Monday, July 29, 2013

जख्मी आवाज़




बहुत विलखते हुए स्वरों ने, फिरसे उसे पुकारा है|
दुर्दान्तों ने दुखियारी के, तन से चीर उतारा है||

सरेआम कन्या को खींचा, उसे कार से ले भागे,
पता नहीं इन मुस्दंडों के, जुड़े कहाँ से हैं धागे|
गिरते हुए आँसुओं को तो, मिलता नहीं सहारा है|
दुर्दान्तों ने दुखियारी के, तन से चीर उतारा है||

बेमतलब की लफ्फाजी में, सकल प्रशासन खोया है|
यहाँ लग रहा अब यूँ जैसे, संरक्षक ही सोया है||
उद्दंडों के क्रूर कर्म भी, सुनना नहीं गंवारा है|
दुर्दान्तों ने दुखियारी के, तन से चीर उतारा है||

इज्जत जिनकी गई उतारी, उनको बुरा-भला कहते|
दहशतगर्दों की सेवा में, लगे सिपाही कुछ रहते||
न्यायतंत्र ने दौड़ा करके, मरे हुओं को मारा है| 
दुर्दान्तों ने दुखियारी के, तन से चीर उतारा है||

Friday, July 26, 2013

प्यार सद्धर्म है

प्यार सद्धर्म है मूल अधिकार है,
प्यार ने ही रचा भव्य संसार है|

हो सके तो सुदृढ़ से सुदृढ़ कीजिये,
ज़िन्दगी के लिए प्यार आधार है|

भीड़ इस पार है भीड़ उस पार है,
भ्रान्ति के सिंधु में नाँव मझधार है|

लोग जिसको बताते मुसीबत बड़ी,
वो दयावान का श्रेष्ठ उपहार है|

वोट की शक्ति के सामने जानिये,
तीर तलवार क्या तोप बेकार है|

सभ्य संवाद है ज्ञात उसको 'तुका',
मित्र ही क्या जिसे शत्रु स्वीकार है|

Wednesday, July 24, 2013

शाश्वत राग

पतझर ने उजाड़ डाला है, जीवन बाग हमारा|
एकाकी ही गूंज रहा है, शाश्वत राग हमारा||

कालचक्र की इच्छायें तो, हुई न कभी पता,
लेकिन शीत ग्रीष्म वर्षा में, सदा रहा चलता|
अनुभव की आवाज़ हो गया, पावन त्याग हमारा|
एकाकी ही गूंज रहा है, शाश्वत राग हमारा||

जब से होश सँवाला तब से, परहित लगा रहा,
थका तभी सैया पर पहुँचा, फिरभी जगा रहा |
वो भी छीन लिया ठगुओं ने, जो था भाग हमारा|
एकाकी ही गूंज रहा है, शाश्वत राग हमारा||

इसे न समझा बैरी उसको, कभी न मित्र कहा,
समता परक स्वभाव सभी के, लिए पवित्र रहा| 
प्राणवायु सा जगहित बहता, उर अनुराग हमारा|
एकाकी ही गूंज रहा है, शाश्वत राग हमारा||

Saturday, July 20, 2013

थू-थू, थू-थू



थू-थू, थू-थू है धिक्कार ---

गुंडा-गर्दी अत्याचार ,
राजनीति का यह उपहार|
आम आदमी ठेंगे पर-
वाह-वाह सुनती सरकार||१ 
थू-थू, थू-थू है धिक्कार ---

चौराहों ऊपर मक्कार,
जगह-जगह बैठे गद्दार| 
गिरता कन्याओं का भ्रूण-
ताल-ठोकता है व्यभिचार||२ 
थू-थू, थू-थू है धिक्कार ---

लापरवाही का अधिकार,
क्रूर हुई भोजन की मार|
घोर गरीबी की संतान-
प्राण गँवायें खाये मार||३ 
थू-थू, थू-थू है धिक्कार ---

