रहने का जिसे अभ्यास हो जाता|

जहाँ पतझर दिखाता है प्रकृति के बीच मायूसी,
वहाँ दो चार दिन के बाद ही मधुमास हो जाता|

उसी के स्वप्न सब साकार होते हैं जमाने में,
जिसे अपने इरादों पर सहज विश्वास हो जाता|

जिन्हें परमार्थ करने में सरस आनंद आता है,
समझिये दूर उनसे तो विकट संत्रास हो जाता|

किसी के रोकने से क्या भला न्यायी कभी रुकता,
कभी सुकरात बन जाता कभी रविदास हो जाता|

नयी पहचान जीवन में अनोखा मर्तबा मिलता,
'तुका' साहित्य सर्जक तो जगत इतिहास हो जाता|

Tuesday, April 9, 2013

अधिवक्ता बन गई व्यवस्था, डाकू चोर लुटेरों की|
कोई नहीं वेदना कहता, भूखे श्रमण कमरों की||

साहित्यिक मर्यादा ने भी, अपनी राह बदल डाली,
जिनका चर्चा नगरों-नगरों, वे सब है नय से खाली|
इन्सानों को मिली बेड़ियाँ, सत्ता शक्ति सपेरों को|
कोई नहीं वेदना कहता, भूखे श्रमण कमरों की||

भरा राजनैतिक गलियारा, जाति-वर्ग के ढोरों से,
सहमी- सहमी सत्ता रहती, आतंकी सह्जोरों से |
लगी कतारें लंबी- लंबी, चमचों की मौसेरों की |
कोई नहीं वेदना कहता, भूखे श्रमण कमरों की||

नगरों की रंगत में भूले, गाँवों का अंधियारा,
हड़प रहे हैं ठग्गू दादा, जन-मन का हक सारा|
लिखी जा रही नई कहानी,अब तो नये कुबेरों की|
कोई नहीं वेदना कहता,भूखे श्रमण कमरों की||

सिखा रही अश्लील नग्नता, जननी ही औलादों को,
सदा मारती रहती ताने, दादों को परदादों को |
यहाँ उड़ाई जाती खिल्ली, ज्ञानी संत फकीरों की|
कोई नहीं वेदना कहता,भूखे श्रमण कमरों की||

Friday, April 5, 2013

कुछ दिन के उपरान्त यहाँ से जाना है;
जब तक जीवन श्वास हमें तो गाना है|

यह अपना वह गैर नहीं यह चिंतन में,
सबको अपनी भाँति सहज अपनाना है|

जिसमें हो अधिकार बात को कहने का,
बतलाओ वह दोस्त कहाँ पर थाना है?

क्यों सहोदरों से नहीं हमारे रिश्ते जब,
सब उसकी संतान सभी ने माना है ?

जनहित में उद्घोष काव्य -मर्यादा से, 
साहित्यिक संग्राम 'तुका' ने ठाना है|