Friday, August 31, 2012



Wednesday, August 29, 2012



Friday, August 24, 2012

कहने को मजबूर किया है,सतरंगी तस्वीर ने|
जकड़-जकड़ जनता को बाँधा,जड़ता की ज़ंजीर ने||

नहीं किसी को आज़ादी का, वातावरण मिला|
सदा सत्य कहने वाले से, शासन करे गिला||
मर-मर करके यहाँ जिया है,उमर दराज़ फकीर ने| 
जकड़-जकड़ जनता को बाँधा,जड़ता की ज़ंजीर ने||

किया परिश्रम नहीं जिन्होंने,उनका बाग खिला| 
जिन फूलों ने शूल न झेले, उनको मान मिला||

निबल जनों की नग्न पीठ ही,भेदी धार्मिक तीर ने|
जकड़-जकड़ जनता को बाँधा,जड़ता की ज़जीर ने||

लोकतंत्र भी राजतंत्र सी, चालें छली चले|
पैंसठ वर्षों बाद न्याय के,कुम्भ न कहीं ढले||
सींचे अभी न सूखे उपवन, समरसता के नीर ने |
जकड़-जकड़ जनता को बाँधा,जड़ता की ज़ंजीर ने||
कहने को मजबूर किया है,सतरंगी तस्वीर ने|
जकड़-जकड़ जनता को बाँधा,जड़ता की ज़ंजीर ने||

नहीं किसी को आज़ादी का, वातावरण मिला|
सदा सत्य कहने वाले से, शासन करे गिला||
मर-मर करके यहाँ जिया है,उमर दराज़ फकीर ने| 
जकड़-जकड़ जनता को बाँधा,जड़ता की ज़ंजीर ने||

किया परिश्रम नहीं जिन्होंने,उनका बाग खिला| 
जिन फूलों ने शूल न झेले, उनको मान मिला||

निबल जनों की नग्न पीठ ही,भेदी धार्मिक तीर ने|
जकड़-जकड़ जनता को बाँधा,जड़ता की ज़जीर ने||

लोकतंत्र भी राजतंत्र सी, चालें छली चले|
पैंसठ वर्षों बाद न्याय के,कुम्भ न कहीं ढले||
सींचे अभी न सूखे उपवन, समरसता के नीर ने |
जकड़-जकड़ जनता को बाँधा,जड़ता की ज़ंजीर ने||

Tuesday, August 21, 2012


      
बहुत से लोग हैं जो आज भी, पीछे खड़े रहते|
किसी से कुछ नहीं कहते,किसी से कुछ नहीं कहते||

उन्हें मालूम है उनको, सताया क्यों यहाँ जाता?
छिना भी वो लिया जाता,कि उनके हाथ जो आता|
हमेशा मौन रहते हैं,अकारण गालियाँ सहते|
किसी से कुछ नहीं कहते,किसी से कुछ नहीं कहते||

जिन्हें ये वोट देते हैं,उन्हीं के हाथ पिटते हैं|
उन्हें सुख धाम मिल जाते,मगर ये लोग मिटते हैं|
इशारों पर उन्हीं के तो,पवन जैसा सदा बहते|
किसी से कुछ नहीं कहते,किसी से कुछ नहीं कहते||

इन्हें जीवन मिला फिरभी, उसे ये जी नहीं सकते|
न भोजन पेट भर पाते,मधुर जल पी नहीं सकते||
उन्हीं के हेतु जीते हैं, उन्हीं के हेतु ये दहते |
किसी से कुछ नहीं कहते,किसी से कुछ नहीं कहते||

Sunday, August 19, 2012

एक ओर है हर्ष ईद ....

एक ओर है हर्ष ईद का,एक ओर विध्वसं|
सहेगी जनता कितने दंश?
सहेगी जनता कितने दंश?

