Friday, July 18, 2014

"लम्बे-लम्बे हाथ"

"लम्बे-लम्बे हाथ"

गाँव-गाँव में नगर-नगर में, नारे लगें अजीब,
सलामी इनको दो| 
सलामी इनको दो||

दरिन्दे वैभवता के साथ, बहुत हैं लम्बे-लम्बे हाथ,
यही बनवाते हैं सरकार, बने हैं राजनीति के नाथ|
सलामी इनको दो|
सलामी इनको दो||

वक्त की पहचानों आवाज़, बढ़ेगा शैतानों का राज,
गरीबों की करिये बस बात, लुटेरे लूट रहे जो लाज|
सलामी इनको दो|
सलामी इनको दो||

नहीं सत्ता से कुछ उम्मीद, सिर्फ उसको देनी ताकीद,
समस्याओं से वो अनजान, मगर उसके खाते में दीद| 
सलामी इनको दो|
सलामी इनको दो||

Friday, July 11, 2014

कन्याओं के भ्रूण गिराते,

जर जोरू जमीन भी छीनी जाने लगी कमेरों की|
अधिवक्ता बन गई व्यवस्था डाकू चोर लुटेरों की|| 

बातों से बरसे चतुराई, कामों में झलके ठकुराई,
सत्ता के सातों सुख भोगें, ऊपर से बनते रघुराई|
उजियारे के अभियानों में, घटी न पीर अँधेरों की| 
अधिवक्ता बन गई व्यवस्था डाकू चोर लुटेरों की|| 

कन्याओं के भ्रूण गिराते, अन्यायों को गले लगाते,
ठगुआ पंचायत लगवाकर; निर्दोषों को सजा सुनाते| 
क्रूर प्रशंसा करते दिखते, कुछ जंगल के शेरों की| 
अधिवक्ता बन गई व्यवस्था डाकू चोर लुटेरों की|| 

जो हैं सरकारी सुविधायें, उन्हें गरीबे देख न पायें, 
नाम निर्धनों का ले लेके, धनवानों को गले लगायें|
कड़वी औषधि अब पीनी है, सब को हर्र बहेरों की| 
अधिवक्ता बन गई व्यवस्था डाकू चोर लुटेरों की||

Friday, July 4, 2014

आँच सत्ता


मिली आँच सत्ता उबलने लगे हैं|
गरम दूध जैसा उफनने लगे हैं||

उन्हें छीनने की पड़ी आदतें जो,
निडर बानरों-सा उछलने लगे हैं|

जिन्हें श्रेष्ठ गुणवान माने हुये हो,
वही निर्बलों से उलझने लगे हैं|

छिपाये रहे पर छिपे जो नहीं वे,
कलुष कारनामे उभरने लगे हैं|

फुहारे गिरी मौसमी तो हज़ारों, 
यहाँ मेढ़कों-सा उचकने लगे हैं|

सदा नीर को जो तरसते रहे वे,
'तुका' बादलों-सा उमड़ने लगे हैं|
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