Thursday, May 2, 2013

जाति-वर्ग का मीत नहीं हूँ, इंसानों का गीत हूँ|
जो बिखेरता शील सरसता, वो सजीव संगीत हूँ||

कवि ने वही बनायी राहें, जिनमे चैन पा सकें आहें,
हारे-थके हुए को हँस के, गले लगाती स्नेहल बाहें|
अपने और परायेपन के, चिंतन के विपरीत हूँ|
जो बिखेरता शील सरसता, वो सजीव संगीत हूँ||

मानवता की यही कहानी, नहीं आचरण हो अभिमानी,
सर्जनात्मकता की लय से, जन-मन हो ज्ञानी-विज्ञानी|
इसी सोच से पल जीवन के, करता रहा व्यतीत हूँ|
जो बिखेरता शील सरसता, वो सजीव संगीत हूँ||

शब्द-अर्थ का मेल बढ़ाता, जग संवेदन शील बनाता, 
आँखों देखी समझी परखी, घटनाओं से बोध जगाता|
दहशतगर्दों के कृत्यों से, रहा नहीं भयभीत हूँ|
जो बिखेरता शील सरसता, वो सजीव संगीत हूँ||

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