Monday, July 29, 2013

जख्मी आवाज़




बहुत विलखते हुए स्वरों ने, फिरसे उसे पुकारा है|
दुर्दान्तों ने दुखियारी के, तन से चीर उतारा है||

सरेआम कन्या को खींचा, उसे कार से ले भागे,
पता नहीं इन मुस्दंडों के, जुड़े कहाँ से हैं धागे|
गिरते हुए आँसुओं को तो, मिलता नहीं सहारा है|
दुर्दान्तों ने दुखियारी के, तन से चीर उतारा है||

बेमतलब की लफ्फाजी में, सकल प्रशासन खोया है|
यहाँ लग रहा अब यूँ जैसे, संरक्षक ही सोया है||
उद्दंडों के क्रूर कर्म भी, सुनना नहीं गंवारा है|
दुर्दान्तों ने दुखियारी के, तन से चीर उतारा है||

इज्जत जिनकी गई उतारी, उनको बुरा-भला कहते|
दहशतगर्दों की सेवा में, लगे सिपाही कुछ रहते||
न्यायतंत्र ने दौड़ा करके, मरे हुओं को मारा है| 
दुर्दान्तों ने दुखियारी के, तन से चीर उतारा है||

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