Thursday, November 20, 2014

रहवरी देखिये


रहजनों को मिली रहवरी देखिये,
बिछ रही कथरियों पर दरी देखिये|
खलबली से जुड़े जो उन्हीं की हुई, 
अब तबीयत बहुत है हरी देखिये|
हर जगह पर पड़ी गंदगी देख के,
झाडुओं की बढ़ी तस्करी देखिये|
चमचमाते ठगों की बजह से यहाँ, 
बढ़ रही है बहुत भुखमरी देखिये|
अब भरोसा करें आदमी क्यों नहीं,
मिल गया देश को संतरी देखिये|
यह कहा जा रहा जोर से है तुका, 
अब हुई खर्च में कमतरी देखिये|

Saturday, November 15, 2014

नफ़रत की खेती


युगीन गीत:-
छल बल से पारंगत खल को, चारण हमदर्द बताते हैं|
नफ़रत की खेती करते हैं, वोटों की फ़स्ल उगाते हैं||
इतराने से, इठलाने से, सच्चों को आँख दिखाने से,
सत्ता को शक्ति नहीं मिलती, सेठों के साज़ बजाने से|
पाखण्ड सिखाने वालों के, चरणों में शीश झुकाते हैं|
नफ़रत की खेती करते हैं, वोटों की फ़स्ल उगाते हैं||
बातों से बाग नहीं खिलता, अन्धों को मार्ग नहीं मिलता,
प्रतिशोधी अस्त्रों के भय से, क्या शैल आचरण है हिलता?
निर्माण जिन्हें प्रिय होता हैं, वे कभी न ध्वंस कराते हैं|
नफ़रत की खेती करते हैं, वोटों की फ़स्ल उगाते हैं||
परपीर देख जो उर गलता, वह प्राणवायु जैसा चलता,
विज्ञानवाद के चिंतन में, सर्जन का सूर्य नहीं ढलता|
ठग लोकतन्त्र के आँगन में, सामन्ती रीति बढ़ाते हैं|
नफ़रत की खेती करते हैं, वोटों की फ़स्ल उगाते हैं||

Sunday, November 9, 2014

चेतना मुक्त


जहाँ चेतना मुक्त अभियान में है,
वहाँ शक्ति का स्रोत इंसान में है|
सफलता सफलता रटे जा रहे हो,
मगर सार्थकता नहीं ध्यान में है|
यही है गवाही भले आदमी की, 
अनय का समावेश शैतान में है|
बहेगी सरस प्रेरणा हर तरफ ही,
अगर प्राणपोषक पवन प्राण में है|
वही ज़िन्दगी तो बनेगी विजेता, 
रहा स्वार्थ जिसके न अरमान में है|
इसे याद रखना तुका ज़िन्दगी में,
नहीं अन्ध विश्वास विज्ञान में है|

Thursday, November 6, 2014

बातों के हो शेर


बातों के हो शेर तुम्हारा क्या कहना|
दोषारोपण ढेर तुम्हारा क्या कहना||
बढ़ता भ्रष्टाचार कराओ बन्द नहीं, 
होने दो कुछ देर तुम्हारा क्या कहना|
यूँ हो कडुवे बेर मगर निज चेलों को,
लगते मीठे केर तुम्हारा क्या कहना|
जो भी करें विरोध समय की सत्ता के, 
कोल्हू में दो पेर तुम्हारा क्या कहना|
लेन-देन का खेल कहे धनवानों का,
काला धन दो फेर तुम्हारा क्या कहना|
बनके युग अवतार खुले इन हाथों से,
बाँटो झूठे बेर तुम्हारा क्या कहना|
तुकाराम की चाह यही है सुनिये तो, 
बढ़े नहीं अंधेर तुम्हारा क्या कहना|