Friday, May 31, 2013

अब अशेष सासें कर दी हैं, कविता को कुर्बान|
हमारी बस इतनी पहचान||
हमारी बस इतनी पहचान|||

काव्य-कर्म की महिमा गाना, शब्दों का भण्डार बढ़ाना,
साहित्यिक -अनुशासन द्वारा, जीवन का उद्देश्य बताना|
इन्सानों की जटिल ज़िन्दगी, करनी है आसान| 
हमारी बस इतनी पहचान||
हमारी बस इतनी पहचान|||

पीड़ित की आवाज़ उठाना, सुप्त चेतना शक्ति जगाना,
वर्तमान को सजा-धजा के, कुछ भविष्य संपन्न बनाना| 
नैतिक मूल्यों के प्रसार का, थाम लिया अभियान|
हमारी बस इतनी पहचान||
हमारी बस इतनी पहचान||| 

पंचशील का स्वस्थ करीना, लोकतांत्रिक जीवन जीना,
उसको मुख्य धार में लायें, जिसे ज्ञात बस खाना -पीना|
करें लोकशाही विचार का, प्रिय! आदान -प्रदान| 
हमारी बस इतनी पहचान||
हमारी बस इतनी पहचान|||

Wednesday, May 29, 2013

किया किसी ने सवाल कैसा?
मचा ह्रदय में बवाल कैसा?

सुप्रेरणा की जब याद आयी,
तभी दृगों में बरसात छायी,
लगी सताने अनुभूति पीड़ा --
करीब कैसे फिर खींच लायी?
अधीर आनन प्रबाल कैसा?
मचा ह्रदय में बवाल कैसा?

अजीब हालात रहे हमेशा,
परार्थ प्रेमी युगबोध पेशा, 
सुकर्म पाया पढ़ना पढ़ाना-
लगा इसी में मनप्राण रेशा|
किया कला ने कमाल कैसा?
मचा ह्रदय में बवाल कैसा?

नहीं छिपाये छिपती कहानी,
लड़ी दुखों से डटके जवानी,
स्वभाव क्रोधी पर मित्र कोई -
कही न झूठी अपमान वाणी| 
मिला सुदर्शन विशाल कैसा? 
मचा ह्रदय में बवाल कैसा?
कवि जीवन मार्ग प्रेणता, होता पावन व्रतधारी|
अगुवाई कर कविता ने, मानव तस्वीर सँवारी||

जब कविता की क्षमता को, इन्सान समझने लगते,
सिंहासन हिल जाते हैं, सम्राट विलखने लगते|
स्वर-वर्णों की ज्वाला में, जल जाते अत्याचारी|
अगुवाई कर कविता ने, मानव तस्वीर सँवारी|||

अनुबंध किया कविता से, तो सविता बनकर चमको,
घर-आँगन गाँव-शहर क्या, अब दुनिया भर में गमको|
शुचि नैसर्गिक नियमों के, सर्जक सच्चे अधिकारी|
अगुवाई कर कविता ने, मानव तस्वीर सँवारी|||

अवनति उन्नति का क्रम तो, परिवर्तन का हिस्सा है,
रवि उगे न डूबे ज्यों, त्यों, कवि स्वर शाश्वत किस्सा है| 
सामाजिक मूल्य विधाता, अनुशासन धर्म प्रभारी|
अगुवाई कर कविता ने, मानव तस्वीर सँवारी||
धोखा देने वाले बोलो, कितने धोखे दोगे|
कितना और गिरोगे आखिर, कितना और गिरोगे?

आदिकाल से राजतन्त्र ने, प्यार किया शैतान को|
अनदेखी विपदा के भय से, पूजा है अज्ञान को||
ठग आरे से हरिश्चन्द्र-सा, कितना और चिरोगे? 
कितना और गिरोगे आखिर, कितना और गिरोगे?

जय-जयकार किया करते जो, समझो उन्हें न मित्र हैं|
चाटुकारियों के कोई भी, होते नहीं चरित्र हैं||
लगुओ-भगुओं के घेरे में , कितना और घिरोगे?
कितना और गिरोगे आखिर, कितना और गिरोगे?

गाँव-नगर की गलियों-गलियों, चौराहों बाजार में|
भूखी-प्यासी जनता राहें, रोक रही प्रतिकार में||
सोचो छिपने हेतु फिरोगे, कितना और फिरोगे?
कितना और गिरोगे आखिर, कितना और गिरोगे?

