Wednesday, March 27, 2013

एक मंथन गीत:-

शब्द-जाल है यति है गति है, पर उसमे सदभाव कहाँ?
काव्य-धर्म पालन करने का, चला गया प्रस्ताव कहाँ?

कौन जानता नहीं अर्थ का, अंतर अम्बल होता है,
पर सदियों के हेतु काव्य तो, जीवन-संबल होता है|
शब्द- शक्ति संवर्धन वाणी, रखती है अलगाव कहाँ?
काव्य-धर्म पालन करने का, चला गया प्रस्ताव कहाँ?

जब तक लिखो-पढ़ोगे मित्रो!, पूर्वाग्रह के ग्रंथों को,
तब तक नहीं बना सकते हो, मानवता के पंथों को|
बँटवारे का लेखन सोचो, कम कर सका तनाव कहाँ?
काव्य-धर्म पालन करने का, चला गया प्रस्ताव कहाँ?

वक्त कह रहा जग मानव को, मानव-सा अपनाओ भी,
नैसर्गिक सुषमा की रक्षा, करने को डट जाओ भी |
कवि के मन में किसी तरह का,घर कर सका दुराव कहाँ? 
काव्य-धर्म पालन करने का, चला गया प्रस्ताव कहाँ?

Tuesday, March 26, 2013

छूटे नहीं छुड़ाने से जो, और चमकता जाये|
ऐसे रंगों को ले करके, कोई आगे आये ||

जिये सदा जन-मन का होके, बढ़ते कदाचार को रोके,
जिसके दैनिक व्यवहारों से, अनुभव हों बयार के झोके|
जिसकी कथनी राष्ट्र-दृगों को, करनी में दर्शाये , 
ऐसे रंगों को ले करके, कोई आगे आये ||

सच से कभी न आँखें मींचे, नई पौध को रौपे सींचे, 
बुद्धि-विवेक युक्त बाहों से, प्रगति चक्र जो आगे खींचे|
पंचशील की क्षमताओं से, भेदभाव दफनाये|
ऐसे रंगों को ले करके, कोई आगे आये ||

हम भारत के लोग हमारा, जीवन लक्ष्य मनोरम न्यारा,
जिसको मानव में दिखता हो, मानव दर्शन चिंतन प्यारा|
सुख -समृद्धि का न्याय तिरंगा, जो नभ में फहराये|
ऐसे रंगों को ले करके, कोई आगे आये ||

Sunday, March 24, 2013

घिनौनी सोच से अक्सर मनाना चाहते होली|
सुना है सरहदों ऊपर मनाना चाहते होली||

मिलावटखोर हिलमिलकर मनाना चाहते होली,
गरल को बेचकर विषधर मनाना चाहते होली|

दरिंदे राजनैतिक हस्तियों की चौधराहट में,
गिराकर धर्म के पत्थर मनाना चाहते होली |

कुचलते आ रहे हैं मानवीयत जो युगों से वे,
पकड़कर न्याय का कालर मनाना चाहते होली|

उन्हें साम्राज्य वैभव का बढ़ाना है बढ़ाना है,
जलाकर घाष वाले घर मनाना चाहते होली|

तुम्हें उनसे सजग रहना यहाँ होगा हमेशा जो,
छिपाकर बाह में खंजर मनाना चाहते होली|

सराहा जा नहीं सकता 'तुका' ऐसे इरादे को,
दिलों के बीच हो अंतर मनाना चाहते होली|

Monday, March 18, 2013


बम किसी ओर धर के चले जाइये|
जोर का शोर करके चले जाइये||

छूट है लूटिये लोक भण्डार को,
फूल फल झोर कर के चले जाइये|

कौन क्या कर सकेगा बड़े लाल का,
न्याय को रौंद कर के चले जाइये|

शक्ति की डोर तो हाथ में आ चुकी ,
राष्ट्र कमजोर करके चले जाइये|

धर्म का आशियाना सुरक्षित सदा , 
पाप घनघोर करके चले जाइये|

स्वर्ग का नर्क का खौफ कैसा 'तुका',
ज़िन्दगी ढोर करके चले जाइये|

Thursday, March 14, 2013

समय की ग़ज़ल गुनगुनानी पड़ी है,
नयी रौशनी आजमानी पड़ी है |

कही बात जो वो निभानी पड़ी है 
भलों को मुसीबत उठानी पड़ी है|

जिसे नित्य अनुभूतियों से संजोया,
वही जिंदगानी सुनानी पड़ी है|

जिन्होंने ठगों को नहीं संत माना,
उन्हें पूर्ण कीमत चुकानी पड़ी है|

सदा शब्द की साधना हेतु कवि को ,
गरीबी गले से लगानी पड़ी है|

जिन्हें कीच के बीच फेका अकेला,
उन्हें राह अपनी बनानी पड़ी है |

सभी के लिए जो सदा काम आये,
'तुका' फस्ल ऐसी उगानी पड़ी है|

Monday, March 11, 2013

लोकहित के लिए कौन सरकार है ?
लक्ष्य जिसका नहीं अर्थ व्यापार है||

आदमी चेतना बोध से जो भरा,
छोड़ सकता नहीं वो सदाचार है|

भोग की वस्तुओं में रमा चित्त जो,
वो अनाचार का मूल आधार है |

पूज्य माता-पिता की तरह पूज्य ही,
साम्य-सौरभ भरा प्रेम व्यवहार है|

जाति की वर्ग की धर्म की कैद से,
चाहता मुक्ति अब न्याय दरबार है|

काव्य संवेदनायें जगाता 'तुका',
ध्येय सर्वोदयी ज्ञान- संचार है |

Sunday, March 10, 2013



संविधान का एक-एक अक्षर है गौरव गान|
यही नव भारत की पहचान||
यही नव भारत की पहचान|||