राष्ट्रभक्ति का शिष्टाचार, 
लूट डकैती भ्रष्टाचार|
पायें सत्ता का सुख भोग-
दुरभिसंधि कर कुछ परिवार||४ 
थू-थू, थू-थू है धिक्कार ---

जातिवादियों का विस्तार,
क्षेत्रवादियों की जयकार|
पूंजीपतियों का सद्धर्म- 
फैलाना काले व्यापार||५ 

कौन यहाँ पर जुम्मेदार?
किनके कन्धों ऊपर भार?
ऐसा लगता आज नागरिक-
छोड़ रहे मौलिक अधिकार||६ 

गाँव संस्कृति बंटाधार,
नगरों में है हाहाकार|
युवक युवतियों की आवाज़- 
इन रोगों का हो उपचार||७ 
थू-थू, थू-थू है धिक्कार ---

मौज मनाओ है इतवार,
अथवा हो जाओ तैयार|
न्याय हितौषी होकर एक 
करें प्रयोग वोट अधिकार||८ 
थू-थू, थू-थू है धिक्कार ---

अनाचारियों का प्रतिकार,
सदाचारिता का संचार|
लोकहितैषी सीधे मार्ग-
अबतो करने हैं स्वीकार||९ 
संविधान के प्रति आभार| 
संविधान के प्रति आभार|

Sunday, July 14, 2013

पंचशील का बाग

किसी क्षेत्र में राष्ट्र प्रेम की, महक न मंदिम पड़ पाये|
मिला स्नेह सहकार वृक्ष जो, जड़ उसकी न उखड़ पाये||

मान रहा हूँ स्वार्थवृत्ति का, रोग निरन्तर फैल रहा|
रोकथाम करने को कब से, हटा मानसिक मैल रहा|
दिया सरहदों ऊपर पहरा, अरिदल अब न उमड़ पाये|
मिला स्नेह सहकार वृक्ष जो, जड़ उसकी न उखड़ पाये||

काव्यशक्ति से नागरिकों को, युग प्रबोध संगीत दिया,
सत्य- असत्य परखने वाला, पारख सूत्र प्रणीत किया|
प्रगतिशील जीवन हों अपने, जड़ता नहीं जकड़ पाये|
मिला स्नेह सहकारवृक्ष जो, जड़ उसकी न उखड़ पाये||

लोकहितैषी उद्योगों को, भलीभाँति विकसित कर लें,
जिन क्षेत्रों में पीछे उनके, कारण अन्वेषित कर लें|
पंचशील का बाग सुहाना, फिरसे नहीं उजड़ पाये|
मिला स्नेह सहकार वृक्ष जो, जड़ उसकी न उखड़ पाये||

विश्व शान्ति के हेतु हमारा, संविधान उद्घोषक है,
बुद्धि विवेक तर्क विज्ञानी, राह चुनी सहयोजक है|
संचित शक्ति करें अब इतनी, कोई कर न पकड़ पाये|
मिला स्नेह सहकार वृक्ष जो, जड़ उसकी न उखड़ पाये||

