एक रचनाकार जब प्रणेता ,आलोचक,शिक्षक और पाठक अथवा क्षात्र की भूमिका का निर्वहन करके सर्ज़न करता है तो उसकी रचना की सामाजिक उपादेयता बढ़ती है, समाज में रचना की ग्राह्यता बढ़ती है और रचना साहित्य में अपना स्थान बनाती है| आलोचक के रूप में उसे रचना के गुण-दोष शिल्प और भाव के साथ-साथ सामाजिक,राजनैतिक तथा धार्मिक परिवेश समझना चाहिये,शिक्षक के रूप में उसे यह विचार करना चाहिये कि क्या उसके द्वारा प्रणीत रचना क्षात्रों को कक्षा में पढ़ाई जा सकती है,पाठक के रूप में यह निर्णय लेना चाहिये कि रचना का तारतम्य मेरे साथ कितना जुड़ रहा है, और क्या इसका कुछ प्रभाव मेरे जीवन पर शिव,सत्य और सुंदर रूप से पड़ रहा है? क्षात्र के रूप में यह समझना चाहिये कि यह रचना मुझे कितना शिक्षित कर रही है तथा भावी जीवन के लिए क्या सन्देश दे रही है और यह सन्देश क्या व्यवहारिक है अथवा केवल उपदेश| इन आयामों के उपरान्त रचना को समाज के समक्ष प्रस्तुत करना ही श्रेयष्कर होता है जो कुछ लिख गया उसे परोस दिया यह प्रवृत्ति रचनाकार के लिए उचित नहीं होती|
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