Sunday, June 18, 2017

जीवन की सच्चाई कहना

######### एक गीत #########
जीवन की सच्चाई कहना, कवि ने सीखा है जाना है।
प्रतिकूल मौसमों में रहना, कवि ने सीखा है जाना है।।
जाड़ा गर्मी बरसात मिले,काँटे हों चाहे फूल खिले।
मैदान पहाड़ वादियों में, देखे हैं ऊँचे महल किले।
इनके हित सरिता सा बहना, कवि ने सीखा है जाना है।
प्रतिकूल मौसमों में रहना, कवि ने सीखा है जाना है।।
ये जाति-धर्म की बीमारी, अत्याचारी भ्रष्टाचारी।
सुखचैन छीनते सदा रहे, ठग व्यापारी सत्ताधारी।
दुख-सुख को एक भाव सहना, कवि ने सीखा है जाना है।
प्रतिकूल मौसमों में रहना, कवि ने सीखा है जाना है।।
माना यह दौर तुम्हारा है, धन वैभव लगता प्यारा है।
पर काव्य धर्म ने दुनिया की, छवि को कुछ और साँवरा है।
भूखे-प्यासों के कर गहना, कवि ने सीखा है जाना है।
प्रतिकूल मौसमों में रहना, कवि ने सीखा है जाना है।।

Friday, May 26, 2017

सभी युवतियों को

सभी युवतियों को पढ़ाओ दिखाओ,
विषद क्रूरता से बचाओ दिखाओ।
बहुत हो चुकी लंतरानी पुरानी,
किये वायदों को निभाओ दिखाओ।
जमाना परेशान है मुफलिसी में,
नहीं बैर के गीत गाओ दिखाओ।
कई सैकड़ों लोग मारे गये हैं,
नहीं काम झूठे सुनाओ दिखाओ।
करोगे करोगे किये जा रहे हो,
किया जो उसे तो बताओ दिखाओ।
तुकाराम बेखौफ माहौल पूरा,
बहुत है जरूरी बनाओ दिखाओ।

सामन्ती आधार बढ़ा है

**************एक गीत ***************
सामन्ती आधार बढ़ा है, पिटने लगे गरीब|
अमीरी दिखलाये तहजीब||
अमीरी दिखलाये तहजीब|||
केवल बहकाबे की बातें, आश्वासन पोषक बरसातें|
चाटुकार मदहोश हुये जो, करें निहत्थों ऊपर घातें||
ठग्गू दादा सिखलाते हैं, ठगने की तरकीब|
अमीरी दिखलाये तहजीब||
अमीरी दिखलाये तहजीब|||
धार्मिक आडम्बर फैलाना, छल से दंगों में उलझाना|
अभिनय रूपी हथियारों से, भ्रामक वातावरण बनाना||
हस्त लकीरों से बनते हैं, उज्ज्वल नहीं नसीब|
अमीरी दिखलाये तहजीब||
अमीरी दिखलाये तहजीब|||
बड़ी गूढ़ शासन की भाषा, स्वार्थसिद्धि प्रेरक अभिलाषा|
गिरगिट -सा जो रंग बनाये, वही प्रशासन की परिभाषा||
सज्जन संत स्वार्थ सत्ता के, रहते नहीं करीब|
अमीरी दिखलाये तहजीब||
अमीरी दिखलाये तहजीब|||
अपनों में भी अपने होते, आम लोग बस बोझे ढोते|
खास माल खाते- पीते हैं, नारे बाज अनवरत रोते||
झूठों को मिलती है सत्ता, सच को शूल सलीब|
अमीरी दिखलाये तहजीब||
अमीरी दिखलाये तहजीब|||

Friday, May 19, 2017

ज़िन्दगी है चमन

ज़िन्दगी है चमन भूल मत जाइये,
चाहते सब अमन भूल मत जाइये।
वो उगेगा खिलेगा फलेगा सहज,
जो सहेगा दमन भूल मत जाइये।
दूध कितना पिलाते रहो साँप की,
सोच है विष वमन भूल मत जाइये|
न्याय की माँग है दुष्टता का सदा,
है जरूरी शमन भूल मत जाइये|
सत्य है और चलता रहेगा तुका,
रोज आवागमन भूल मत जाइये|