Friday, July 12, 2013

कहानी हो किसी की

नहीं सम्बन्ध रखते जो भले इन्सान से,
सुनाते कातिलानी भूमिका वे शान से|

ठगों की आदतें जाती नहीं गुणगान से, 
सही पहचान होती है नहीं परिधान से|

कभी सत्ता मिले शायद उन्हें भी देश की,
मिलेंगे लेखकों को तोहफे अनुदान से|

उन्हीं के हाथ से स्वीकार के उपहार को, 
खड़े हरदम रहेंगे साथ में जी जान से|

समझना चाहिये इन्सान को इतना सदा,
भला होता किसी का भी नहीं शैतान से|

इसी में तोष मिलता है यही चाहत रही, 
महज दो रोटियाँ मिलती रहें सम्मान से|

कहानी हो किसी की भी किसी दौरान की,
उसे समझा 'तुका' ने तर्क से विज्ञान से|

Sunday, July 7, 2013

चेतना जाग्रत

चेतना जाग्रत करे जो वो कहानी जानिये|
बैठिये नजदीक आकर जिंदगानी जानिये||

वाहवाही लूटने की शक्तियाँ जिसमें भरी,
सभ्यता संवेदना की काव्यवाणी जानिये|

मानता हूँ वो किसी की वाटिका में कैद है, 
पर महकती जो यहाँ वो रातरानी जानिये|

बंधनी सी अब दिखाई दे रही लेकिन कभी,
लोकशाही भावना मत खानदानी जानिये|

जो सुनी सुनते सुनाते आ रहे हो आदि से, 
वो कथा है सत्य कितनी संत ज्ञानी जानिये? 

यूँ किसी को ज्ञात अगला पल नहीं होता मगर,
शायरों की ज़िन्दगी को गैरफानी जानिये|

भौतिकी विज्ञान के इस दौर में सोचो 'तुका',
क्या सिखाती हैं किताबें आसमानी जानिये?

Saturday, July 6, 2013

रूप हमारे गाँव का

बदल गया है बचपन वाला, रूप हमारे गाँव का|
सूख गया है मृदु जल वाला, कूप हमारे गाँव का||

जटिल कार्य सहकार भाव से, सब कर लेते थे,
जिसका जो हक बनता थे वो, उसको देते थे |
दुनिया भर में जाना जाता, जूप हमारे गाँव का|
बदल गया है बचपन वाला, रूप हमारे गाँव का||

गेहूँ चना मटर की फसलें, यूँ लहराती थी,
जैसे सजी-धजी माँ-बहनें कजरी गाती थी|
कृषकों श्रमिकों-सा रहता था, भूप हमारे गाँव का|
बदल गया है बचपन वाला, रूप हमारे गाँव का||

तीन- तीन तालाब नीर से, पूरित रहते थे,
जिनमें कई बतख जीवन की, महिमा कहते थे|
सहज प्रेरणा स्रोत रहा आनूप हमारे गाँव का|
बदल गया है बचपन वाला, रूप हमारे गाँव का||

युवक युवतियाँ सहोदरों- सा, हँसते गाते थे,
हिलमिलकर के सब नर-नारी, पर्व मनाते थे|
चारों और बहुत चर्चित था, यूप हमारे गाँव का |
बदल गया है बचपन वाला, रूप हमारे गाँव का||

Wednesday, July 3, 2013

राजधानी

नशेबाज-सी सो रही राजधानी,
कदाचार को ढो रही राजधानी| 

डकैती बकैती लठैती प्रभावी,
अनाचार से रो रही राजधानी|

कहीं नीर निर्मल दिखाई न देता, 
वदन कीच से धो रही राजधानी| 

व्यवस्था हुई चम्बली आज देखो,
डवांडोल कुछ हो रही राजधानी|

विषैले फलों को उगाती रहे जो, 
वही बीज तो बो रही राजधानी|

मचा राजनैतिक घमासान ऐसा,
'तुका' धैर्य को खो रही राजधानी|

Monday, July 1, 2013

हाथ में हाथ

हाथ में हाथ सबसे मिलाते नहीं,
शान शौकत हमेशा दिखाते नहीं|

आसमां शीश ऊपर उठाते नहीं|
शक्ति बेकार में तो गँवाते नहीं|

कौन-सा राष्ट्रहित वे करेंगे कहो,
जो सुबह विस्तरा छोड़ पाते नहीं|

हाल बेहाल उनका हुआ क्या कहें,
शिष्य भी आजकल पास जाते नहीं|

मित्र से क्या शिकायत करें वे भला,
शत्रु भी शत्रुता अब निभाते नहीं |

वक्त ने इस तरह से सताया 'तुका'
अश्रु आते नहीं मुस्कराते नहीं|