सावन के अंधे को दिखती, दुनिया धानी-धानी |
कुछ घर सिवईं सरस बिरयानी,कुछ को मिले न पानी|
पलक झपकते हुए दर बदर,यहाँ सहस्रों वंश|
सहेगी जनता कितने दंश?

सहेगी जनता कितने दंश?

अफवाहों की आग लगी है,बंधु भरोसा टूटा|
अपनों ने अपनों को कैसा,लूटा पीटा कूटा||
राजनीति के कारण रिपु-सा,दिखे अंश को अंश|
सहेगी जनता कितने दंश?
सहेगी जनता कितने दंश?

लोकतंत्र में राजतन्त्र -सा,छली आचरण दिखता|
जिसने थामी न्याय लेखनी,वह भी सत्य न लिखता||
किसको समझें बाज़ जंगली,किसको समझें हंस?
सहेगी जनता कितने दंश?
सहेगी जनता कितने दंश?

Sunday, August 12, 2012

जिन्हें सताया गया हमेशा, उन सबकी पहचान हैं|
जुटे रहे प्रिय! पर सेवा में, सरल सहज इन्सान हैं||

मजहब के जो नहीं खिलाड़ी,ठग विद्या के नहीं जुगाड़ी,
पढ़े-लिखों ने जिनको समझा,अविवेकी अत्यंत अनाड़ी|
सदा धूल में गये मिलाये, निबलों के अरमान हैं | 
जुटे रहे प्रिय! हैं पर सेवा में, सरल सहज इन्सान हैं||

नहीं मिली सदियों तक शिक्षा,बात-बात पर दिये परीक्षा,
पुरखों के जीवन यापन की, हुई नहीं निष्पक्ष समीक्षा||

कुछ छलिया विपरीत इन्हीं के,चला रहे अभियान हैं|
जुटे रहे प्रिय! पर सेवा में, सरल सहज इन्सान हैं||

लोकतंत्र में भी मनमानी,कुछ करते हैं खींचा-तानी,
अपने आप विचार कीजिये,कब तक होगी यह नादानी?
अब तो शोषित पढ़े-लिखे हैं,शीलवान विद्वान हैं| 
जुटे रहे प्रिय! पर सेवा में, सरल सहज इन्सान हैं||

समता परक विधान हमारा,इसने जन-जन को स्वीकारा,
सब स्वतंत्र अभिव्यक्ति हेतु हैं,अब न सत्य से कसो किनारा|
हम सब भारत के वासी हैं,भारत की संतान हैं | 
जुटे रहे प्रिय! पर सेवा में, सरल सहज इन्सान हैं||

Friday, August 10, 2012

एक गीत "शब्द -शक्ति "

अपने आप ह्रदय पीड़ा को, आँखों ने बतलाया है|
अनुभव कहता अर्थतंत्र ने, सबको सदा सताया है||

बहुत क्रूर होती है सत्ता,उसे तर्क से क्या लेना|
जो विरोध करता शासन का,उसे मसलती है सेना||
न्याय पालिका आभूषण है,किसने न्याय निभाया है? 
अनुभव कहता अर्थतंत्र ने, सबको सदा सताया है||

स्वर्ग-नर्क लालच भय वाले,सत्ता हेतु खिलौने हैं|
ये शासक की जय-जय करते,होते बहुत घिनौने हैं||
पुरोहितों ने कुछ जाने-अनजाने सत्य छिपाया है |
अनुभव कहता अर्थतंत्र ने, सबको सदा सताया है||

सत्यपथी सद्धर्म विवेकी, जुड़ न व्यवस्था से पाते|
प्राणदान के बाद यही तो, ईश्वर कहलाये जाते ||
भोले-भालों ने इन सबको, निज आदर्श बनाया है|
अनुभव कहता अर्थतंत्र ने, सबको सदा सताया है||

कवि तो शब्द-शक्ति के बल से,नवयुग बोध कराते हैं|
जन गण मन की विपदाओं का,निराकरण समझाते हैं||
विविध चारणों ने अनादि से,नृप का ढोल बजाया है|
अनुभव कहता अर्थतंत्र ने, सबको सदा सताया है||

