Thursday, November 26, 2020

जाति सूचक

 

जाति सूचक नाम का ठप्पा लगाये हैं,
और कहते घूमते अब जातियां तोड़ो|

इन छली बहुरूपियों से बात क्या करना?
इनकी बनायी राह ऊपर पैर क्या धरना?
वे अँधेरी खोलियों का दर्द क्या जानें-
लक्ष्य जिनका स्वार्थ की बस झोलियाँ भरना|
नफरतों की आग बरसाते सदा रहते,
और कहते हैं ह्रदय से अब ह्रदय जोड़ो|

ये हमारे वे तुम्हारे मानते आये,
श्रम समर्पित आदमी उनको कहाँ भाये?
चैन की दो रोटियों के जब बने रस्ते -
तब ठगों ने मजहबी संघर्ष करवाये|
रात-दिन पर स्वत्व ऊपर डालते डांका,
और कहते लूट की अब धार को मोड़ो|

सोच में संकीर्णता व्यवहार अन्यायी,
आचरण को शील शुचिता छू नहीं पायी,
वेशभूषा साधुओं-सी स्वच्छ पर उर में,
जो हटाने से न हटती कालिमा छायी|
गाँव-नगरों की गली में रूढ़ि के नारे-
और कहते भूत की बातें सभी छोड़ो|७९

 

Saturday, October 17, 2020

लिखते लिखते

लिखते-लिखते पढ़ते-पढ़ते, जीवन बीत रहा।

लोकतंत्र को समझाने में, विफल अतीत रहा।।


जिनको मिली नहीं सुविधायें,जिनकी रही न अभिलाषायें।

उनको रंच नहीं समझायीं,नागरिकों की पारिभाषायें।।

सुप्त करे जो युग प्रबोध वो, गुंजित गीत रहा।

लोकतंत्र को समझाने में, विफल अतीत रहा।।


अर्थतंत्र ने जिनको जाया, चुनकर नायक उन्हें बनाया।

शोषणवादी मकड़जाल को,जाति-धर्म ने सुदृढ़ कराया।।

न्यायालय ही न्यायतंत्र के, अति विपरीत रहा।

लोकतंत्र को समझाने में, विफल अतीत रहा।।


लूटपाट खींचातानी है, मौनी बन बैठा ज्ञानी है।

बीमारी से पीत धरा को, छली वैद्य कहता धानी है।।

आश्वासन की लेप चढ़ा के, खल जग जीत रहा।

लोकतंत्र को समझाने में, विफल अतीत रहा।।


छीन रहे जो अधिकारों को, जो ठुकराते लाचारों को।

वे सामंती चला रहे हैं, पूँजीवादी सरकारों को।।

शासक वर्ग प्रशासन से तो, खुद भयभीत रहा।

लोकतंत्र को समझाने में, विफल अतीत रहा।।


गाँव-गली में जाया जाये, तर्क विवेक बढ़ाया जाये।

बहुत हो चुकी है लफ़्फ़ाज़ी, सम्विधान समझाया जाये।।

पंचशील ही मानवता का, रक्षक मीत रहा।

लोकतंत्र को समझाने में, विफल अतीत रहा।।

Wednesday, October 14, 2020

काव्य प्रयोजन

 

काव्य प्रयोजन
नाम कमाया दाम कमाये, मगर न शिवम् विचार।
कि ऐसी कविताई बेकार।।
कि ऐसी कविताई बेकार।।।
काव्य प्रयोजन समझ न पाये,
मदिरा पिये झूमकर गाये,
दीन दुखी लाचार जनों को-
ठगुआ चिंतन क्या सिखलाये?
आकर्षण के लिए परोसा, नारी का शृंगार।
कि ऐसी कविताई बेकार।।
कि ऐसी कविताई बेकार।।।
लोकतंत्र का अर्थ न जाना,
सिर्फ़ पढ़ा सरकारी गाना,
गाँव -गली के अंधियारे में-
भूल गए वो आना-जाना।
युगप्रबोध के हेतु अनय पर, कर न सके प्रहार।
कि ऐसी कविताई बेकार।।
कि ऐसी कविताई बेकार।।।
जाति-धर्म के रंग चढ़ाये,
भ्रामक झूठे पाठ पढ़ाये,
चौड़े-चौड़े फ़्रेमों में तो-
विज्ञापन के चित्र मढ़ाये।
पुरस्कार के लिए शीश से, पगड़ी दिए उतार।
कि ऐसी कविताई बेकार।।
कि ऐसी कविताई बेकार।।।