तज दें रूढि जनित जड़ कारा, अपनायें वैज्ञानिक धारा,
सामाजिक आर्थिक विकास के, पथ खोजें शिक्षा के द्वारा|
लोकतंत्र है मानवता का, सर्वोत्तम वरदान|
यही नव भारत की पहचान||
यही नव भारत की पहचान||| 

भारतीय घर के नर-नारी, पंचशील चिंतन व्रतधारी,
एक साथ मिलकर करनी है, लोकतंत्र की पहरेदारी|
मित्रो! कभी न थमने देना, मानवीय अभियान|
यही नव भारत की पहचान||
यही नव भारत की पहचान|||

सुप्त चेतना शक्ति जगाना, न्यायिक वातावरण बनाना,
संविधान की यही भावना, समझे भारत एक घराना|
हमको उज्ज्वल रखनी ही है, जन गण मन की शान|
यही नव भारत की पहचान||
यही नव भारत की पहचान|||

Saturday, March 9, 2013


राष्ट्ररक्षा के सिपाही, शौर्य की प्रतिभा दिखाओ|
वक्त की आवाज समझो, चेतना के गीत गाओ||

साथ में कवि हैं तुम्हारे, शक्तिवर्धन के सहारे,
मार्ग में यों ज्योति देंगे, ज्योंकि ज्योतिर्मय सितारे|
संगठन की साधना से, एकता अक्षुण बनाओ|
वक्त की आवाज समझो, चेतना के गीत गाओ||

न्यायप्रियता की कहानी, प्रेम जीवन की किसानी,
वे भला किस भांति समझें, आँख में जिनके न पानी|
संत जैसी ज़िन्दगी से, शील की सरिता बहाओ |
वक्त की आवाज समझो, चेतना के गीत गाओ||

मत सुनो कोई बहाना, खोजना है ठग ठिकाना,
सरहदों के पार अब तो, उग्रवादी हैं भगाना|
ध्वंसवादी क्रूरता से, मुक्त धरती को कराओ|
वक्त की आवाज समझो, चेतना के गीत गाओ||

Tuesday, March 5, 2013

क्रूरों का जब साथ निभाने, लोक सरकार सरकार|
रुके तब कैसे अत्याचार||
रुके तब कैसे अत्याचार|||

जब कानून व्यवस्था रोये, शासक निज विवेक जब खोये,
पैर पसार ओढ़कर चादर, जब धर्माचारी भी सोये |
संप्रदाय की ज्वाला में जब, जलते घर- परिवार|
रुके तब कैसे अत्याचार||
रुके तब कैसे अत्याचार|||

जब कि अर्थ बन जाये स्वामी, संरक्षक हो जाये कामी,
सदाचार को कदाचार की, डर कर करनी पड़े गुलामी|
जन रक्षक जब भक्षक बनकर, करता भ्रष्टाचार |
रुके तब कैसे अत्याचार||
रुके तब कैसे अत्याचार|||

जब भूखे को मिले न रोटी, वोट-बैंक हो दाढ़ी-चोटी,
जब पुत्रों के आगे कटने, लगे पिता-माता की बोटी|
धनपशु जब करने लगते हैं, नारी का व्यापार|
रुके तब कैसे अत्याचार||
रुके तब कैसे अत्याचार|||

वे सहस्रों अफसरों के बीच में मारे गये,
और हम तो रहबरों के बीच में मारे गये|

वक्त वो तो दुर्बलों को देखता सुनता न था,
आदमी अब सहचरों के बीच में मारे गये|

आज के माहौल में बदलाव आया देखिये,
रायजादे चाकरों के बीच में मारे गये|

अक्षरों के साधकों को क्या कभी चिंता रही,
भावरूपी सागरों के बीच में मारे गये|

चाहते कैसी सुरक्षा राष्ट्र के नेता 'तुका',
लोह निर्मित परिसरों के बीच में मारे गये|

Saturday, March 2, 2013


चाह थी कुछ और लेकिन, हो गयी कुछ और|
क्या किसी में सोच है वो, जो कि बदले तौर?

कर्म -कांडी हथकड़ी, धर्म की जंजीर,
बंधकों जैसी हुई है, राष्ट्र की तस्वीर|
दिख रहा अब तो नहीं है, मुक्त कोई ठौर|
क्या किसी में सोच है वो, जो कि बदले तौर?

कीजिये कुछ कीजिये तो,बढ़ रहा ऋण भार,
शीर्ष पर लटकी अनैतिक,अर्थ की तलवार |
लोक मंगल के लिए तो,शीघ्र करिये गौर|
क्या किसी में सोच है वो, जो कि बदले तौर?

रो रही कलियाँ लतायें, हैं विलखते फूल,
मार्ग नैतिक ज़िन्दगी के,हो गये प्रतिकूल|
पैर बाहर सौर से हैं, दूर मुँह से कौर|
क्या किसी में सोच है वो, जो कि बदले तौर?