Friday, September 30, 2011

                     -एक गीत -
सुनाओ गीत कवि ऐसा,क्षितिज तक शोर हो जाये|
ज़माना त्याग दे  तन्द्रा , चतुर्दिक  भोर हो जाये ||

जहाँ इन्सान भूखा है ,ह्रदय का खेत सूखा है,
जहाँ अनुरक्ति का उत्तर,मिला हर वक्त रुखा है|
वहाँ सहयोग घन बनकर,बरसिये रातदिन इतना-
अनैतिक शक्तियों का स्वर,स्वतः कमजोर हो जाये|
ज़माना त्याग दे  तन्द्रा , चतुर्दिक  भोर हो जाये ||

जहाँ पर लूट- घोटाले, जहाँ धंधे चलें काले ,
जहाँ पर स्वार्थी उर ने, लगाये नीति पर ताले|
वहा साहित्य संबल से, प्रबोधन कीजिये इतना-
घृणा की और जो है वह, प्रणय की और हो जाये|
ज़माना त्याग दे  तन्द्रा,चतुर्दिक  भोर हो जाये ||

सहा करते अनय को जो, नहीं समझे समय को जो,
मृगों की भाँति जीवन भर-भुला पाये न भय को जो|
फजायें चाहतीं उनकी , रगों का रक्त खुला दो-
सर्प का दर्प दलने को, कबूतर मोर हो जाये |
ज़माना त्याग दे तन्द्रा ,चतुर्दिक  भोर हो जाये||
सुनाओ गीत कवि ऐसा,क्षितिज तक शोर हो जाये..   

Wednesday, September 28, 2011

परिवर्तन अनिवार्य है,कहती है अनुरक्ति |
लोकतंत्र में वोट की , अपराजित है शक्ति||
अपराजित है शक्ति , इसी से बदले सत्ता,
जब तक चले न वायु, नहीं हिलता है पत्ता;
नागरिकों को दान , करें वैचारिक दर्शन |
राष्ट्र प्रगति के हेतु, तभी संभव परिवर्तन||

Monday, September 26, 2011

                    गीत वेदना
गाँव-नगर में आम आदमी, तड़प रहा उत्पीडन से|
असमंजस में फँसा रो रहा, महगाई  विज्ञापन से ||

उगती पौध व्यवस्था चरती,हिंसा का अभिवादन करती|
आततायियों के घेरों में, घिरी हुई सत्ता है डरती ||
गीत वेदना बनकर उमड़ा, स्वतः सहज संवेदन से |
असमंजस में फँसा रो रहा, महगाई  विज्ञापन से ||

कुछ सुख सुविधाओं के भोगी,पीकर मधुरस बनते रोगी|
कर्म-हीन अधिकार जताने, हेतु  बन गये ढोंगी जोगी||
न्याय-तंत्र भी विमुख दिख रहा,विलख रहे जन,गण,मन से|
असमंजस में फँसा रो रहा, महगाई  विज्ञापन से ||

चिंतन-मनन विवेक खो गया,काव्य अर्थ का दास हो गया|
सदाचार के शिक्षालय का,  शिक्षक खाकर भाँग सो गया||
सार तत्त्व अब तो यह पाया, व्यवहारिक  अनुशीलन से|
असमंजस में फँसा रो रहा, महगाई  विज्ञापन से ||  

Saturday, September 24, 2011

पर्वत दर्श

Dr.N.Gopi has wrriten a poem in Telugu title  Nichhalana Chalana
translated in Hindi by Dr. Tukaran Verma for National Symposium of Poets 2000
organised by Prasara Bharati at Bhopal A R IM.P.
पर्वत दर्श मुझे उतना ही है उत्प्रेरण दाता |
जितना सरि के अवलोकन से ह्रदय प्रेरणा पाता||
सरि में गति है पर्वत उसको उत्प्रेरित करता है,
सरि है जीवित काव्य, दूरियाँ जो चित्रित करता है ,
पर्वत ऊषा को धारण कर सांस समय की लेता ,
इस प्रकार वह शांत भाव से मौन प्रेरणा देता |
आस-पास के सब ग्रामों का उचित मंत्रणा दाता|