Wednesday, May 10, 2017

खोजोगे तो पाओगे



खोजोगे तो पाओगे सच्चाई भी पूरी,
व्यवहारों में देखोगे अच्छाई भी पूरी|
कोई और नहीं होते खोजी कवियों जैसे,
नाप सकोगे सागर की गहराई भी पूरी|
लोकतंत्र है सर्वोत्तम हम इसी सहारे से,
पाट सकेंगे भेदभाव की खाई भी पूरी|
पूरा है विश्वास सफलता पायेंगे प्यारे,
साथ राष्ट्र के खड़ी हुई तरुणाई भी पूरी|
सच्चा प्रेमी तुकाराम ने माना है उनको,
स्नेहभाव से जो जीते तन्हाई भी पूरी||

Saturday, May 6, 2017

यह कैसा अनुराग

यह कैसा अनुराग हमारी आँखों में,
सम्मोहन की आग हमारी आँखों में।
सबको ठंडी छाँव फूल-फल देते हैं,
अपनेपन के बाग हमारी आँखों में।
भूल गये वे दंश ज़िंदगी बदल गई,
आश्रय पाये नाग हमारी आँखों में।
गंगा जैसा नीर प्रवाहित करने को,
बसे पवित्र प्रयाग हमारी आँखों में।
तुका प्रबोध प्रकाश तर्क के पानी से,
रहे न दूषण दाग हमारी आँखों में।

Monday, May 1, 2017

प्यार बहुत था उनके मन में

प्यार बहुत था उनके मन में, धन-वैभव थोड़ा था|
बिछुड़ गये वे लोग जिन्होंने, हम सबको जोड़ा था||
देश धर्म का ज्ञान उन्हें था, मानवता का भान उन्हें था|
परहितार्थ जीवन शैली थी, जनमन में सम्मान उन्हें था||
निर्भय होकर के स्वतंत्रता, हेतु सहा कोड़ा था|
बिछुड़ गये वे लोग जिन्होंने, हम सबको जोड़ा था||

सच्चाई था उनका गाना, स्वाभिमान का स्वर अपनाना|
आज़ादी के लिए जरूरी, मार्ग अहिंसक दिल से माना||
गोरी सत्ता का बारूदी, घेरा तक तोड़ा था|
बिछुड़ गये वे लोग जिन्होंने, हम सबको जोड़ा था||
नवभारत की नई कहानी, मिलकर लिखी न की शैतानी|
सबकी सुनी धारणा समझी, किये नहीं किंचित मनमानी||
वैज्ञानिक चिन्तन के बल से, प्रगति ओर मोड़ा था|
बिछुड़ गये वे लोग जिन्होंने, हम सबको जोड़ा था||

Wednesday, April 12, 2017

स्वर्ण सी शुद्धता

ये न समझो कि ऐसा चलेगा सदा,
जो गलत है गलत वो खलेगा सदा|
टहनियाँ लाख छाँटो मगर वृक्ष तो,
पर हितों के लिए ही फलेगा सदा|
नीर परमार्थ सरि से बहे अनवरत,
बर्फ इस लक्ष्य से ही गलेगा सदा|
सृष्टि में ज़िन्दगी का नहीं अंत हो,
प्यार तो प्यार है वो पलेगा सदा|
स्वर्ण सी शुद्धता चाहता जो 'तुका'-
अग्नि के ताप में वो जलेगा सदा|

Tuesday, April 11, 2017

शांति परिवेश

हो सके तो हकीकत समझ लीजिये ,
जो घिरी है मुसीबत समझ लीजियेl
नागरिक जी रहे धर्म के खौफ में,
कौन देंगे हिफाजत समझ लीजिये?
उग्रता आचरण में पनपने लगी,
ये नहीं है शराफत समझ लीजियेl
शांति परिवेश के नाम से देश में,
हो रही है शरारत समझ लीजियेl
लालची लोभ के मोह की मार से,
फैलती है जहालत समझ लीजियेl
क्रूर बेख़ौफ करते दरिन्दी दिखे,
कौन देते इजाजत समझ लीजिये|
ईश के नाम से हो रहा जो तुका,
पूर्व उसके इबादत समझ लीजियेl

