Friday, September 30, 2011

                     -एक गीत -
सुनाओ गीत कवि ऐसा,क्षितिज तक शोर हो जाये|
ज़माना त्याग दे  तन्द्रा , चतुर्दिक  भोर हो जाये ||

जहाँ इन्सान भूखा है ,ह्रदय का खेत सूखा है,
जहाँ अनुरक्ति का उत्तर,मिला हर वक्त रुखा है|
वहाँ सहयोग घन बनकर,बरसिये रातदिन इतना-
अनैतिक शक्तियों का स्वर,स्वतः कमजोर हो जाये|
ज़माना त्याग दे  तन्द्रा , चतुर्दिक  भोर हो जाये ||

जहाँ पर लूट- घोटाले, जहाँ धंधे चलें काले ,
जहाँ पर स्वार्थी उर ने, लगाये नीति पर ताले|
वहा साहित्य संबल से, प्रबोधन कीजिये इतना-
घृणा की और जो है वह, प्रणय की और हो जाये|
ज़माना त्याग दे  तन्द्रा,चतुर्दिक  भोर हो जाये ||

सहा करते अनय को जो, नहीं समझे समय को जो,
मृगों की भाँति जीवन भर-भुला पाये न भय को जो|
फजायें चाहतीं उनकी , रगों का रक्त खुला दो-
सर्प का दर्प दलने को, कबूतर मोर हो जाये |
ज़माना त्याग दे तन्द्रा ,चतुर्दिक  भोर हो जाये||
सुनाओ गीत कवि ऐसा,क्षितिज तक शोर हो जाये..   

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