जब होती है वर्षा गिरि के गर्त ताल बन जाते ,
मोती जैसी बूंदे इसके तब कपोल ढरकाते,
चट्टानों पर इन  कृतियों के सर्ग सहस्र बने हैं|
शिला पीठ पर पड़ोसियों ने मेटे ताप घने हैं ,
शैल पीठ पर पथ सर्पीला सहज फैलता जाता |

चक्कर भरे मार्ग से पूछो गिरि दयालु कितना है,
जीवित यातायात युक्त हो जो जीवंत बना है|
पर्वत इसे उदार ह्रदय से वर प्रदान करता है ,
तदुपरांत स्वयमेव सिमटकर लघु स्वरुप धरता है|
टूटे दर्पण के टुकड़ों में इसका बिम्ब समाता |

मेरे घर की दीवारों पर गेरू धारियाँ आतीं ,
मेरा लहू चूस संध्या की किरणें लाली पातीं|
पर्वत आत्मसात कर उसको मुझे तोष तब देता,
जब कि सांध्य का अंतिम खगदल हार गोल रच लेता|
तभी शैल तरु सदृश ह्रदय से दीर्घ उसाँसे लाता |

अति चीर जीवन कि चक्की में पिसकर गिरि बन पाया,
शालग्राम समान शांत रह यह निश्चल रहता आया |
निर्धनता का गौरवमय जब शुभ्र मुकुट था मेरा ,
आशा के राज्यभिषिक्त का यही बना था डेरा |
मेरे खींचे शिलाक्षरों से बाल्यास्मृति का नाता |

पतझर के पत्तों जैसे उड़ गये सखागण प्यारे,
अचरज है शोणित में अब भी बहती शिला हमारे|
बीज चूमते जब धरती को उनमें अंकुर आते ,
गिरि में प्रकृति जड़ें जिनसे बहु स्वप्न सुमन खिल जाते|
सरिता में लघु-लघु कण बहते शैल कहाँ बह पाता ?

संस्कृति प्रतीक गिरि आदि व्यथा बिखरे बिना पचाता,
इस आश्रय संगीत सरस नित मैं आकर सुन पाता |
अनुभूति मधुर यदि सरि है तो गिरि एकांत मिटाता ,
अपने कोमल स्नेह आवरण बीच मुझे अपनाता |
गिरि मेरा धन चाह घनी गिरि यह पहचान विधाता |
 
प्रकृति मुस्काती है
आने देते उसे नहीं जो , सबको जग   में  लाती है|
कन्याओं का भ्रूण गिराते, शर्म नहीं क्यों आती है?

यही भ्रूण कन्या बनती है, यही बहन, भाभी, माता |
इसके हाथों मोहक बचपन स्नेह सहित पाला जाता||
यही सजाती घर चौबारे , दुख-सुख  गले लगाती है |
कन्याओं का भ्रूण गिराते, शर्म नहीं क्यों आती है?

यही लिखाती शब्द पढ़ाती, रचना धर्म सिखाती है ,
यही साथियो! सबके उर में, शाश्वत प्रेम जगाती है|
यही विश्व के ज्ञान दीप की, जलने  वाली  बाती है |
कन्याओं का भ्रूण गिराते, शर्म नहीं क्यों आती है?

इसे सजाओ इसे सँवारो , इसको  आगे आने दो |
कवि का कथन यही है प्यारे! इसको प्यार लुटाने दो|
इसके हँसने मुस्काने के, साथ  प्रकृति मुस्काती है |
कन्याओं का भ्रूण गिराते, शर्म नहीं क्यों आती है?

