Monday, September 24, 2012


वह तो रगड़-रगड़ कड़-कड़ -सा,हो तत्क्षण जाता है|
ह्रदय- परिंदा नीलगगन में,जब प्रिय! उड़ जाता है||

उचित यही है इस तन-मन को,नहीं बैठने देना,
जबतक साँस चले अंतर की,तबतक नौका खेना|
बिना किये व्यायाम वदन तो,स्वतः अकड़ जाता है|
ह्रदय- परिंदा नीलगगन में,जब प्रिय! उड़ जाता है||

यह कोई उपलब्धि नहीं है, सौ वर्षों तक जीना,
विस्तर ऊपर पड़े- पड़े ही, नीर माँगकर पीना|
बहुत व्यथित रहता वह जिसका,बाग उजड़ जाता है|
ह्रदय- परिंदा नीलगगन में,जब प्रिय! उड़ जाता है||

कहने करने में जब कोई, एक्य नहीं रहता है,
तब अभ्यंतर नित्य ग्लानि की,अग्नि बीच दहता है|
बिना उचित जलवायु बीज तो,बहुधा सड़ जाता है|
ह्रदय- परिंदा नीलगगन में,जब प्रिय! उड़ जाता है||

जग में दौड़ हो रही जतना,इसमें तुम दौड़ोगे,
उतने उच्च शिखर पर अपने-आप वहाँ पहुँचोगे|
वह प्रतिभागी सफल न होता,जो कि पिछड़ जाता है|
ह्रदय- परिंदा नीलगगन में, जब प्रिय! उड़ जाता है||

Tuesday, September 18, 2012


आदमी की किस तरह पीड़ा कहें अब आप से|
जल रहे इन्सान प्यारे! वेदना के ताप से ||

विश्वास बोझिल हो गये,अरमान उन के सो गये,
देख निबलों की व्यथा को,दुख-दर्द भंजक रो गये|
सुख-चैन के साधन सभी,उड़ गये हैं भाप से |
जल रहे इन्सान प्यारे! वेदना के ताप से ||

करुणा-दया के गेह में,आनंद -मूलक देह में,
अपयश समाता ही गया,अभिनय-प्रदर्शित-स्नेह में|
बहता हुआ जल नेत्र का,मापा गया कब नाप से |
जल रहे इन्सान प्यारे! वेदना के ताप से ||

प्रतिकूल धारा में बहा,शिव सत्य का साथी रहा,
सत को जिया,सत ही किया,भोगा हुआ अनुभव कहा|
स्वर दिया उनको सदा जो हैं व्यथित अभिशाप से|
जल रहे इन्सान प्यारे! वेदना के ताप से |

पूजा घरों से दूर हैं,पर,प्यार से भरपूर हैं,
नित ज्ञान के सहयोग से,सब दर्प करते चूर हैं|
हम जन्म से ही संत हैं,क्या अर्थ हमको जाप से|
जल रहे इन्सान प्यारे! वेदना के ताप से ||
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उर में भरी हुई है,शुचि गंध प्रिय! तुम्हारी|
सच है बिना तुम्हारे,पहचान क्या हमारी?

जो कुछ लिया दिया है,चुकता उसे किया है|
वितरित किया सुधारस,पर खुद गरल पिया है||
यह ज़िन्दगी प्रकृति के, सहयोग से सँवारी| 
सच है बिना तुम्हारे, पहचान क्या हमारी?

सहयोग की कहानी,यद्दपि बहुत पुरानी|
फिरभी युगीन स्वर में,फिर से पड़ी सुनानी||
हम प्यार के पुजारी,परमार्थ के प्रभारी|
सच है बिना तुम्हारे,पहचान क्या हमारी?

चाहे समीप आओ, चाहे सुदूर जाओ|
पर प्रार्थना यही है,मत प्यार आजमाओ||
हर साँस सर्जना के,अधिकार में गुजारी|
सच है बिना तुम्हारे,पहचान क्या हमारी?

Monday, September 3, 2012

तन का सदुपयोग भी करिये,धन के हेतु न मन को न मारो|
किस विधि कुछ सुधार हो सकता,इस पर अपने आप विचारो||

सुन्दरता की ओर निहारो,
पर अपने मन आप सँवारों,
यदि इंसा कहते हो खुद को-
तो न किसी की लाज उघारो|
जिनके सिर पर बोझ लदा है,उनके सिर से बोझ  उतारो|
किस विधि कुछ सुधार हो सकता,इस पर अपने आप विचारो||
इस धरती की रौनक सारी,
बेहद प्यारी बेहद न्यारी ,
इसके ऊपर जन्म लिया है-
इस हित इसके हैं आभारी|
प्रिय!इसके अधिकारी भी हो,यह सच जानो इसे उचारो |
किस विधि कुछ सुधार हो सकता,इस पर अपने आप विचारो||

सबको अपने जैसा मानो,
सबकी सुनो जिद्द मत ठानो ,
लोकतंत्र के अनुयायी हो-
लोकतंत्र का उर पहचानो|
मानव महिमा के विचार से, संविधान को और निखारो |
किस विधि कुछ सुधार हो सकता,इस पर अपने आप विचारो||

Sunday, September 2, 2012

दूरियाँ बढ़ गई पास आये नहीं|
वे हमें हम उन्हें जान पाये नहीं||

हाथ आखिर बढ़े के बढ़े रह गये,
साथ में बैठकर भोज खाये नहीं|

छंद अनुभूतियों के सुनाये सदा,
गीत परजीवियों हेतु गाये नहीं|

शील व्यवहार की ज़िन्दगी जी रहे,

जुल्म के अस्त्र किंचित उठाये नहीं|

काव्य लिखते पढ़ाते रहे ध्यान से,
शिष्य प्यारे लगे हैं पराये नहीं |

मित्रता के लिए मित्रता की सखे!
मित्र हमने कभी आजमाये नहीं |

सर्जना शक्ति के रक्त से सिक्त है,
शोषकों के 'तुकाराम' जाये नहीं|