Tuesday, October 13, 2020

 -:प्राणवायु गीत संकलन से एक गीत:-


अर्थ को ज़िन्दगी मानकर, आदमी श्रेष्ठता खो रहा।

सत्य की शक्ति को त्यागकर, झूठ के भार को ढो रहा।।


स्वर्ण का बोलबाला बढ़ा,वर्ण का भूत सबको चढ़ा।

आचरण का पतन देखिये,स्वार्थ का पाठ युग ने पढ़ा।।

त्याग की भावना भूलकर,भोग की गोद में सो रहा।

सत्य की शक्ति को त्यागकर,झूठ के भार को ढो रहा।।


आज की नीति छल नीति है,द्वेष से हो गई प्रीति है।

क्या कहें और किससे कहें,न्याय की भी यही रीति है।।

नीड़ कमजोर का नोंचकर पाँव सहजोर के धो रहा।

सत्य की शक्ति को त्यागकर,झूठ के भार को ढो रहा।।


दर्द की कोठरी में कहीं,स्नेह को मान्यता है नहीं।

सभ्यता के नगर गाँव में,वासनायें विपुल बस रहीं।।

कर्म के पंथ से हारकर,धर्म बेशर्म -सा हो रहा।

सत्य की शक्ति को त्यागकर,झूठ के भार को ढो रहा।।


पुष्प की वाटिका में कहीं,आज आनन्द आता नहीं।

अर्थ को ज़िंदगीचारणों की जमातें जहाँ,क्यों क़लमकार जाता वहीं?

एकता का चमन रौंदकर,भेद के बीज को बो रहा।।

सत्य की शक्ति को त्यागकर,झूठ के भार को ढो रहा।।

काव्य प्रयोजन

काव्य प्रयोजन


नाम कमाया दाम कमाये, मगर न शिवम् विचार।

कि ऐसी कविताई बेकार।।

कि ऐसी कविताई बेकार।।।


काव्य प्रयोजन समझ न पाये,

मदिरा पिये झूमकर गाये,

दीन दुखी लाचार जनों को-

ठगुआ चिंतन क्या सिखलाये?

आकर्षण के लिए परोसा, नारी का शृंगार।

कि ऐसी कविताई बेकार।।

कि ऐसी कविताई बेकार।।।


लोकतंत्र का अर्थ न जाना,

सिर्फ़ पढ़ा सरकारी गाना,

गाँव -गली के अंधियारे में-

भूल गए वो आना-जाना।

युगप्रबोध के हेतु अनय पर, कर न सके प्रहार।

कि ऐसी कविताई बेकार।।

कि ऐसी कविताई बेकार।।।


जाति-धर्म के रंग चढ़ाये,

भ्रामक झूठे पाठ पढ़ाये,

चौड़े-चौड़े फ़्रेमों में तो-

विज्ञापन के चित्र मढ़ाये।

पुरस्कार के लिए शीश से, पगड़ी दिए उतार।

कि ऐसी कविताई बेकार।।

कि ऐसी कविताई बेकार।।।

Wednesday, August 26, 2020

दौलत की बातें

 

कुछ लोग मुहब्बत के घर में नफ़रत की बातें करते हैं,

कुछ नफ़रत सहके भी हरदम चाहत की बातें करते हैं|

 

इज्जत को लूट रहे जो वे इज्जत की बातें करते हैं,

खलनायक तो व्यवहार हीन आदत की बातें करते हैं|

 

वे नायक हैं व्यावहार हीन उल्फ़त की बातें करते हैं,

जिसकी न इबारत पढ़ सकते उस खत की बातें करते हैं|

 

इस दुनिया का दस्तूर यही थोड़ा-सा अर्थ चढ़ा करके,

ईश्वर से अधिक चाहने को मिन्नत की बातें करते हैं|

 

उन लोगो को सम्मान लाभ जनता से मिलता रहता जो,

नेताओं के घर पर जाने- आने की कसरत की बाते करते हैं|

 

उनके लेखन को मान तुका किस भाँति दिया जा सकता जो,

साहित्यकार हो करके भी दौलत की बातें करते हैं|  

 

Tuesday, August 25, 2020

नागरिक

 

नागरिक हो रहे ख़ूब कमजोर हैं,
धूर्त्त ठग्गू मचाने लगे शोर हैं।
 
मानते लोग विद्वान जिनको वही,
आज ख़ामोश ऐसे लगें ढोर हैं।
 
ये पता ही नहीं चल रहा देखिए-
कौन इस ओर हैं कौन उस ओर हैं।
 
मुस्कुराहट उन्हीं के मुखों पर दिखे,
लूटने में लगे जो जमाख़ोर हैं।
 
जुल्म दुश्वारियों बीच साँसें तुका,
सज्जनों को रहे क्रूर झकझोर हैं।

Sunday, August 23, 2020

चली आँधियाँ तो गिरा घौंसला है,

 

