Saturday, September 24, 2011

प्रकृति मुस्काती है
आने देते उसे नहीं जो , सबको जग   में  लाती है|
कन्याओं का भ्रूण गिराते, शर्म नहीं क्यों आती है?

यही भ्रूण कन्या बनती है, यही बहन, भाभी, माता |
इसके हाथों मोहक बचपन स्नेह सहित पाला जाता||
यही सजाती घर चौबारे , दुख-सुख  गले लगाती है |
कन्याओं का भ्रूण गिराते, शर्म नहीं क्यों आती है?

यही लिखाती शब्द पढ़ाती, रचना धर्म सिखाती है ,
यही साथियो! सबके उर में, शाश्वत प्रेम जगाती है|
यही विश्व के ज्ञान दीप की, जलने  वाली  बाती है |
कन्याओं का भ्रूण गिराते, शर्म नहीं क्यों आती है?

इसे सजाओ इसे सँवारो , इसको  आगे आने दो |
कवि का कथन यही है प्यारे! इसको प्यार लुटाने दो|
इसके हँसने मुस्काने के, साथ  प्रकृति मुस्काती है |
कन्याओं का भ्रूण गिराते, शर्म नहीं क्यों आती है?

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