Saturday, April 8, 2017

पाप से दूर हूँ|

मानता हूँ कि मैं आप से दूर हूँ|
अर्थ सन्सार के पाप से दूर हूँ||
बाप के तेज का तेज है चित्त में,
किन्तु रहता खुदा बाप से दूर हूँ|
बाँटता जो कि छोटे बड़ों में रहा,
धर्म के छद्म परिमाप से दूर हूँ |
संत-सा आचरण जी रहा सर्वदा,
लोभ की सोच के जाप से दूर हूँ|
बोध में तो नहीं सरहदों की कथा,
स्वार्थ से युक्त सन्ताप से दूर हूँ|
जो किसी पर करे बार छुप के सखे,
शक्ति के उस प्रखर चाप से दूर हूँ||

Thursday, April 6, 2017


आग इंसाफ की

लूटने की प्रथा तो बदलती नहीं,
लालसा से भरी रात ढलती नहीं|
आज कानून मजबूर से दिख रहे,
ये व्यवस्था सँभाले सँभलती नहीं|
स्वर्ण सी शुद्धता हेतु मन में कभी,
आग इंसाफ की तेज जलती नहीं|
मोह रूपी तमस के शमन के लिए,
रौशनी भी प्रभावी निकलती नहीं?
सूखने नीर पाये न सरि में कभी,
शैल से बर्फ इतनी पिघलती नहीं|
न्याय संघर्ष की सोच श्रीमान जी,
हारने पर कभी हाथ मलती नहीं|
बात बिगड़े तभी शीघ्र सुलझाइये,
टालने से 'तुका' बात टलती नहीं|

Tuesday, April 4, 2017

गीत लिखता हूँ ..



जिन शब्दों से शान्ति पनपती उन्हें सुनाता हूँ,
इंसानों को इंसानों जैसा अपनाता हूँ|
गीत लिखता हूँ गाता हूँ||

खेत खलियानों की आशा, गाँव-गलियों की अभिलाषा,
मौन रहकर जो रो लेती, दर्द की वो शाश्वत भाषा,
सीखता और सिखाता हूँ|
गीत लिखता हूँ गाता हूँ||

नैन ये कहीं नहीं झुकते, भाव भी कभी नहीं रुकते,
पूर्ण ऋण धरती माता के, जानता हूँ न कभी चुकते|
काव्य कर्त्तव्य निभाता हूँ|
गीत लिखता हूँ गाता हूँ||

कर्म का क्षेत्र विश्वव्यापी, धर्म कहता जिनको पापी,
सूत्र जीवन संवर्धन के, जानते जो  न चरण चापी|
चित्त वे सुप्त जगाता हूँ
गीत लिखता हूँ गाता हूँ||

लोकतन्त्र के ढाँचे में

******************गीत******************
पानी में आग लगाने की, वह ठेकेदारी करते हैं|
संरक्षक बनके रक्षण की, खुद दावेदारी करते हैं||

छल जोड़े कंधे से कंधा, करने को लूट-पाट धंधा|
वैभवशाली इस दुनियाँ के, आकर्षण में झूमें अंधा||
घर लाखों लगे महकने वे, जो थानेदारी करते हैं|
संरक्षक बनके रक्षण की, खुद दावेदारी करते हैं||

बाजारवाद का डंडा है, बस अर्थ कमाना फंडा है,
कानून अमीरों की शोभा, अपनाये हर हथकंडा है|
पूँजीपति नेताओं के सँग, अब हिस्सेदारी करते हैं||
संरक्षक बनके रक्षण की, खुद दावेदारी करते हैं||

जनता को मूर्ख बनाना है, सच्चाई को दफ़नाना है|
शुचि लोकतन्त्र के ढाँचे में, सामंतवाद अपनाना है||
ठग रूढ़िवाद के तंत्रों की, नित पहरेदारी करते हैं|
संरक्षक बनके रक्षण की, खुद दावेदारी करते हैं||

Monday, April 3, 2017

सुख का वृन्दावन



दुखदायक जंगल उग आया, सुख का वृन्दावन चला गया|
अब केवल सुधियाँ बाकी हैं, मधु मौसम पावन चला गया||