Friday, September 23, 2011

तर्क-निकष पर परख लें,उमड़ा ह्रदय विचार|
यदि पायें उसको खरा , प्रकट करें तब सार||वानर|
सत्य नहीं छिपता कभी, लाख रहें व्यवधान|
लोग रहे यदि मौन तो , बोलेंगे पाषाण ||करभ|
सच को सुंदर रूप में , कवि कहता इस हेतु |
नव सर्जन हो विश्व में, बनें प्रगति के सेतु ||गयंद|
चीख-चीख कार कह रहा,अब तक का इतिहास|
अस्त्रों-शस्त्रों ने किया , बाधित विश्व विकास ||हंस|

Thursday, September 22, 2011

        अम्मा
जब से मुँह पर आई अम्मा |
तब से नहीं भुलाई अम्मा ||
सच को सच कहने से प्यारे,
कहीं नहीं शरमाई अम्मा |
हर मौसम में श्रम करने से,
कभी नहीं उकताई अम्मा |
इस भू पर जीवन यापन की,
समझी है गहराई अम्मा |
जीवन के इस चौथेपन में,
देती नित्य दिखाई अम्मा |
कवि का कथन याद भी रखना,
जन-मन की शहनाई अम्मा |
'तुकाराम' की इन साँसों में,
स्वर की तरह समाई अम्मा|

Wednesday, September 21, 2011

ज्योति-शिखर को

    ज्योति-शिखर को
किसी क्षेत्र से बुद्धि-विवेकी , अगर रौशनी आई |
तभी समझना चेतनता की,लौ न अभी बुझ पाई||

पगडण्डी पर चलने वाले , प्राण नहीं घबराते,
गर्म - धूल शूलों पर नंगे , पैर बढ़ाते जाते |
किसी हाथ ने न्यायनीति की अगर मशाल उठाई|
तभी समझना चेतनता की,लौ न अभी बुझ पाई||

स्वार्थ सिद्धि से सिक्त ज़िन्दगी,होती है शैतानी,
हिलमिलकर जीवन यापन की पद्धति है इंसानी |
किसी ह्रदय ने समरसता की, राह अगर अपनाई|
तभी समझना चेतनता की,लौ न अभी बुझ पाई||

ज्योति-शिखर को अंधकार के यान कहाँ छू पाये,
जो परमार्थ जिए वे निश्चय, परिवर्तन ले आये |
एक शब्द साधक ने भी यदि ,मानवता दिखलाई|
तभी समझना चेतनता की,लौ न अभी बुझ पाई||

Sunday, September 18, 2011


 



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जब से मुँह पर आई अम्मा |
तब से नहीं भुलाई अम्मा ||
सच को सच कहने से प्यारे,
कहीं नहीं शरमाई अम्मा |
हर मौसम में श्रम करने से,
 कभी नहीं उकताई अम्मा |
इस भू पर जीवन यापन की,
समझी है गहराई अम्मा |
जीवन के इस चौथेपन में,
देती नित्य दिखाई अम्मा |
कवि का कथन याद भी रखना,
जन-मन की शहनाई अम्मा |
'तुकाराम' की इन साँसों में,
स्वर की तरह समाई अम्मा|

Friday, September 16, 2011

          सामयिक एक गीत
अगर राष्ट्र -जीवन में फैला, भ्रस्टाचार मिटाना है |
तो चारित्रिक शुचि शैली को,हमें स्वतःअपनाना है||

न्यायहीन व्यवहार अनैतिक,वातावरण बनाता है |
धर्मतंत्र का आश्रय लेकर  ,चिंतन सुप्त कराता है ||
रूढ़िवाद के कारागृह से, बंदी बाहर लाना है ...

अर्थ लालची सदाचार के,पथ पर शूल बिछाते हैं|
स्वार्थसिद्धि की विषम भित्तियाँ,चारों ओर बनाते हैं|
प्रगति विरोधी गद्दारों का, विफल प्रयत्न कराना है...

