Saturday, January 21, 2012

अब किसी के रोकने से रुक नहीं सकते|
उठ चुके हैं शीश जो वे झुक नहीं सकते||
यह कहावत भर नहीं पर सत्य प्रिये! मानो,
माँ-पिता निज देश के ऋण चुक नहीं सकते|
सर्जना के हाथ तो सर्जन किया करते;
 वह व्यथा से हो कभी नाजुक नहीं सकते|
गीत ग़ज़लों का उन्हें क्या नाम मिल सकता,
पत्थरों को जो कि कर भावुक नहीं सकते|
सच तुका कहिये उन्हें जग क्यों कहे कवि जो,
काव्य लिखते काव्य को दे तुक नहीं सकते|

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