भूखे-प्यासे लघु गाँवों को, पीपल बरगद की छाँवों को,
शासन पाकर नायक भूले, जब सेवादल के पाँवों को|
तब बिखर गये साथी उनके, वह दौर सुहावन चला गया|
अब केवल सुधियाँ बाकी हैं, मधु मौसम पावन चला गया||

विपदा गर्दन को कसती है, रोटी को भूख तरसती है,
जिनसे आशायें थी उनकी, बातों से आग बरसती है|
जो पल में तपन बुझाता था, वह शीतल सावन चला गया|
अब केवल सुधियाँ बाकी हैं, मधु मौसम पावन चला गया||

यह तेरा है, वह मेरा है, दूषण नफ़रत ने घेरा है,
जिस ओर नजर दौड़ाता हूँ, उस ओर प्रचंड अँधेरा है|
अलगाव दुराव प्रभावी है, प्रिय ह्रदय मिलावन चला गया|
अब केवल सुधियाँ बाकी हैं, मधु मौसम पावन चला गया||

कुछ पट्टे बंधे दुपट्टे हैं, अनुभव तो कडुवे खट्टे हैं,
झुण्डों में कुछ चट्टे- बट्टे, लटकाये फिरते कट्टे हैं|
उद्घोष हो रहा भयाक्रांत,गायन मनभावन चला गया|
अब केवल सुधियाँ बाकी हैं, मधु मौसम पावन चला गया||


Sunday, April 2, 2017

यह बात खुली

हम सम्विधान के पालक हैं,शुचि सम्विधान रखवाले हैं|
यदि सम्विधान को छेड़ा तो, कुछ हो सकते मतवाले हैं||

यह बात खुली है कहने दो, इस पर पर्दा मत रहने दो,
जन मन न प्रदूषित हो पाये,नित प्राणवायु को बहने दो|
हम उनकी व्यथा कहेंगे ही, जिनको रोटी के लाले हैं|
यदि सम्विधान को छेड़ा तो, कुछ हो सकते मतवाले हैं||

हम नारे नहीं लगाते हैं, चेतनता बोध जगाते हैं,
भारतवासी को भारत के, बाहर न कभी भगाते हैं|
हम स्वानुभूति के गायक हैं, मुँह पर न लगाते ताले हैं|
यदि सम्विधान को छेड़ा तो, कुछ हो सकते मतवाले हैं||

हम लोकतन्त्र के दीवाने, हमने विवेक के ध्वज ताने,
सुख-शांति विश्व को देते जो, वे मूल्य सुहाने पहचाने|
हम राष्ट्र तिरंगे के साथी, करते सहयोग उजाले है|
यदि सम्विधान को छेड़ा तो, कुछ हो सकते मतवाले हैं||

यह बात खुली








हम सम्विधान के पालक हैं,शुचि सम्विधान रखवाले हैं|
यदि सम्विधान को छेड़ा तो, कुछ हो सकते मतवाले हैं||
यह बात खुली है कहने दो, इस पर पर्दा मत रहने दो,
जन मन न प्रदूषित हो पाये,नित प्राणवायु को बहने दो|
हम उनकी व्यथा कहेंगे ही, जिनको रोटी के लाले हैं|
यदि सम्विधान को छेड़ा तो, कुछ हो सकते मतवाले हैं||

हम नारे नहीं लगाते हैं, चेतनता बोध जगाते हैं,
भारतवासी को भारत के, बाहर न कभी भागते हैं|
हम स्वानुभूति के गायक हैं, मुँह पर न लगाते ताले हैं|
यदि सम्विधान को छेड़ा तो, कुछ हो सकते मतवाले हैं||

हम लोकतन्त्र के दीवाने, हमने विवेक के ध्वज ताने,
सुख-शांति विश्व को देते जो, वे मूल्य सुहाने पहचाने|
हम राष्ट्र तिरंगे के साथी, करते सहयोग उजाले है|
यदि सम्विधान को छेड़ा तो, कुछ हो सकते मतवाले हैं||