Tuesday, August 7, 2012

मीठी बातें जो करते वे, करें न मीठे काम|
भले लगते उनको संग्राम ||
भले लगते उनको संग्राम|||

कभी जाति के कभी वर्ग के,कभी क्षेत्र के झगड़े,
कभी अचानक उठवा देते, विषद मजहबी लफड़े|
नहीं सोचते हैं क्या होगा,इन सबका अंजाम|
भले लगते उनको संग्राम ||
भले लगते उनको संग्राम|||

कुछ के जलते घाष घरोंदे,कुछ की जलें दुकानें,
इनके चेले मौज उड़ायें, अनुचित उचित न जानें|
अपनी सिद्ध श्रेष्ठता करते, बतलाकर उपनाम|
भले लगते उनको संग्राम ||
भले लगते उनको संग्राम|||

शासन और प्रशासन इनके,आगे चुप रहता है,
कभी कभी तो इनके हित की,परिभाषा कहता है|
इनकी अर्थ शक्ति के आगे,सत्ता करे प्रणाम|
भले लगते उनको संग्राम ||
भले लगते उनको संग्राम|||

Monday, August 6, 2012

दुनिया भर पर हँसने वालों,अपने को भी देखो|
अपनी आँखों से दुखियो के,सपने को भी देखो||

अपने लिए जुटा लेते हैं, सुख सुविधायें जो भी,
जन सेवा के दायित्वों से, बंधे हुए हैं वो भी |
क्वार धूप में नग्न वदन के,तपने को भी देखो|
अपनी आँखों से दुखियो के,सपने को भी देखो||

ढांक नहीं सकते मत ढांको,किन्तु न लाज उघारो,
ये अमीर क्यों,वे गरीब क्यों,इस पर स्वतः विचारो|
जिसके द्वारा नाप रहे उस,नपने को भी देखो|
अपनी आँखों से औरों के, सपने को भी देखो||

कितनी भी हो शक्ति वदन में,फिर भी तो वह थकता,
शिक्षा बिना समाज कभी भी,प्रगति नहीं कर सकता|
सीढ़ी चढ़ते लघु पैरों के, कपने को भी देखो|
अपनी आँखों से औरों के, सपने को भी देखो||

Friday, August 3, 2012

क्या कहने चतुराई ?
अरे बधाई अरे बधाई अरे बधाई भाई,
क्या कहने चतुराई ......

गाँव-शहर में लोकपाल की डुग्गी थी पिटवाई,
एक मदारी ने दिल्ली में कुछ दिन भीड़ लगाई,
खेल तमाशा दिखा-दिखा के शोहरत रूपी धन को-
राजनीति में निवेश करने की क्या जुगत बनाई|
क्या कहने चतुराई ....
अरे बधाई अरे बधाई अरे बधाई भाई,
क्या कहने चतुराई .......

अब तो जनता देख तमाशा वापिस घर को आई,
अनुभव जब पूछा औरों ने तो बस आँख चुराई,
अंध भक्ति की आशाओं ने जब स्वयमेव विचारा=
तब अपनी अविवेक वृत्ति पर, जीभ नहीं खुल पाई|
क्या कहने चतुराई ?
अरे बधाई अरे बधाई अरे बधाई भाई,
क्या कहने चतुराई .......

राजनीति का खुला अखाड़ा,जिसके कई खिलाड़ी,
इंतजार की लगी  पंक्ति में ,खड़े अनेक जुगाड़ी,
अवसर अच्छा है घुस बैठो ,नहीं गंवाओं इसको- -
कुछ दिन के उपरान्त सही है, बनते दक्ष अनाड़ी|
आज समय है कल मत कहना,क्यों न राह दिखाई ?
क्या कहने चतुराई ?
अरे बधाई अरे बधाई अरे बधाई भाई,
क्या कहने चतुराई .......