Sunday, March 20, 2016

सत्ता के तो आगे


सत्ता के तो आगे- पीछे चलने वाले अच्छे हैं।
सच्चों को जो रौंद रहे वे दिल के काले अच्छे हैं।
मदहोशी का आलम देखो भला नहीं पीयूष लगे,
प्राण पखेरू जो हरते वे विष के प्याले अच्छे है।
ज्ञान रौशनी बाँट रहे जो उन्हें जेल में भेजो तो,
विद्यालय के दरवाज़ों पर लटके ताले अच्छे हैं।
सदसुमनों की बातें करते हँसते और हँसाते जो, 
उनको तो मिलती दुतकारें लगते भाले अच्छे है|
जो परमार्थ किया करते हैं वे निज दर्द नहीं कहते,
गर्म धूल पर चलकर मिलते लगते छाले अच्छे हैं|
होली का माहौल छा रहा अब मनमानी हो सकती,
विरोधियों का करो सफाया साली साले अच्छे हैं|
गूँज रहा है शोर सफ़ाई तुका देश के कोनों में,
पर सरकारी दफ़्तर में तो लगते जाले अच्छे हैं।

Saturday, March 5, 2016

वर्तमान के बादशाह


मान लिया वे शहंशाह हैं, वर्तमान के बादशाह हैं|
लेकिन अनयशक्ति के पग में, जनता नहीं शीश देगी||
भूख-प्यास हत्यारी झेली, प्राण दिये हैं होली खेली|
तब जाकर आज़ादी पायी, बलिदानों की गूढ़ पहेली||
गाँव गरीब किसान कमेरे, चुप न रहेंगे चुप न रहेंगे,
सत्य कहेंगे सत्य कहेंगे, मान लिया वे .....
सम्विधान के हम रखवाले, खोलेंगे नफ़रत के ताले| 
उनसे भी तो मुक्ति मिलेगी, जो अंग्रेज खड़े हैं काले|| 
जमाखोर ठग शैतानों से, लड़ते आये और लड़ेंगे, 
सत्य कहेंगे सत्य कहेंगे, मान लिया वे....
सूर्य तिमिर से कब डरता है, पवन परार्थ चला करता है|
जीवन जल से भरा रहे जो, वह सबकी पिपास हरता है||
अत्याचारी, भ्रष्टाचारी, बदलेंगे निश्चय बदलेंगे-| 
सत्य कहेंगे सत्य कहेंगे, मान लिया वे ...

vyatha


माना जीभ कटा भी लोगे, तन को दफ्न करा भी दोगे| 
फिरभी लोकतन्त्र बोलेगा, फिरभी लोकतन्त्र बोलेगा||
चालाकी से चतुराई से, धन बल छल की अधिकाई से,
सुप्त नहीं चेतनता होगी, आकर्षक स्वर शहनाई से|
माना मूर्ख बना भी लोगे, मौलिक स्वत्व नहीं भी दोगे|
फिरभी लोकतन्त्र बोलेगा, फिरभी लोकतन्त्र बोलेगा||
शिक्षा पथ के हैं अनुयायी, न्याय राह जनहित अपनायी|
भारत भव्य बनायेंगे ही, यह सौगन्ध सोचकर खायी||
माना वस्त्र छिना भी लोगे, माटी संग मिला भी दोगे|
फिरभी लोकतन्त्र बोलेगा, फिरभी लोकतन्त्र बोलेगा||
तर्क बुद्धि के यंत्र हमारे, प्रज्ञा सिंचित मन्त्र हमारे|
रोके नहीं रुकेंगे प्यारे!, संवैधानिक यन्त्र हमारे||
माना दृग निकला भी लोगे, लाखों द्रोह लगा भी दोगे|
फिरभी लोकतन्त्र बोलेगा, फिरभी लोकतन्त्र बोलेगा||

उठने की बात करो


एक गीत:-
गिरने की सीमायें टूटीं, अब उठने की बात करो|
वर्तमान की सोच सँवारों, स्नेहसिक्त बरसात करो||
बुरा-भला कहने से अच्छी, बात नहीं बन सकती है,
दूषित दृष्टि और होती वो, जो पर तन धन तकती है| 
बिगड़ रहा परिवेश सुधारो, सहजीवन हालात करो| 
गिरने की सीमायें टूटीं, अब उठने की बात करो|
वर्तमान की सोच सँवारों, स्नेहसिक्त बरसात करो||
जाति-वर्ग की सकरी गालियाँ, पग न खुले धरने देंगी,
धर्म -मजहबी कलुष कथायें. प्रगति नहीं करने देंगी|
लोकतन्त्र की वाणी बोलो, बन्द घात-प्रतिघात करो| 
गिरने की सीमायें टूटीं, अब उठने की बात करो|
वर्तमान की सोच सँवारों, स्नेहसिक्त बरसात करो||
राजनीति के इस कीचड़ में, जितना दल-दल छल बल है, 
विमल सलिल -सा अविरल बहके, करना ही अब निर्मल है|
प्राणवायु-सा जीवन पोषक, उज्ज्वल सरस प्रभात करो||
गिरने की सीमायें टूटीं, अब उठने की बात करो|
वर्तमान की सोच सँवारों, स्नेहसिक्त बरसात करो||