Saturday, January 28, 2012
Wednesday, January 25, 2012
जहाँ मुसीबत घिरी मिलेगी,वहीँ मिलेगा निदान उसका|
करुण प्रभा है दया क्षमा में,बहुत बड़ा है वितान उसका||
प्रिये! कथा का न अंत कोई,विवेक बोधक ज्ञान बढ़ेगा|
सतत परीक्षण करने वाला, खुले दृगों से शब्द पढ़ेगा|
परवर्तन है नियम प्रकृति का,नहीं बदलता विधान उसका|
करुण प्रभा है दया क्षमा में,बहुत बड़ा है वितान उसका||
सकल जगत में कभी किसी का,नहीं बना साम्राज्य बनाये|
खड्ग कृपाणें धरीं रह गईं, नृप जन-मन को जीत न पाये||
चला अनय के पथ पर जो भी,मिटा हमेशा गुमान उसका|
करुण प्रभा है दया क्षमा में,बहुत बड़ा है वितान उसका||
यही सुपथ है यही भलाई,करें ठगी से नहीं कमाई |
जमीं युगों से विकार काई,करें उसी की स्वतः सफाई||
सदाचरण को वरण किया जो, रहा प्रशासन महान उसका||
करुण प्रभा है दया क्षमा में,बहुत बड़ा है वितान उसका||
Monday, January 23, 2012
इस युग का व्यापारी है,करता दो के पाँच रहा|
कुछ भिक्षा के गीतों को, दारू पीकर बाँच रहा||
जहाँ कहीं वह जाता है, जमकर ढोंग जमाता है|
अपने लगुओं-भगुओं से,जय जयकार कराता है|
वह पौराणिक विधियों से,नव जीवन को जाँच रहा|
कुछ भिक्षा के गीतों को, दारू पीकर बाँच रहा||
अधिनायक सरपंचों का,सदर बना कवि मंचों का|
उदहारण वह देता है, सनातनी कुछ संचों का||
गुदड़ी के लालों को वह, बरबस कहता काँच रहा|
कुछ भिक्षा के गीतों को, दारू पीकर बाँच रहा||
उसकी मीठी बोली है,करता बहुत ठिठोली है |
सेठों का अधिवक्ता वह,दिखती सूरत भोली है||
महाठगों की भाषा में,बता झूठ को साँच रहा |
कुछ भिक्षा के गीतों को, दारू पीकर बाँच रहा||
उसको शर्म नहीं आती,हरकत करता उत्पाती |
बहुत चतुर है पढ़ा-लिखा,नहीं समझना देहाती||
कल्पित कलुष विचारों की,सदा बढ़ाता आँच रहा|
कुछ भिक्षा के गीतों को, दारू पीकर बाँच रहा||
कई अनैतिक अधिकारी,निभा रहे रिश्तेदारी |
जाति संगठन में उसकी,बनी प्रतिष्ठा है भारी||
उसका पैरोकार बना, जो भी लेता लाँच रहा |
कुछ भिक्षा के गीतों को, दारू पीकर बाँच रहा||
Sunday, January 22, 2012
अगर चाहते राष्ट्र हो, भ्रष्टाचार विमुक्त|
तो समाज को कीजिये, सदाचरण से युक्त||
राजनायकों के यहाँ, जाते हैं जो लोग |
क्या वे नैतिक मार्ग का, करते हैं उपयोग?
अपनी गलती ही जिन्हें, दिखती कभी न मित्र|
ऐसे मानव तो सदा, करते कार्य विचित्र ||
किसको कहते चोर हैं,किसको कहते शाह|
पहले अपनी जाँच लें , अपने आप निगाह||
इतनी सीधी है नहीं, राजनीति की चाल |
आयेंगे किस गेह से , लोकपाल के लाल ||
Saturday, January 21, 2012
एक गौरैया,
रात भर जगती ,
सबसे यही कहती ,
आप अपना रुख बदलिएलोक पथ के साथ चलिए।
भूत का अनुभव तुम्हारा,
आधुनिक संबल सहारा,
सत्य है नव सर्जना से-
कल सरस होगा हमारा।
रूढ़िगृह से प्रिय निकलिए,
लोक पथ के साथ चलिए।।
लोकशाही ने पुकारा,
है चुनावी दौर प्यारा ,
वोट की जन शक्ति से तो-
राजशाही ताज हारा।
दूर करिए छलिये बलिये,
न्याय पथ के साथ चलिए।।
राष्ट्र नायक आप ही हैं,
नय विधायक आप ही हैं
युग प्रवर्तक गीत को भी-
लय प्रदायक आप ही हैं।
वोट देने से न टलिए ,
लोक पथ के साथ चलिए।।
एक रचनाकार जब प्रणेता ,आलोचक,शिक्षक और पाठक अथवा क्षात्र की भूमिका का निर्वहन करके सर्ज़न करता है तो उसकी रचना की सामाजिक उपादेयता बढ़ती है, समाज में रचना की ग्राह्यता बढ़ती है और रचना साहित्य में अपना स्थान बनाती है| आलोचक के रूप में उसे रचना के गुण-दोष शिल्प और भाव के साथ-साथ सामाजिक,राजनैतिक तथा धार्मिक परिवेश समझना चाहिये,शिक्षक के रूप में उसे यह विचार करना चाहिये कि क्या उसके द्वारा प्रणीत रचना क्षात्रों को कक्षा में पढ़ाई जा सकती है,पाठक के रूप में यह निर्णय लेना चाहिये कि रचना का तारतम्य मेरे साथ कितना जुड़ रहा है, और क्या इसका कुछ प्रभाव मेरे जीवन पर शिव,सत्य और सुंदर रूप से पड़ रहा है? क्षात्र के रूप में यह समझना चाहिये कि यह रचना मुझे कितना शिक्षित कर रही है तथा भावी जीवन के लिए क्या सन्देश दे रही है और यह सन्देश क्या व्यवहारिक है अथवा केवल उपदेश| इन आयामों के उपरान्त रचना को समाज के समक्ष प्रस्तुत करना ही श्रेयष्कर होता है जो कुछ लिख गया उसे परोस दिया यह प्रवृत्ति रचनाकार के लिए उचित नहीं होती|
अब किसी के रोकने से रुक नहीं सकते|
उठ चुके हैं शीश जो वे झुक नहीं सकते||
यह कहावत भर नहीं पर सत्य प्रिये! मानो,
माँ-पिता निज देश के ऋण चुक नहीं सकते|
सर्जना के हाथ तो सर्जन किया करते;
वह व्यथा से हो कभी नाजुक नहीं सकते|
गीत ग़ज़लों का उन्हें क्या नाम मिल सकता,
पत्थरों को जो कि कर भावुक नहीं सकते|
सच तुका कहिये उन्हें जग क्यों कहे कवि जो,
काव्य लिखते काव्य को दे तुक नहीं सकते|
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