Tuesday, May 21, 2013

मत कहो संसार में सब बेसबब होता रहा,
बस इसी विश्वास से अधिकार जन खोता रहा|

भाग्य की सारी कहानी लूटवादी कल्पना,
इस प्रखर पाखण्ड से बोझा ह्रदय ढोता रहा|

क्यों नहीं वंचित रहेगा वो सफल आयाम से, 
मौज रूपी विस्तरे पर जो पड़ा सोता रहा|

ज़िन्दगी की डोर जिसने आप ही थामी नहीं,
वो गुलामों की तरह चुपचाप बस रोता रहा|

फल मधुर उसके पसीना से यहाँ फलते रहे,
बीज जो परमार्थ के निष्पृह यहाँ बोता रहा|

हाथ उसके शुद्ध मोती खोज लेते हैं 'तुका',
शब्द सागर में लगाता जो ह्रदय गोता रहा|

Friday, May 17, 2013

अपने पर जो किये भरोसा, वही जगत के नूर बने|
उनके कार्यकलाप अनोखे, सामाजिक दस्तूर बने||

कवि कहते उन्मुक्त भाव से, समझी परखी बात सही,
इन्सानों की आदिकाल से, सर्जनात्मक सोच रही|
जिन लोगों को प्यार विश्व से, दस्तकार मजदूर बने|
उनके कार्यकलाप अनोखे, सामाजिक दस्तूर बने||

छिपी नहीं यह बात किसी से, बिना त्याग के प्यार नहीं,
परपीड़ा से व्यथित न जो हों, उनमें उच्च विचार नहीं |
परहित जो मजबूर बने वे, दुनिया में मशहूर बने|
उनके कार्यकलाप अनोखे, सामाजिक दस्तूर बने||

असमंजस से भरी ज़िन्दगी, समझो भारी बोझ बनी,
उसके दैनंदन कृत्यों में, हरदम रहती तना- तनी|
पर जो अवरोधों से लड़ते, वे सब सफल जरूर बने|
उनके कार्यकलाप अनोखे, सामाजिक दस्तूर बने||

Saturday, May 11, 2013

कवि ने लिखी सुनायी सबको, महिमा परिवर्तन की|
जिसके कारण आज बज रही, मुरली जन वन्दन की||

एक समय था जब इंसा को, नहीं सुलभ थी रोटी,
और अकारण दूर- दूर थी, लम्बी दाढ़ी- चोटी|
इन हालातों में  बिखेर दी, सरस महक चन्दन की|
जिसके कारण आज बज रही, मुरली जन वन्दन की|| 

युग प्रबोध के गीत छंद से, सुप्त चेतना जागी,
लोकतंत्र ने बना दिया है, अंतर मन अनुरागी|
अब पैरों में नहीं किसी ने, साँकल जड़ बंधन की|
जिसके कारण आज बज रही, मुरली जन वन्दन की||

अधिकारों की बात हो रही, नारी की आज़ादी,
वृद्धों को सम्मान मिल रहा, खुश हैं दादा-दादी |
खड़ी प्रतीक्षारत स्वागत में, प्रतिभा संवर्धन की|
जिसके कारण आज बज रही, मुरली जन वन्दन की||

युवक युवतियों के हाथों ने, ले ली प्रगति मशालें,
हारे- थके बोझे के मारे, जो हैं उन्हें सँभालें|
संविधान की गौरव गाथा, जय मानव दर्शन की|
जिसके कारण आज बज रही, मुरली जन वन्दन की||

Thursday, May 2, 2013

जाति-वर्ग का मीत नहीं हूँ, इंसानों का गीत हूँ|
जो बिखेरता शील सरसता, वो सजीव संगीत हूँ||

कवि ने वही बनायी राहें, जिनमे चैन पा सकें आहें,
हारे-थके हुए को हँस के, गले लगाती स्नेहल बाहें|
अपने और परायेपन के, चिंतन के विपरीत हूँ|
जो बिखेरता शील सरसता, वो सजीव संगीत हूँ||

मानवता की यही कहानी, नहीं आचरण हो अभिमानी,
सर्जनात्मकता की लय से, जन-मन हो ज्ञानी-विज्ञानी|
इसी सोच से पल जीवन के, करता रहा व्यतीत हूँ|
जो बिखेरता शील सरसता, वो सजीव संगीत हूँ||

शब्द-अर्थ का मेल बढ़ाता, जग संवेदन शील बनाता, 
आँखों देखी समझी परखी, घटनाओं से बोध जगाता|
दहशतगर्दों के कृत्यों से, रहा नहीं भयभीत हूँ|
जो बिखेरता शील सरसता, वो सजीव संगीत हूँ||