-:प्राणवायु गीत संकलन से एक गीत:-
अर्थ को ज़िन्दगी मानकर, आदमी श्रेष्ठता खो रहा।
सत्य की शक्ति को त्यागकर, झूठ के भार को ढो रहा।।
स्वर्ण का बोलबाला बढ़ा,वर्ण का भूत सबको चढ़ा।
आचरण का पतन देखिये,स्वार्थ का पाठ युग ने पढ़ा।।
त्याग की भावना भूलकर,भोग की गोद में सो रहा।
सत्य की शक्ति को त्यागकर,झूठ के भार को ढो रहा।।
आज की नीति छल नीति है,द्वेष से हो गई प्रीति है।
क्या कहें और किससे कहें,न्याय की भी यही रीति है।।
नीड़ कमजोर का नोंचकर पाँव सहजोर के धो रहा।
सत्य की शक्ति को त्यागकर,झूठ के भार को ढो रहा।।
दर्द की कोठरी में कहीं,स्नेह को मान्यता है नहीं।
सभ्यता के नगर गाँव में,वासनायें विपुल बस रहीं।।
कर्म के पंथ से हारकर,धर्म बेशर्म -सा हो रहा।
सत्य की शक्ति को त्यागकर,झूठ के भार को ढो रहा।।
पुष्प की वाटिका में कहीं,आज आनन्द आता नहीं।
अर्थ को ज़िंदगीचारणों की जमातें जहाँ,क्यों क़लमकार जाता वहीं?
एकता का चमन रौंदकर,भेद के बीज को बो रहा।।
सत्य की शक्ति को त्यागकर,झूठ के भार को ढो रहा।।
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