एक गीत:-
गिरने की सीमायें टूटीं, अब उठने की बात करो|
वर्तमान की सोच सँवारों, स्नेहसिक्त बरसात करो||
वर्तमान की सोच सँवारों, स्नेहसिक्त बरसात करो||
बुरा-भला कहने से अच्छी, बात नहीं बन सकती है,
दूषित दृष्टि और होती वो, जो पर तन धन तकती है|
बिगड़ रहा परिवेश सुधारो, सहजीवन हालात करो|
गिरने की सीमायें टूटीं, अब उठने की बात करो|
वर्तमान की सोच सँवारों, स्नेहसिक्त बरसात करो||
दूषित दृष्टि और होती वो, जो पर तन धन तकती है|
बिगड़ रहा परिवेश सुधारो, सहजीवन हालात करो|
गिरने की सीमायें टूटीं, अब उठने की बात करो|
वर्तमान की सोच सँवारों, स्नेहसिक्त बरसात करो||
जाति-वर्ग की सकरी गालियाँ, पग न खुले धरने देंगी,
धर्म -मजहबी कलुष कथायें. प्रगति नहीं करने देंगी|
लोकतन्त्र की वाणी बोलो, बन्द घात-प्रतिघात करो|
गिरने की सीमायें टूटीं, अब उठने की बात करो|
वर्तमान की सोच सँवारों, स्नेहसिक्त बरसात करो||
धर्म -मजहबी कलुष कथायें. प्रगति नहीं करने देंगी|
लोकतन्त्र की वाणी बोलो, बन्द घात-प्रतिघात करो|
गिरने की सीमायें टूटीं, अब उठने की बात करो|
वर्तमान की सोच सँवारों, स्नेहसिक्त बरसात करो||
राजनीति के इस कीचड़ में, जितना दल-दल छल बल है,
विमल सलिल -सा अविरल बहके, करना ही अब निर्मल है|
प्राणवायु-सा जीवन पोषक, उज्ज्वल सरस प्रभात करो||
गिरने की सीमायें टूटीं, अब उठने की बात करो|
वर्तमान की सोच सँवारों, स्नेहसिक्त बरसात करो||
विमल सलिल -सा अविरल बहके, करना ही अब निर्मल है|
प्राणवायु-सा जीवन पोषक, उज्ज्वल सरस प्रभात करो||
गिरने की सीमायें टूटीं, अब उठने की बात करो|
वर्तमान की सोच सँवारों, स्नेहसिक्त बरसात करो||
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