Thursday, December 19, 2013

'बदलिये साधो अपनी चाल'

एक गीत :- 'बदलिये साधो अपनी चाल'

डसने को तैयार हो रहे, लोकपाल के व्याल,
बदलिये साधो अपनी चाल|
बदलिये साधो अपनी चाल||

पता नहीं कब किस कारण से, सच को घेरा जाये,
बिना बात कुछ कमजोरों के, सिर पर संकट आये|
झुकवाये जायें विवेक के, चौराहों पर भाल,
बदलिये साधो अपनी चाल|
बदलिये साधो अपनी चाल||

युगों-युगों के कई लुटेरे, फिर से हुये प्रभावी ,
सदाचार दफनाने वाले, लोकतन्त्र पर हावी|
आज राजशाही का बिछने, लगा राष्ट्र में जाल,
बदलिये साधो अपनी चाल|
बदलिये साधो अपनी चाल||

हारे-थके बोझ के मारे, भूखे- प्यासे बच्चे,
विपदाओं के सहे थपेड़े, बने रहे जो सच्चे|
खतरे में दिख रहा और भी, उनका जीवन-काल,
बदलिये साधो अपनी चाल|
बदलिये साधो अपनी चाल||

अपना देश बचाना होगा, भू का कर्ज चुकायें,
लोकतंत्र पर विपदा आई, नैतिक फर्ज निभायें|
निगल रहे वे संविधान को, जो हैं मालामाल,
बदलिये साधो अपनी चाल| 
बदलिये साधो अपनी चाल||

Monday, December 16, 2013

सफेदी दिखती है लाचार..



राजनीति के गलियारे में, कीचड़ की भरमार,
सफेदी दिखती है लाचार|
सफेदी दिखती है लाचार||

अनुभवहीन व्यक्तियों द्वारा, ऐसा उठा विवाद,
सत्य तथ्य के ऊपर हावी, होने लगा निनाद|
भ्रष्ट दूर करने को निकले, फैला भ्रष्टाचार|
सफेदी दिखती है लाचार|
सफेदी दिखती है लाचार||

असमंजस में खोई जनता, सुने अनैतिक गीत,
सुविधाभोगी लगे समझने, अपने को जगजीत|
स्वार्थवृत्ति के दुरभिसंधि से, होने लगे करार|
सफेदी दिखती है लाचार|
सफेदी दिखती है लाचार||

मजबूरी में दिल्ली छोड़ी, गये गाँव की ओर,
चौथेपन ने तरुणाई को, दिया खूब झकझोर|
जनता फूटी आँखों देखे, परिवर्तित व्यवहार|
सफेदी दिखती है लाचार|
सफेदी दिखती है लाचार||

तुकाराम वर्मा

Saturday, December 14, 2013

दिल्ली की खिल्ली..


राजनीती में घुस बैठे हैं, कई शेखचिल्ली|
उड़ रही दिल्ली की खिल्ली|
उड़ रही दिल्ली की खिल्ली||

लम्बी-चौड़ी बातें करके, इतना भ्रम फैलाया,
मतदाता को मोह तमाशा, समझ नहीं आया|
चूस रही है रक्त पिपासी, सत्ता की किल्ली|
उड़ रही दिल्ली की खिल्ली|
उड़ रही दिल्ली की खिल्ली||

खींच-तान की आन-बान में, शान हुई मैली,
काम नहीं आ रही अर्थ की, अब काली थैली|
चूहों पर है आँख लगाये, ताक रही बिल्ली|
उड़ रही दिल्ली की खिल्ली|
उड़ा रही दिल्ली की खिल्ली|| 

युवाशक्ति ने सत्य वक्त का, कुछ पहचाना है,
कथनी को करनी में पूरा, कर दिखलाना है|
लालचियों के ऊपर रख दी, बर्फीली सिल्ली| 
उड़ रही दिल्ली की खिल्ली|
उड़ रही दिल्ली की खिल्ली||

Wednesday, December 11, 2013

जो कुछ हुआ समाज में

जो कुछ हुआ समाज में वो ठीक हो गया,
इतना पिसा पहाड़ भी बारीक हो ऐसा| 

वह तो गुनाहगार है तस्दीक हो गया,
इस हेतु राजतंत्र के नजदीक हो गया|

क्यों राजनीति में यहाँ विद्रोह-सा मचा,
धनवान आसमान पर आसीन हो गया| 

सद्भावना मिठास की जिसमें असीम थी, 
उस शीत का मिज़ाज भी नमकीन हो गया|

जिसको सुधार के लिए सम्मान था मिला,
वह अर्थ जाप यज्ञ में तल्लीन हो गया|

हिम के समान श्वेत जो पहचान थी कभी,
पहनाव उस फकीर का रंगीन हो गया|

जिसकी महानता तुका बेहद बखान की,
वह ठीक वक्त पर सुना दो तीन हो गया|

Monday, December 2, 2013

बातें करते हैं


कुछ लोग मुहब्बत के घर में नफ़रत की बातें करते हैं,
कुछ नफ़रत सहते है फिरभी चाहत की बातें करते हैं|

वे नायक हैं व्यावहारहीन आदत की बातें करते हैं 
जिसकी न इबारत पढ़ सकते उस खत की बातें करते हैं|

जिनको इंसानी बोध नहीं इंसानों -सा व्यवहार नहीं, 
वे लूट रहे पर इज्जत को इज्जत की बातें करते हैं|

इस दुनिया का दस्तूर यही थोड़ा-सा अर्थ चढ़ा करके,
ईश्वर से अधिक चाहने को मिन्नत की बातें करते हैं|

उन लोगो को सम्मान लाभ जनता से मिलता रहता जो,
नेताओं के घर पर जाकर कसरत की बाते करते हैं|

उनके चिंतन को मान तुका क्यों साहित्यिक जीवन में हो,
जो केवल शोहरत पाने को दौलत की बातें करते हैं|