लोकतंत्र में राजतन्त्र की, नियमावली छोड़नी है |
शोषण की जंजीर शीघ्र ही,मिलकर चलो तोड़नी है||
हारे थके दबे कुचलों में, साहस शक्ति जगाना है |
अगर राष्ट्र -जीवन में फैला, भ्रस्टाचार मिटाना है |
तो चारित्रिक शुचि शैली को,हमें स्वतःअपनाना है||

इल्म के दीप

शब्द के पारखी अर्थ से दूर हैं |
इसलिए आदमी आज मजबूर हैं|
चेतना की ग़ज़ल यदि कहेंगे न तो,
ज़ुल्म होने यहाँ रोज़  भरपूर हैं|
बीत सदियाँ गई तम मिटा ही नहीं,
नूर के कौन से  आज दस्तूर हैं |
लोग जिनकी बड़ाई किये जा रहे,
वे अदब हीन हैं और मगरूर हैं|
इल्म के दीप जो भी जलाये हुए,
उन  सभी  के तुकाराम  मशकूर हैं| 

इल्म के दीप

शब्द के पारखी अर्थ से दूर हैं |
इसलिए आदमी आज मजबूर हैं|
चेतना के दिये यदि जलेंगे न तो,
ज़ुल्म होने यहाँ रोज़  भरपूर हैं|
बीत सदियाँ गई तम मिटा ही नहीं,
नूर के कौन से  आज दस्तूर हैं |
लोग जिनकी बड़ाई किये जा रहे,
वे अदब हीन हैं और मगरूर हैं|
इल्म के दीप जो भी जलाये हुए,
उन  सभी  के तुकाराम  मशकूर हैं| 

Sunday, September 11, 2011

भ्रष्टाचार विमुक्त

अगर चाहते राष्ट्र हो, भ्रष्टाचार विमुक्त|
तो समाज को कीजिये,सदाचार से युक्त||
पोषक भ्रष्टाचार के , होते हैं कानून |
यही चूसते हैं सदा, कमजोरों का खून||
नहीं किसी कानून से,खिले चरित्र प्रसून|
युग नायक गाँधी बने,तोड़ नमक कानून||
जीवन में उनके नहीं, रहता भ्रस्टाचार|
जो चरित्र के हैं धनी, करते शुचि व्यवहार||


सच समझाओ हे परमेश्वर

सच समझाओ हे परमेश्वर!,क्या सचमुच यह जग प्यारा है ?
इस धरती के हर मानव को, क्या तुमने स्वयं सँवारा है ?

यदि ऐसा है तो क्यों लाखों, आँखों में आँसू आते हैं ?
कचरों के ढेरों में बच्चे , जूठन बटोर क्यों खाते हैं ?
यह सुबह-शाम होने वाला,क्या देख नहीं नजारा है ?
इस धरती के हर मानव को, क्या तुमने स्वयं सँवारा है ?

जिसने कि तुम्हारी रचना को,टुकड़ों-टुकड़ों में बटवाया|
क्यों उसे राज संचालन का, उत्तरदायी है ठहराया ?
अपने बच्चों को मजहब की, क्यों दी आजीवन कारा है?
इस धरती के हर मानव को, क्या तुमने स्वयं सँवारा है ?

तुझसे तेरी संतानों का ,क्यों स्वामी सेवक- सा नाता ?
वे बच्चे हुए भिखारी क्यों, जिनका हो परमपिता दाता?
यह दशा देख कवि क्यों न कहे,अस्तत्व न कहीं तुम्हारा है?
इस धरती के हर मानव को, क्या तुमने स्वयं सँवारा है ?

Wednesday, September 7, 2011

लोकशाही यही पूछती

लोग क्या क्या कहे हैं इसे जानिए?
तीर कितने सहे हैं इसे जानिए?
काव्य लिखना बड़ी बात होती नहीं,
क्या सही लिख रहे हैं इसे जानिए?
ध्वंस आँधी चले प्राण पोषक पवन,
साथ किसके बहे हैं इसे जानिए ?
बीत सदियाँ गईं द्वेष की आग में,
शील कितने दहे हैं इसे जानिए ?
लोकशाही यही पूछती है 'तुका '
गेह किसके ढहे हैं इसे जानिए ?

Tuesday, September 6, 2011

बिक गया प्यार के सौदे .

