Tuesday, April 9, 2013

अधिवक्ता बन गई व्यवस्था, डाकू चोर लुटेरों की|
कोई नहीं वेदना कहता, भूखे श्रमण कमरों की||

साहित्यिक मर्यादा ने भी, अपनी राह बदल डाली,
जिनका चर्चा नगरों-नगरों, वे सब है नय से खाली|
इन्सानों को मिली बेड़ियाँ, सत्ता शक्ति सपेरों को|
कोई नहीं वेदना कहता, भूखे श्रमण कमरों की||

भरा राजनैतिक गलियारा, जाति-वर्ग के ढोरों से,
सहमी- सहमी सत्ता रहती, आतंकी सह्जोरों से |
लगी कतारें लंबी- लंबी, चमचों की मौसेरों की |
कोई नहीं वेदना कहता, भूखे श्रमण कमरों की||

नगरों की रंगत में भूले, गाँवों का अंधियारा,
हड़प रहे हैं ठग्गू दादा, जन-मन का हक सारा|
लिखी जा रही नई कहानी,अब तो नये कुबेरों की|
कोई नहीं वेदना कहता,भूखे श्रमण कमरों की||

सिखा रही अश्लील नग्नता, जननी ही औलादों को,
सदा मारती रहती ताने, दादों को परदादों को |
यहाँ उड़ाई जाती खिल्ली, ज्ञानी संत फकीरों की|
कोई नहीं वेदना कहता,भूखे श्रमण कमरों की||

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