चली आँधियाँ तो गिरा घौंसला है,
जला फूस का ही घरौंदा जला है।
 
जिसे धर्म कहते भले आदमी वो,
ठगी ही नहीं कुछ बड़ा मामला है।
 
सिवा चीख के कुछ नहीं पास उसके,
पता चल चुका वो बहुत खोखला है।
 
हमें बागियों की तरह मानते जो,
उन्होंने सदा सज्जनों को छला है।
 
पिपासा जिसे और की थी बुझानी,
वही जल बना बर्फ जैसा गला है।
 
कभी वो रहा है नहीं क्षेत्रवादी,
सज़र विश्व के हेतु फूला फला है।
 
कभी दोष देना न पर्यावरण को,
प्रकृति ने किया हर किसी का भला है।
 
तुका प्यार है ठोस ईमान जिसका,
किसी ख़ौफ के वो न टाले टला है।

Saturday, August 22, 2020

विश्ववाटिका के फूलों को

 

मजलूमों के साथ आज जो खड़ा नहीं हो पायेगा।
तो सच मानो आने वाला कल न उसे अपनायेगा।।
 
जिसके उर में परपीड़ा के, हेतु वेदना होती है,
विपदाओं से भरे दौर में, उसकी आँख न सोती है।
मुसीबतों के निराकरण के जो न मार्ग बनवायेगा।
तो सच मानो आने वाला कल न उसे अपनायेगा।।
 
भले बुरे इन्सानों का भी, जिसे तजुर्बा होता है,
वो सच्चाई के बोझे को, ख़ुशी ख़ुशी से ढोता है।
अनुभव अर्जित ज्ञानकोष के सूत्र न जो समझायेगा।
तो फिर मानो आने वाला कल न उसे अपनायेगा।।
 
विश्ववाटिका के फूलों को, सड़ना गलना पड़ता है,
उन्हें इत्र बनकर दुनिया में,सतत महकना पड़ता है।
मानव मूल्यों के सदगुण जो साधक नहीं बतायेगा।
तो फिर मानो आने वाला कल न उसे अपनायेगा।।

Thursday, August 20, 2020

संविधान

 

संविधान के साथ जिन्हें है, जन-गण-मन से प्यार, 
उन्हें हम कर सकते स्वीकार|
उन्हें हम कर सकते स्वीकार|| 

जो गरीब के साथ चलेंगे, जो अभाव के हाथ बनेंगे,
जनसत्ता उनकी होगी जो, नवसर्जन के पाथ रचेंगे|
हम हैं सबके सभी हमारे , जिनका यह व्यवहार,
उन्हें हम कर सकते स्वीकार|
उन्हें हम कर सकते स्वीकार|| 

जो अत्याचारों को छोड़ें, भ्रष्ट जनों से जो मुँह मोड़ें,
बैर बढ़ाने वाले जो भी, किले खड़े हैं उनको तोड़ें|
जो अज्ञान अशिक्षा जड़ता, तजने को तैयार,
उन्हें हम कर सकते स्वीकार|
उन्हें हम कर सकते स्वीकार|| 

जो भारत को समझें अपना, लोकतन्त्र हित सीखें तपना,
अपने और और के हित में, अलग नहीं जो रखते नपना|
वैधानिक अनुशासन में जो, करें कार्य व्यापार,
उन्हें हम कर सकते स्वीकार|
उन्हें हम कर सकते स्वीकार||

अपना मत सज्जन को देंगे, बदले में कुछ कभी न लेंगे,
यह उदघोष यही स्वर कवि का, राष्ट्र्हितैषी गीत रचेंगे|
जो जीवन में पंचशील को, करते अंगीकार, 
उन्हें हम कर सकते स्वीकार|
उन्हें हम कर सकते स्वीकार|| |63

Wednesday, August 19, 2020

सच्चाई की कमी

 

सच्चाई की कमी दिख रही, राजनीति की गलियों में|
किस शुचिता की खोज रही, ठगुओं में भुजबलियों में?

भूखे- प्यासे बेवश लाखों, विपदाओं के मारे हैं,
शिक्षा- दीक्षा के नारे तो, आसमान के तारे हैं|
गरल छिड़कने लगे दरिन्दे, वन उपवन की कलियों में|
किस शुचिता की खोज रही, ठगुओं में भुजबलियों में?

काली करतूतों को ढँकते, कितने वस्त्र निराले हैं,
जितने उज्ज्वल तन से दिखते, उतने मन के काले हैं|
अन्तर नहीं परखना चाहें, छलियों में मखमलियों में|
किस शुचिता की खोज रही, ठगुओं में भुजबलियों में?

पाले- पोषे ख़ूब जा रहे, जाति- धर्म के आतंकी,
सम्मानित हो रहे सहस्रों, अर्थ समर्थक ढोलंकी|
दूध पी रहे विविध सपोले, स्वर्ण रजत की डलियों में|
किस शुचिता की खोज रही, ठगुओं में भुजबलियों में?94