हम हैं सबके

मार्ग मिला है ऊँचा-नीचा, शूलों से भरपूर|
हमारी मंजिल तो है दूर||
हमारी मंजिल तो है दूर|||
चलते रहे नहीं कुछ पाया, रुखा-सूखा हँसकर खाया,
रंच थकावट अभी न आई, यद्दपि अब चौथापन आया|
मौसम बदले नहीं लगाया, उन पर कभी कसूर|
हमारी मंजिल तो है दूर||
हमारी मंजिल तो है दूर|||
सोच समझ आये इंसानी, मिले सभी को भोजन पानी,
लोकतन्त्र के सम्विधान में, कोई बने न राजा- रानी|
लक्ष्य यही है यही प्रभावी, करना है दस्तूर|
हमारी मंजिल तो है दूर||
हमारी मंजिल तो है दूर|||
मानवता की परिभाषा को, मतदाता की अभिलाषा को,
बंधु परखना हुआ जरूरी,जन-गण-मन की जिज्ञासा को|
हम हैं सबके इसी नीति को, करना है मंजूर|
हमारी मंजिल तो है दूर||
हमारी मंजिल तो है दूर|||

Saturday, April 1, 2017

श्रेष्ठ आदर्श

आपको प्यार करते रहे प्यार से,
प्यार के गीत प्यारे कहे प्यार से|
एक पल भी नहीं शत्रुता में जिये,
शब्द के वाण लाखों सहे प्यार से|
चेतना शक्ति सन्सार को दे सकूँ,
प्राण पोषक पवन-सा बहे प्यार से|
तर्क प्रज्ञा प्रदायक बने जिंदगी,
ज्ञान की भट्ठियों में दहे प्यार से|
श्रेष्ठ आदर्श जो हो गये विश्व के, 
ख्याल उनके तुका ने तहे प्यार से|

Sunday, March 26, 2017

प्रधानी तुम्हारी?

समझ से परे है कहानी तुम्हारी,
गई बीत यूँ ही जवानी तुम्हारी|

सदा भीड़ भारी किये जा रही है,
निरन्तर प्रशंसा जबानी तुम्हारी|

स्वतः गौर करिये आती नहीं क्यों,
उन्हें रास प्यारे! प्रधानी तुम्हारी?

सही बात है आधुनिक दौर में ये,
बड़ी सोच लगती पुरानी तुम्हारी|

नहीं रंच सन्देह इसमें "तुका" को-
कि जनता हुयी है दिवानी तुम्हारी|

Tuesday, March 14, 2017

कहाँ छुपाया माल?

घोटालेबाजों का बोलो, कहाँ छुपाया माल?
कटे क्यों नहीं अभी तक जाल?
कटे क्यों नहीं अभी तक जाल?
कड़वी बातें सुनते-सुनते, आरोपों को गुनते-गुनते,
सब्र टूटने लगा छलावी, नेताओं को चुनते-चुनते|
कब तक खींचोगे बतलाओ, मजलूमों की खाल?
कटे क्यों नहीं अभी तक जाल?
कटे क्यों नहीं अभी तक जाल?
भूखे-प्यासे वदन उघारे, मुक्त घूमते ठग हत्यारे,
गूँज रहे गलियों-गलियों में, जाति-धर्म के पोषक नारे|
बेच रहे स्वर्णिम स्वप्नों को, चाटुकार बाचाल| 
 कटे क्यों नहीं अभी तक जाल?
कटे क्यों नहीं अभी तक जाल?
असमंजस में हैं विश्वासी, क्रोधित दिखते हैं सन्यासी,
जादूगीरी बहुत हो चुकी, मिला नहीं मौसम मधुमासी|
शैतानों की ओर झुकी क्यों, न्याय वृक्ष की डाल?
कटे क्यों नहीं अभी तक जाल?
कटे क्यों नहीं अभी तक जाल?

Friday, February 17, 2017

औरत बड़ी मजबूत है

सच बात वो प्रत्येक से कहती नहीं सदा,
कुर्सी किसी के साथ में रहती नहीं सदा|
यह वायु है इसकी रही इतनी विशेषता- 
सहजोर के अनुकूल ये बहती नहीं सदा|
माना कि भूखे पेट की ताकत अधीर है-
पर क्रूरता की दासता सहती नहीं सदा|
औरत बड़ी मजबूत है सहकार भाव से-
पर वेदना की आग में दहती नहीं सदा|
सत्ता तुका न छोड़ती शासन के मोह को- 
पर राह भी उत्पात की गहती नहीं सदा|