बिक गया प्यार के सौदे में,कुछ मिला नहीं यह गिला नहीं|
चल रहा साथ पथ पर मेरे, काफ़िला नहीं यह गिला नहीं ||
परपीड़ा देख गला ऐसा , तापों से हिम पिघला जैसा,
फिर भी कुछ कुटिल निगाहों ने,ताना मारा ऐसा-वैसा|
गाता हूँ यद्दपि स्वर मेरा,  कोकिला  नहीं यह गिला नहीं |
चल रहा साथ पथ पर मेरे, काफ़िला नहीं यह गिला नहीं ||
मन की होती है आयु नहीं,तन कान्ति कदापि चिरायु नहीं,
वह फ़सल सूखती है जिसके, अनुकूल हुई जलवायु नहीं|
मैंने दिन-रात चमन सींचा ,पर खिला  नहीं यह गिला नहीं|
चल रहा साथ पथ पर मेरे, काफ़िला नहीं यह गिला नहीं ||
शूलों से भरा रहा डेरा ,फूलों ने सुख छीना मेरा ,
क्या ख़ूब मिला वरदान मुझे, है गहन अँधेरे ने घेरा |
सहयोगी होकर भी अपना, दिल मिला नहीं यह गिला नहीं|
चल रहा साथ पथ पर मेरे, काफ़िला नहीं यह गिला नहीं ||

शब्द के पारखी

शब्द के पारखी अर्थ से दूर हैं |
इसलिए लोग कमजोर मजबूर हैं|
चेतना के दिये यदि जलेंगे न तो,
ज़ुल्म होने यहाँ रोज़  भरपूर हैं|
बीत सदियाँ गई तम मिटा ही नहीं,
नूर के कौन से  आज दस्तूर हैं |
लोग जिनकी बड़ाई किये जा रहे,
वे अदब हीन हैं और मगरूर हैं|
इल्म के दीप जो भी जलाये हुए,
उन सभी के तुकाराम मशकूर हैं| 

 

Monday, September 5, 2011

विश्व हित वरदान है

भारत भुवन में गूँज है नव चेतना अब जागरी,
नित राष्ट्रहित में रत रहे हिंदी सहित लिपि नागरी|
इस स्नेह-सरिता  से प्रवाहित हो रहा अनुरागरी,
देने चली है विश्व को निर्मल सुधारस  गागरी ||
जीवन-सुधा के घाट तक इसने बनायी राह है ,
संकल्प इसका दूर करना हर ह्रदय की आह है|
सब दीन-दुखियों शोषितों की भी इसे परवाह है,
यह चिरयुवा है और युवकों-सा भरा उत्साह है||
अभिव्यक्ति की क्षमता संजोये ज्ञान के भण्डार से ,
ज्यों लिखी जाती पढ़ी त्यों हैं सरल व्यवहार से |
स्वर-वर्ण इसके उच्चरित अपने सुनिश्चित द्वार से,
अपना रही है विश्व को निज त्यागमय आचार से ||
भाषा तथा लिपि तत्त्व का इसमें भरा विज्ञान है,
यह सभ्यता के मूल की लगती प्रथम पहचान है|
सदभावना  का सर्वथा इसने दिया अवदान  है,
श्रुति कंठ मन का मंजु मृदु यह विश्व हित वरदान है||  

Friday, September 2, 2011

उपहार लिये फिरते

कुछ लोग अकारण ही हथियार लिये फिरते|
दो शब्द छ्प गये क्या अख़बार लिये फिरते||
यह दौर नया आया सहकार बढ़ाने को,
क्यों सातवीं सदी के तकरार लिये फिरते ?
अवरोध कभी कोई पथ के न बने काँटे,
वह जान चुके कवि गण उपचार लिये फिरते|
मझधार फँसे जन को उस पार लगा दे जो,
हम नित्य उसी स्वर की पतवार लिये फिरते|
जिसमें न ज़रा भी है दुर्भाव भरी बदबू ,
दिनरात 'तुका'नय का उपहार लिये फिरते|